Wednesday, September 14, 2011

ख्वाहिश है, अजंता-एलोरा के भित्ति चित्रों को टैक्सचर के माध्यम से बनाऊं- वरिष्ठ चित्रकार चमन



वरिष्ठ चित्रकार चमन को बाल शिक्षा परिषद, कला भूषण, आई फैक्स, ललित कला अकादमी के कई पुरस्कारों के अलावा तमाम राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। कला के क्षेत्र में इनका इतना व्यापक असर रहा है कि मदर टेरेसा, पंडित रविशंकर, हरिवंश राय बच्चन, अमृता प्रीतम, सोहनलाल द्विवेदी के अलावा देश-विदेश की कई शख्सियत इनकी पेंटिग देखने घर तक आ चुके हैं।  वह कहते हैं, सबसे पहले समाज में हम अपने आस-पास संस्कृति को महसूस करते रहे हैं। समाज जीवन के तमाम रंगों को महसूस करना किताब की तरह होता है। भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कला भी एक सार्थक माध्यम है। मुझे बचपन से पेटिंग का शौक था। घर में पहले इस विधा से कोई जुड़ा नहीं था। घर का माहौल काफी अध्यात्मिक था। घर के लोग धार्मिक भावना से जुड़े थे। बचपन से पढ़ाई में ड्राइंग मेरा प्रिय विषय रहा। शुरू से ही पढ़ाई के दौरान मैं अपने से बड़ी कक्षाओं के छात्रों की ड्राइंग बनाता था। कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में मेरे चित्र समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। मैंने 1958 में चमन स्कूल आफ आर्ट स्कूल खोला, जिसमें शहर के तमाम ड्राइंग के छात्र आज भी आते हैं।  वाटर कलर, आॅयल कलर में ज्यादातर काम किया है। राजा रवि वर्मा मेरे पंसदीदा हैं, इनकी वॉश पेंटिग मुझे काफी पंसद आती है। उनके चित्रों में सजीवता को देखकर मैं धन्य हो गया कि रिलेयस्टिक काम इस हद तक भी किया जा सकता है। मैं भी रियेलिस्टक काम अच्छा लगता है।  मेरे विषय में ग्रामीण परिवेश, जनसमान्य व महिलाएं पंसदीदा सब्जेक्ट रहे हैं। मुझे अपनी श्रमिक शीर्षक से बनी पेंटिग आज भी अच्छी लगती है। यह पेंटिग मैंने अपने स्कूल का चपरासी की बनाई थी। जो काफी गरीब था और मैले-कुचेले कपड़े पहने था, उसके चेहरे पर श्रम का भाव था। इस पेंटिग में मैंने उस व्यक्ति के भाव को, उसकी परिस्थितियों को प्रदर्शित किया था। इस पेंटिग से मुझे इतना लगाव है कि ढाई लाख कीमत लगने के बाद इसे नहीं बेचा। पिछली तीन पीढ़ियों से छात्र-छात्राएं मेरी पुस्तकों को पढ़ रहे हैं।  सबसे पहले 1963 में ड्राइंग की किताबें पाठ्यक्र म में शामिल हुई, नर्सरी कक्षा से एमए तक की कक्षाओं के लिए ड्राइंग की करीब 75 किताबें एवं 50 संस्करण से ज्यादा दे चुका हूं। मेरी ख्वाहिश है कि अजंता-एलोरा क े भित्ति चित्रों को टैक्सचर के माध्यम से बनाऊं।

विद्रोह की गूंज और मेरठ के ठिकाने




गुलामी की जंजीरें जिस वक्त काटी जाती हैं, तो उनकी आवाज में इतिहास की धमक भी सुनाई देती है। 1857 में शुरू हुए विद्रोह की आग में झुलसते हिंदुस्तान को आजादी की जो शांत छांव 47 में मिली उसके पीछे इतिहास की कई घटनाओं की लंबी कड़ियां रही हैं। इन कड़ियों को एक-दूसरे में पिरोते हुए देखा जाना चाहिए कि वे कौन से इलाके, स्थान और इमारतें हैं, जिनमें क्रांति गूंज रही है। मेरठ में ऐसे स्थलों की कमी नहीं है। हम उन्हें या तो भूलते जा रहे हैं या फिर उन पर ध्यान ही नहीं देना चाहते। ऐसे ही कुछ स्थलों के इतिहास को सुनते हुए हमने महसूस की वह आहट जो इमारतों के पत्थरों के बीच से आती है। वक्त के साथ उस क्रांति की आहट अब धीमी हो रही है।
