Sunday, September 11, 2011

बातचीत- प्रो केसी गुप्ता, सेवानिवृत्त प्रोफेसर मेरठ कॉलेज

आपका शुरुआती दौर कैसा बीता?
मेरी पैदाइश 1932 को आगरा में हुई थी, प्राथमिक स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा ली। उस समय जो माहौल था, उसमें ज्यादातर बुजुर्ग कांग्रेसी थे और बच्चे आरएसएस की शाखा में जाते थे, सो मैं भी शाखा में जाया करता था।  उस समय देश की आजादी का माहौल था, लोग अच्छा साहित्य लिख रहे थे। पिता एक वकील के मुंशी थे, वे बेहद सरल-सहज स्वभाव के थे। वे नैतिकता का पाठ पढ़ाने के बजाय बच्चों को नैतिक माहौल देने पर विश्वास करते थे।
युवा के तौर पर पहली बार आपने किस पेशे को सही समझा था?
आगरा विश्वविद्यालय से इंग्लिश में एमए करने के बाद, 1957 में दिल्ली गया। वहां हिंदुस्तान समाचार सेवा में रिर्पोटर की हैसियत से काम किया। नौकरी के साथ भारत  सेवक समाज संस्था से जुड़ा। यहां मात्र एक साल ही रहा, क्योंकि मेरा मन राजनीति शास्त्र से एमए करने का था, इसलिए  मैं अपने भाई के पास पहुंच गया, जो डीएवी कॉलेज कानपुर मेंं केमिस्ट्री के प्रोफेसर थे। वहां राजनीति शास्त्र में एमए किया, इस विषय में इतना मन लगा कि मैंने यह परीक्षा प्रथम श्रेणी में उर्त्तीण की। यहां भी पढ़ाई के साथ एक निजी कंपनी में सेल्स मैनेजर के पद पर काम किया।
इस पसंदीदा विषय में शिक्षण का जिम्मा कब मिला?
पहली बार बुलंद शहर के डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता के पद पर रहकर शिक्षण किया, उसके बाद 1969 में मेरठ कॉलेज का राजनीति शास्त्र का प्रवक्ता बना। यहां 1994 तक लगातार शिक्षण कार्य किया और राजनीति शास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुआ, इकतीस साल तक छात्र-छात्राओं को पढ़ाया। 
राजनीति शास्त्र विषय से जुड़े किन महत्वपूर्ण दायित्वों को आपने निभाया?
पहली बार यूजीसी के एक प्रोजेक्ट के लिए जुटा, जो आतंकवाद विषय पर आधारित था, लेकिन इस प्रोजेक्ट में मेरे सामने चुनौती थी। वह यह कि यह प्रोजेक्ट अगर ईमानदारी से करता तो आतंकवादियों के सहयोग के संभव ही नही था। मुझे राजनैतिक जानकार समझकर वह कोई जानकारी नहीं देते थे, कई कोशिशों के बाद अंत में छोड़ना ही पड़ा, जो तीन साल तक चला। इसके बाद 1974 में कनाडा और अमेरिका में आयोजित सोश्योलॉजी में आयोजित वर्ल्ड कांग्रेस में शामिल हुआ। यह इमरजेंसी से पहले की बात है, इस समय मेरी पीएचडी पूरी हो चुकी थी।
आपके शोध का विषय राजनीति शास्त्र के किस विषय से जुड़ा था?
मेरा शोध ' लोकतंत्र में राजनैतिक अलगाव ' विषय पर आधारित था। विषय भारतीय लोकतंत्र में व्यक्ति की लोकतंत्रिक अलगाव की कमजोरियों पर केंद्रित था। लोकतंत्र यह बात मानकर चलता है कि समाज के जो लोग इस देश में हैं, वे राजनीति में रूचि जरूर लेंगे। वे अच्छे जागरूक मतदाता होंगे, लेकिन व्यवहार में ऐसा देखने को कहीं नहीं मिलता, कि लोग जागरूक मतदाता साबित होता हों, इसका मूल्यांकन ही मेरा विषय रहा।
लोकतंत्र में आम नागरिक अलगाववादी क्यों हो गया है, क्या कारण हैं?
मैंने शोध के बाद पाया कि लोगों में अलगाव है, राजनैतिक लगाव के लिए सक्रिय होने से पहले जरूरी है कि वह 'जागरूक नागरिक' हो। कहना आसान है, लेकिन नागरिक का जागरूक होना महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो बेहद जरूरी है, लेकिन हो उल्टा रहा है। वह नागरिक का दायित्व ही नही निभा पा रहा है। आज का नागरिक जागरूक ही नही बन पा रहा है, यही देश का दुर्भाग्य है। मसलन रैगिंग के लिए सुप्रीम कोर्ट आदेश देता है। सवाल यह है कि अगर हम जागरूक हैं, तो ऐसे काम हो ही कैसे रहें हैं? हमें सुधारने के लिए कानून बनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है।
लोगों के अलगाववादी होने की क्या वजह रहीं हैं, कहां दिक्कत है?