सूरजकुंड पार्क
सत्तावन के दौरान मंदिर, मसजिद, शमशानों और मजारों पर कुछ ऐसे फकीर सक्रिय रहते थे। जिनकी इन ठिकानों के अलावा देशी पलटन के सैनिकों में भी रुचि थी। यह फकीर देशी पलटनों के ही करीब क्यों थे? इसके प्रमाण क्रांति क ी महत्वपूर्ण घटनाओं में मिलते हैं। ऐसे ही फकीर ने मेरठ शहर में प्रवेश किया और सूरजकुं ड को अपना ठिकाना बनाया। घने जंगलों से घिरे इस पार्क में दो मील दूर से देशी सैनिकों को यहां आते-जाते देखा गया। यहां अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों को योजनाओं के लिए इकठठा होने की शांत जगह थी। यहां भारतीयों के आने-जाने और संदिग्ध क्रियाकलापों से शंकित तत्कालीन मजिस्ट्रेट ने फकीरों का डेरा उठवा दिया था। बाद में यह फकीर कालीपल्टन जैसी जगहों पर भी अपनी रणनितियों के तहत भारतीय सैनिकों से मिलते देखे गए। इस तरह से यह जगह क्रांति के उस दौर के लिए महत्वपूर्ण जगह रही है। गढ़ रोड के पास यहां प्राचीन बाबा मनोहर नाथ मंदिर भी है। 1857 में विद्रोह के पहले यहां फकीर आकर रुकते थे। वह फकीर अंग्रेजों के खिलाफ बिखरे हुए लोगों क ो संगठित करने क ी मंशा से ठहरते थे। उस समय देशी सेना के सिपाहियों के अलावा सामान्य नागरिक भी उनके पास आते थे। फकीरों का उद्देश्य अंग्रेजी नफरत को उभारना और भारतीय क्रांति के लिए लोगों को इकट्ठा करना होता था।
कालीपल्टन
शहर में चारों तरफ अंग्रेजों का सख्त पहरा और भारतीयों पर अत्याचार क ी वजह से क्रांतिकारियों के लिए कई ठिकाने अहम थे, जिसमें कालीपल्टन का मंदिर भी रहा है। जहां पूरे शहर में भारतीयों पर कड़ी-निगरानी और चौकसी थी, वहीं यह स्थान क्रांतिकारियों के लिए एंकात में था। सत्तावन की क्रांति के पहले यह जगह क्रांतिकारियों के लिए एक महत्वपूर्ण ठिकाना था। यह मंदिर भारतीय मूल की पैदल सेना की लाइन में आता था, इसलिए भारतीय सैनिकों से मिलने के लिए यहां फकीर के वेश में क्रांतिकारी आते थे। भारतीय पलटन के समीप होने की वजह से इसे काली पल्टन मंदिर कहा गया। अंग्रेज सैनिकों और अफसरों के लिए सभी भारतीय काले थे और इसी वजह से इन सैनिकों की टुकड़ी को काली पल्टन कहा जाता था। आज कैंट क्षेत्र में स्थित यह जगह को औघड़नाथ का मंदिर भी कहा जाता है। काली पल्टन के सैनिक रात के अंधेरे में घने जंगल से घिरे इस मंदिर में क्रांतिकारियों से मुलाकात करने आते थे। छावनी क्षेत्र में सीधे भारतीय सैनिकों से मिलने का मुफीद ठिकाना भी था। यहां क्रांति के नायक चोरी-छुपे सभा कर भारतीय सिपाहियों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित करते थे। मंदिर के पुजारी भी क्रांतिकारियों और सैनिकों के बीच अपनी सहयोग की भूमिका के लिए प्रसिद्ध थे। 1857 की क्रांति से जुड़ी जगहों में कालीपल्टन का मुख्य स्थान रहा है।
पुरानी जेल-केसरगंज मंडी
10 मई को शाम 5:30 बजे तक जनक्रांति अपने चरम पर थी, पूरे शहर में अंग्रेजों के खिलाफ आक्र ोश था। जगह-जगह आगजनी और अंग्रेजों की हत्याएं हो रही थीं। ऐसे में मौका देख चार सौ भारतीय सैनिक केसरगंज मंडी स्थित पुरानी जेल पहुंचे, वहां बंद कैदियों ने जब भारतीय सैनिकों को देखा तो उनके सब्र का बांध टूट पड़ा। भारतीय सैनिकों ने बंद भारतीयों को आनन-फानन में  रिहा कराया। सारे कैदी भाग निकले और शहर में फैल गए। सबने अपने-अपने तरीके से क्रांति के इस युद्ध में सहयोग किया। पूरे शहर में सारे अंग्रेज अधिकारियों से गिन-गिनकर बदला लिया। मेरठ दिल्ली रोड पर केसरगंज अनाज मंडी जेल थी, जो आज भी केसरगंज मंडी के नाम से जानी जाती है। यह जेल 1857 की क्रांति के दौरान कैदियों के लिए थी। क्र ांति के  विद्रोह के समय यहां से 700 भारतीय कैदियों को रिहा कराया गया। बाद में इस जगह को अनाज मंडी की शक्ल में बदल दिया गया।

तीरग्रान का जैन मंदिर,मेरठ


मेरठ शहर में कई मंदिर हैं, इनमें से कई प्राचीन मंदिर हैं। जो सदियों पुराने हैं, अपने विशाल स्वरुप के साथ एक इतिहास भी समेटे हुए हैं। इसमें से एक मंदिर तीरग्रान मोहल्ले में स्थित जैन मंदिर भी है। यह मंदिर अपने प्राचीन स्वरुप के साथ लोगों के बीच आज भी आस्था का केंद्र बना है। यह मंदिर हस्तिनापुर में स्थित बड़ा जैन मंदिर के समकक्ष माना गया है।
       इस मंदिर को विक्रम संवत् 1668 और 1801 के लगभग का माना गया है। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका निर्माण भी 1801 में हुआ होगा। लाल बलूए पत्थर से बना मंदिर 2500 वर्ग गज में बना हुआ है, इसमे 6 वेदी, 89 मूर्तियां है जो पाषाण और धातु से बनी हैं। इस विशाल मंदिर की ऊंचाई गगनचुंबी शिखर को देखकर आसानी से मापी जा सकती है। इस मंदिर का शिखर 125फीट ऊंचा है। इसके शिखर में 13 फीट ऊ ंचा स्वर्ण कलश स्थापित है। मंदिर का शिखर किसी समय दूर से दिखता था, लेकिन बढ़ती आबादी के चलते यहा मंदिर गलियों के बीच छिप गया। आज भी यह मंदिर शहर के सबसे ऊं चे और प्राचीन मंदिरों में गिना जाता है। इसकी प्राचीनता का अंदाजा इसके अंदर जाकर पता चलता है। यहां स्थापित मूर्तियां सदियों पुरानी कला का उदाहरण हैं। वहीं यहां मौजूद जैन तीर्थंकर शांतिनाथ की मूर्ति काफी प्राचीन है, यह मूर्ति सफेद संगमरमर की बनी है।
      यहां मूल मंदिर का निर्माण 3 बेदियों से हुआ है, जिनमें नेमिनाथ, शांतिनाथ और नमिनाथ हैं। इन तीनों मंदिर की सतह काफी ठोस बनाई गई है। इस मंदिर में जैनशैली के चित्रों की छाप देखने को मिलती है। मंदिर की दीवारों के भीतरी सतह पर जैनशैली के चित्रों में तीर्थस्थलों और धार्मिक घटनाओं का सचित्र वर्णन दिखाई देता है। इन चित्रों में अन्य रंगों के अलावा लाल और सुनहरे रंग का प्रयोग अधिक हुआ है। जैनशैली के चित्रों की शृंखला में यह धार्मिक चित्र जैनधर्म का प्रसार करने में सार्थक साबित होती है।