 देश की आजादी के बाद समय बीतने के साथ वातावरण में देशभक्ति और नागरिकता का भाव कम होता गया। लोग राजनीति और राजनीति से प्राप्त होने वाले लाभ पर ज्यादा निर्भर हो गए। आजादी के पहले यहां सिर्फ देश था, जिसका मूल आजादी थी। लेकिन आजादी के बाद लोग न तो आदर्श बन पाए न ही पेश कर पाए। यह जो पचास साल का अंतराल आदर्श के अभाव में रहा यही मूल वजह रहा। न चंद्रशेखर आजाद पैदा हुए न भगत सिंह हुए न बिस्मिल, इनके बाद न कोई देशभक्त बना न ही लोग देशभक्त बनना चाहते हैं। शिक्षा का भी यही हाल है, लोग डिग्रियां लेना और देना जानते हैं, अध्ययन करना और कराना परंपरा में रहा ही नही। छात्र राजनीति का भी पतन हुआ है, आज छात्र अराजक बनते हैं, वह समस्याओं के लिए नहीं जुटते, बल्कि अपने राजनैतिक व्यवसाय को देखते हैं, पहले ऐसी छात्र राजनीति नहीं थी। लोकतंत्र में आज छात्र पत्थर फेंक रहें हैं, कहां का लोकतंत्र ऐसा सिखाता है। इसके लिए शिक्षक भी दोषी हैं, इसीलिए लोग जागरूक नही बन पाते। लोकतंत्र में अलगाव होना पतन का मुख्य कारण होता है। आज जिसकी रूचि नहीं होती वह भी वोट डालता है, इससे उसके वोट डालने या न डालने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर ध्यान दें तो साफ दिखता है, हर तरफ आदमी उखड़ा-उखड़ा सा है, वह चाहे परिवार में अभिभावक हो, बाजार में व्यवसायी हो या कॉलेज में शिक्षक। हर तरफ सिर्फ अपराध है, लेकिन किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं है। हम प्रकृति का लगातार दोहन कर रहें हैं, लेना तो जानते हैं, देना जानते ही नही, इसीलिए ग्लोबल वार्मिंग जैसे खतरे का सामना कर रहें हैं।
एक बेहतर राजनीतिज्ञ होने के लिए इंसान में क्या गुण होने चाहिए?
आज के समय में सारी समस्याएं राजनीति से जुड़ीं हैं। इंसान में उत्कृष्ट देशभक्ति की भावना हो, सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा नेतृत्वकारी व्यक्तित्व हो। उसके अंदर समान्य मानवीय गुण हों, सामाजिक सहकारिता और ईमानदारी होनी चाहिए। हां ईमानदार होना बुनियादी जरूरत है, वह कहीं भी किसी भी पद पर हो यह कहने की जरूरत न हो कि फलां ईमानदार अफसर है, यह तो बुनियादी जरूरत है। लोकतंत्र में राजनीति में यह ईमानदारी की कमी विश्वपटल पर आसानी से दिखती है। आज राजनीति मिशन नही रहा, व्यवसाय हो गई है, इसमें पीढ़ी दर पीढ़ी आजीविका की गारंटी है। यही आजादी के पहले यह देशभक्ति का जरिया थी, लोकतंत्र ने समय के साथ इस धंधे में लोगों की भूख बढ़ा दी है।
एक राजनीति शास्त्री की हैसियत से सक्रियता कैसी रही और आप कहां-कहां गए?
1974 में कनाडा, अमेरिका, टोरन्टो में आयोजित वर्ल्ड कांग्रेस में गया, यहां आयोजित विश्व सम्मेलन में अपना पेपर पढ़ा। न्यूयार्क, वाशिंगटन, पेनसिल्वानियस, हॉवर्ड, अमेरिका, 4 बार यूरोप, जर्मनी, फ्रांस, नार्वे, स्वीटजरलैंड, बेल्जियम और हालैंड जैसे लगभग पश्चिम के सारे देशों में विषय से जुड़े सेमिनार और परिचर्चाओं में शामिल रहा, जिसमें भारत देश का प्रतिनिधित्व भी किया। एक वर्ल्ड आर्गेनाइजेशन जिसका नाम अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार नैतिक संघ है इसका दस साल तक अध्यक्ष भी रहा। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन मेें सक्रिय था, इसीलिए 1975 में जेल गया और घर की कुर्की भी हुई। उस समय मैं मेरठ कॉलेज में पढ़ा रहा था, मेरा आवास कैंपस में ही था। 1979 में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में नकल के खिलाफ आंदोलन चलाया। इसका नतीजा यह हुआ कि उस समय 50 हजार विद्यार्थियों का रजिस्टेÑशन रद्द हुआ। 1994 में रिटायरमेंट के बाद ज्ञान परिषद नाम से एक संस्था गठित की।  इसका उद्देश्य किसी समस्या के खिलाफ प्रबुद्ध जनमत तैयार करना है, ताकि समस्या को खत्म किया जा सके। इस सेस्था में शहर के अलावा देश के कई प्रबुद्ध लोग समस्याओं के लिए जुड़े भी। जिनमें अटल बिहारी वाजपेई, रिनपोछे, मौलाना वहीउद्दीन और गोविंदाचार्य शामिल रहे हैं।
आपने किताबें भी लिखीं हैं, इनके क्या विषय रहे और किन कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल हंै?
अफसोस जताते हुए कहते हैं कि अब कुछ नहीं लिख पाता आंखों से दिखना ही कम हो गया है।  पिछले काफी अरसे से कुछ नही लिखा, हां पहले लिखा था, जिनमें कुछ किताबें स्नातक और परास्नातक स्तर की कक्षाओं को पढ़ाई जातीं हैं। जिनमें 'भारतीय धर्म और संस्कृति', 'इंटरनेशनल पॉलीटिक्स', 'राज्य शास्त्र का सिद्धांत और राजनैतिक विचार धाराएं' जैसी किताबें भी हैं।

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