       यह मंदिर जैन तीर्थंकर शांतिनाथ के प्रति आस्था की मिसाल है। धर्म ग्रंथों में विवरण मिलता है कि जैन तीर्थंक र शांतिनाथ का जन्म हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन के घर हुआ था। जब यह गर्भ में थे, तभी हस्तिनापुर में किसी रोग से महामारी फैली थी, इनकी मां ने पीड़ित रोगियों पर पानी छिड़का जिससे लोगों को शांति मिली। इसी वजह से इनका नाम शांतिनाथ रखा। यह बाद में तीर्थंकर शांतिनाथ चकवर्ती के रुप में चर्चित हुए। यहीं इन्होने वृक्ष के नीचे बैठकर कैवल्य प्राप्त किया। जहां आज सुम्मेद शिखर बना है यही इनकी निर्वाण भूमि है।
         इस मंदिर के उपग्रह में तीर्थंकर शांतिनाथ की अन्य प्रतिमाएं स्थापित हैं। जिसमें शांतिनाथ की प्रभामंडल वाली ध्यान की चौबीसी प्रतिमा भी है। यह 8वी से 9वीं शताब्दी की है, जो लाल बलूए पत्थर की बनी है। यह प्रतिमा मंदिर से कुछ दूर स्थित कुएं से प्राप्त हुई थी। यहीं एक काले पत्थर की प्रतिमा भी है यह प्रतिमा है। इस प्रतिमा पर इस मूर्ति का विवरण अंकित है जिसके मुताबिक 1887 ईस्वी की है। इस विशाल मंदिर में हर साल अनंतचतुर्दशी के दिन भव्य आयोजन होता है, जिसमें पूजन-अर्चन होता है। इसी मंदिर में 4 प्राचीन कलात्मक रथ रखे हैं, जो सोने के बताए जाते हैं, इन्हे अनंतचतुर्दशी के दिन शोभायात्रा के दौरान निकाला जाता है।
चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा आयोजित हिंदी दिवस के मौके पर 'समकालीन भारतीय संदर्भ और हिंदी' विषय पर आयोजित संगोष्ठी के अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार केदार नाथ सिंह से बातचीत
आम जनता की लड़ाई में लेखक गायब हैं, क्या वजह है?
अन्ना के आंदोलन में किसी तरह की कोई विचारधारा तय नहीं थी, इसलिए लेखक भी सक्रिय नहीं हो पाए। जैसे- जेपी आंदोलन की एक विचारधारा थी, उस समय लेखकों की सक्रियता दिखी। किसी आंदोलन के साथ कोई विचारधारा का धरातल होगा तो लेखक खुलकर सामने आएंगे। लेखकों ने लिखा है, ज्यादातर आंदोलनों में समय-समय पर लेखकों ने अपनी भूमिका अदा की।
इंटरनेट में बच्चों की व्यस्तता है, किताबों की तरफ बच्चों का रुझान नही है?
 किताबों के लिए मानवीय पहलू भी है, जिसमें पाठक का जुड़ाव गहरा होता है। जैसे शिक्षकों के साथ छात्रों का है, मानवीय रिश्तों की बात है। यहां एक संबंध प्रत्यक्ष रूप से होता है, जिसमें छात्र शिक्षक से जुड़ता है। मशीन मानवीय क्षति की पूर्ति नहीं कर सकती। इंटरनेट पर काफी हद तक हिन्दी की भी किताबें हैं, लोग पढ़ते हैं। इंटरनेट किताबों की जगह नही ले सकता, प्रिंट मीडिया हमेशा अपनी खासी भूमिका अदा करता रहेगा। इसको लेकर निराशा नहीं होनी चाहिए कि इंटरनेट पर हिंदी की किताबें कम है। शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जा रहा साहित्य बेहतर तरीके से नहीं पढ़ाया जा रहा है, कम से कम छोटी कक्षाओं में तो यह स्थिति नहीं होनी चाहिए।
बाल साहित्य नहीं लिखा जा रहा है, क्यों गायब है?
बाल साहित्य नहीं लिखा जा रहा, यह चिंता का विषय है, पहले की अपेक्षा कम लिखा जा रहा है। इसकी पड़ताल होनी चाहिए, इस लेखन के लिए लोगों को आगे आना चाहिए। जैसे किसी समय में लोव तोलस्तोय, प्रेमचंद और रवींद्र नाथ टैगोर ने बाल साहित्य लिखा, जिसका असर व्यापक रहा। प्राचीन पंचतंत्र यूनिवर्सल है यह कई भाषाओं में विकसित हुआ। यहां तक अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित हुआ। ऐसा हिन्दी भाषा में नहीं हुआ, इसके लिए हमेंं लोक साहित्य की ओर एक बार फिर से रुख करना चाहिए। लोक साहित्य में बच्चों के लिए व्यापक सामग्री है, उन्हें प्रकाशित कर बच्चों के सामने लाना चाहिए।
हिंदी और इंग्लिस के सामानातंर ह्ग्लििंस का चलन बढ़ रहा है, यह कहां तक उचित है?
भाषा का विकास हमारे और आपके द्वारा ही होता है, पहले संस्कृत, पाली, मगध, अवधी, भोजपुरी, खड़ी बोली और फिर देवनागरी आदि बदलाव भाषा में आए। तो दिक्कत क्या है। हां हमारे साहित्य की सार्थकता तो पाठकों पर दिखती है, वह जैसा इस्तेमाल करते हैं वैसा पढ़ने भी लगे हैं। किसी भाषा में दो-चार शब्दों के फेर से कुछ नहीं बिगड़ता।  हां, जो शब्द अर्थ का अनर्थ करते हैं, उनसे परहेज करना चाहिए।
हिंदी और उर्दू को कवि दुष्यंत ने सगी बहने कहा है, इन दोनों भाषाओं के तालमेल की क्या स्थिति है?
पहले तो दोनों के प्रति दुर्भावना दूर करनी चाहिए, उर्दू में हिंदी पढ़ने की प्रवृत्ति नहीं है और हिंदी में ऊर्दू पढ़ने की, यह खतरनाक है। हिंंदी में बहुत से शब्द  उर्दू के हैं, और इसी तरह उर्दू में हिंदी का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है। इसमें परहेज नहीं होना चाहिए, दोनों सगी बहनें हैं। हिंदी के भविष्य के लिए तो आशावान हूं, लेकिन राजभाषा हिंदी से कोई उम्मीद नहीं है।
क्या वजह है कि अंग्रेजी साहित्य ज्यादा समृद्ध है, चर्चित होता है, और हिंदी नहीं?
अंग्रेजी साहित्य का बाजार पूंजीपतियों के लिए है, जहां वह अच्छे दामों में बिकता है। हिंदी के पाठक मध्यमवर्गीय या बेहद गरीब भी हैं, जो मंहगे साहित्य को पढ़ने की जोखिम नहीं उठा पाते। अच्छे दामों में अंग्रेजी साहित्य बिकने की वजह से प्रकाशन और यहां तक लेखन भी आला दर्जे का हो रहा है। इसके विपरीत हिंदी का बाजार में पूंजी का अभाव है, पाठक समृद्ध नहीं है।
क्या वजह है कि प्रेमचंद जैसे लेखक हिंदी में नहीं नजर आते, जबकि अंग्रेजी में अरुंधती राय, चेतन भगत और अन्य लेखकों चर्चित हैं?
हिंदी साहित्य का बाजार लचर है, एक लेखक को पैदा होने में शताब्दी लगती हैं। बाजार लचर होने की वजह से लेखकों के सामने आने में दिक्कतें हैं, इसी लिए नये लेखक भी हिंदी साहित्य से जुड़ने की जहमत नहीं उठाते। हिंदी साहित्य में
हिंदी के फैलाव में प्रकाशकों की भूमिका कैसी हे?
हिंदी साहित्य के लिए प्रकाशकों का लेखकों से बेहतर तालमेल नहीं हो पाता। हर साहित्यकार के लिए यह बड़ी चुनौती है, हर जगह कमीशनखोरी है। इसका प्रभाव भी हिंदी साहित्य पर पड़ा। किसी किताब के प्रकाशन के लिए हर लेखक को प्रकाशक से दो-चार होना पड़ता है।
दलित साहित्य को लेकर लेखकों ने कहा कि गैर दलित साहित्यकार इसे महसूस नहीं करता?
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि गैर दलित साहित्यकार दलित साहित्य को अनदेखा कर रहा है। हां दलित लेखन कम हो सकता है, दलित ही क्यों लेखन ही पहले की अपेक्षाकृत घटा है। ऐसा नहीं है, दलित साहित्यकार के अलावा भी लोग लिख रहें हैं। हां इतना जरूर है कि पहले की अपेक्षा कम लिखा जा रहा है। कुछ कृतियां अभी हाल ही में बाजार में आर्इं, जो बेहद अच्छी हैं, जैसे अभी हाल ही में आई तुलसीराम की किताब 'मुर्दहिया'लोगों ने काफी पसंद की।








Sunday, September 11, 2011

बातचीत-अनूप जलोटा, मेरठ

अनूप जलोटा भजन गायन यात्रा के सबसे अग्रणी सारथी हैं और आज भजन को सरलता और सफलता से जनमानस के दिल और आम घरों तक पहुंचाने का बहुत सा श्रेय अनूप जलोटा को जाता है। वह कालीपल्टन मंदिर मेरठ में आयोजित भजन संध्या में आए  हुए थे। उत्तराखंड के नैनीताल में पुरषोत्तम दास जलोटा के घर में जन्मे अनूप जलोटा को संगीत शिक्षा अपने पिता से विरासत में मिली। 10 साल की उम्र से गाना शुरू किया था और अब तक लगभग 5 हजार कार्यक्रम और 1200 से ज्यादा भजन, 5000 से अधिक आयोजन और 200 से अधिक भजन और गजल के एलबम यह कहानी खुद बयान करती हंै, चलिए जानते हैं उनके संगीत के सफर के कुछ अनछुए पहलुओं को।
अपने शुरूआती समय के बारे में कुछ बताइए?
छात्र जीवन बहुत ही अच्छा था, मेरी पढ़ाई-लिखाई लखनऊ से हुई है। कॉलेज के दिनों से ही मेरे संगीत के कार्यक्रम करने लगा था। मैं किशोर कुमार के गाने गाता था, भजन गाता था और जब समय मिलता था तो मै क्रिकेट खेलता था. मुझे क्रिकेट खेलने का बहुत शौक था, अगर गायक नहीं होता तो क्रिकेटर होता।
अच्छा, तो क्या आप क्रिकेट देखते भी हैं ,आज की क्रिकेट टीम में आप को कौन पसंद है?
हां, मै तो बहुत देखता हूं सुनील गावस्कर और किरण मोरे मेरे अच्छे दोस्त भी हैं। पूरी टीम ही बहुत अच्छी है, तेंदुलकर, धोनी, युवराज मुझे बहुत पसंद हैं।
आपके संगीत के गुरू आपके पिता पुरूषोत्तम दास जलोटा रहें हैं, पिता भी और गुरु भी, कैसा रहा यह संगम?
मैने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता श्री पुरषोत्तम दास जी से ली है। अच्छा था पर पिता जी बहुत सख्त थे, सिखाते समय वो चाहते थे कि सभी समय से आएं।  उनके पास बहुत से विद्यार्थी आते थे तो उतना समय भी नहीं दे पाते थे. हम जब लखनऊ आए, तो मैने भातखंडे संगीत महाविद्यालय में प्रवेश लिया और अपनी संगीत की शिक्षा जारी रखी। बहुत ही गर्व की बात है कि मै उनका पुत्र हूँ पर जब मैने भातखंडे में प्रवेश लिया था तो सभी कहते थे, अरे इसे सिखाने की क्या जरूरत है. सभी मुझ को बिठा के गाना सुनते थे. जब मैने गाना शुरू किया तो सभी मुझसे बहुत ज्यादा उम्मीद रखते थे.
अपने संघर्ष के समय के बारे में कुछ बताएं?
मेरे विचार से स्ट्रगल का समय, यह शब्द संगीत में होना नहीं चाहिए. इसे ट्रेनिंग का समय कहना चाहिए क्योंकि इसी समय हम सीखते हैं वरना जब नाम हो जाता है तो सीखना बंद हो जाता है व्यक्ति व्यस्त हो जाता है, पैसा कमाने, दुनिया घूमने और पहचान बनाने में। मुम्बई आए थे, तो उस समय आप ने आकाशवाणी पर काम किया वो मेरे शुरूआती दिन थे इस क्षेत्र में।
आपको अपना पहला ब्रेक कैसे मिला और फिल्मों में गाने के बाद भी दूर हैं, क्या वजह है?
मुम्बई के एक कार्य्रक्रम में मनोज कुमार जी ने मुझे सुना उनको मेरा गाना बहुत अच्छा लगा उन्होंने कहा की आप शिर्डी के साईं बाबा में गाइए. मैने गाया फिर तो बहुत सी फिल्मो के आॅफर आने लगे और कुछ में तो मैने गाया भी,क्योंकि मुझे फिल्मो में गाने में ज्यादा आनंद नहीं आता मुझे स्टेज पर लाइव गाने में असीम आनंद की अनुभूति होती है. मैंने बहुत सी फिल्मों में संगीत दिया है, फिल्में बनाई भी है पर स्वयं नहीं गाया. हमेशा दूसरों से गवाया है. अभी भी मैने एक फिल्म बनाई है "मालिक एक" ए साईं बाबा पर है. इसमें जैकी ने साईं बाबा का रोल किया है. इसमें भी मैने कम गाया है ज्यादा गाने गुलाम अली, जगजीत सिंह, पंकज उधास से गवाए हैं।
एक समय भजन मात्र घरों, मंदिरों और धार्मिक सभाओं का हिस्सा हुआ करते थे। आपने उसको अपनी गायकी का हिस्सा बनाया, क्या आप को लगता था, कि भजन को आप इस मुकाम तक पहुंचा पाएंगे?
मुझे बचपन से ही भजन सुनना बहुत अच्छा लगता था, लेकिन  सभी कहते थे कि यह तो साठ साल की उम्र में सुनने की चीज है। मैं उनको कहता था कि नहीं यह गलत है। भजन से प्यारी क्या चीज हो सकती  है, जिसमें आप भगवान के चरित्र का वर्णन करते हैं, मैंने कहा कि ठीक है मैं छोटा हूं और मैं गाऊंगा युवा तो  सुनेंगे। 
अपने इस सुर-यात्रा में पीछे मुड़ते हैं, तो क्या कुछ छूटा सा लगता है?
मुझे एक बात का दुख रहता है कि मेरा नाम जरा जल्दी हो गया। यदि मुझे वो संघर्ष के समय में मिलता तो मैं और अच्छा गाता। जब मैं 27 साल का था तो मेरा एक अल्बम 1980 में हिट हो गया था। यह सफलता का आनंद लेने के लिए यह थोड़ा जल्दी था।  मैं और सीखना चाहता था, सफलता थोड़ा और बाद में मिलती तो मंैने इससे अच्छा किया होता। मुझे लगता है कि मैं जितना पाने के लायक था, उससे ज्यादा पा लिया है, इसलिए मै बहुत ही संतुष्ट हूं।  जब मंै प्रतिभा और प्रसिद्धि को तराजू में रखता हूं, तो मेरी शोहरत मेरी प्रतिभा से भारी लगती है।
आप का नाम गिनीस बुक आॅफवर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है?
कुछ नहीं, मुझे लगा कि एल्विस केवल अंग्रेजी में गाते थे और मै कई भाषाओं में गाता हूं, तो बहुत से रिकॉर्ड बिकते हैं। गुजराती, मराठी, सिंधी, बंगाली, उड़िया तो बस इसलिए बिकने वाले रिकार्ड्स की संख्या ज्यादा हो जाती है । पहले यह एल्विस के पास था, लेकिने 58 गोल्ड और प्लेटिनम डिस्क के साथ उनका रिकॉर्ड तोड़ा था।
आप इतनी भाषाओं में गाते हैं, आप इन को कैसे सीखते हैं, शुद्ध उच्चारण कैसे करते हैं?
उच्चारण पर बहुत मेहनत करते हैं, भाषा आती नही है गाने के लिए थोडा सीख लेते हैं। गाने के भाव और उसका अर्थ जान लेते हैं, फिर गाते हैं, अभी मैंने एक मलयाली गजल रिकॉर्ड की।  मुझे मलयाली भाषा नहीं आती है,मुस्कुराते हुए कहते हैं।
आज के समय में संगीत और गायन में बहुत परिवर्तन हो रहा है, क्या वजह है?
परिवर्तन का स्वागत है क्योंकि परिवर्तन से ही अच्छे बुरे का पता चलता है. यदि एक ही चीज चलती जाएगी तो उसकी कीमत का पता नहीं चलेगा. परिवर्तन का मतलब यह नहीं कि लोग पुरानी चीजों को भूल जाते हैं। परिवर्तन का अर्थ है कि एक नई चीज दृश्य में आती है, इसको आप ऐसे लें कि परिवर्तन एक मेहमान है और मेहमान तो कुछ  दिनों के लिए आते हंै (हँसने लगते हैं)। परिवर्तन यदि अच्छा है, तो टिका रहेगा वरना चला जाएगा .
आप का पसंदीदा भजन कौन सा है और किस राग में गाना आप ज्यादा पसंद करते हैं?
मेरा पंसदीदा भजन चदरिया झीनी रे झीनी है। मुझे राग गुजरी थोड़ी बहुत पसंद है, इसको गाने में मुझको बहुत आनंद आता है। मेरे अधिकतर भजन इसी राग के आस पास हैं, जैसे कभी-कभी भगवान को भी.... , तेरे मन में राम.... ,ऐसी लागी लगन...... ,जग में सुंदर है दो नाम.... इत्यादि।
आप ने जिस तरह से अपने पिता जी का नाम रौशन किया है ,आगे क्या आप अपने बेटे को भी संगीत से जोड़गें?
मेरा बेटा तेरह साल का है जब वो पांच या छह साल का था, तो उस समय सचिन तेंदुलकर को फरारी कार मिली थी। उसने मुझसे कहा पापा आप फरारी कार क्यों नहीं खरीद लेते। मंैने कहा बेटा यह बहुत महंगी कार है, तो कहने लगा कि फिर गाना छोड़ो क्रिकेट खेलना शुरू कर दो। वो गाना तो नहीं गाने वाला है पर उस को संगीत का शौक है वो सुनता है।
पूूरी दुनिया में शो किए हैं सबसे ज्यादा गाना कहां पर अच्छा लगता है?
ऐसी जगह तो भारत ही है, भारत में कहीं भी गाओ सभी अपने हैं, ध्यान से और प्यार से सुनते हैं। अमरीका में सेन फ्रांसिस्को, जहां गाकर बहुत मजा आता है, क्योंकि वहां पर शास्त्रीय संगीत के बहुत से विद्यालय हैं। अली अकबर खान साहब, जाकिर हुसैन, रवि शंकर जी, इसी  वजह से वहां संगीत के जानकार बहुत हैं। जब वो आते हैं और जिस तरह से लोग गाना सुनते हैं, देखते बनता है। हां हर जगह गाना अच्छा लगता है और सोचता हूं कि कुछ और नए सुनने वाले मिलेंगे। हर कार्यक्रम एक नया अनुभव है, लेकिन आनंद वही पुराना होता है।
गजलों के जानकारों का कहना है, कि आज के गायकों ने गजल को बहुत ही साधारण बना दिया है। गायकी के स्तर को गिरा दिया है, आप क्या कहना चाहेंगें?
किसी भी चीज को जब मार्केट में लाया जाता है, तो उसको सरल करना पड़ता है। लाइफ बॉय साबुन कभी नहीं बिकता यदि उस को सस्ता कर के नहीं बेचा जाता, यही कुछ गजल के साथ हुआ। इसकी मार्केटिंग कुछ ऐसी हुई कि हर इंसान जो कुछ भी सुनता था, उसको गजल समझने लगता था। एक बार मेरा सूरत में कार्यक्रम था, एक गुजराती आदमी मेरे पास आया बोला अनूप भाई आपकी एक गजल ने मुझको दीवाना बना रखा है, उस को सुने बिना में सोता नहीं हूं।  मैंने पूछा- वो कौन सी गजल है भाई, उसने कहा 'मैया मेरी मै नहीं माखन खायो'। तो गजल उस मकाम पर पहुंच गई थी कि जो भी आप को पसंद आए वो गजल है।  मेरे विचार से यह गजल की एक बड़ी सफलता है, जैसे मैं 20 साल पहले एक अमरीकी व्यक्ति के घर खाना खाने गया था तो उस के ड्राइंग रूम में एक बहुत ही सुंदर शो-केस में सितार रखा था, मैंने उससे पूछा कि यह क्या है? तो वो अमरीकी व्यक्ति बोला 'दिस इस रवि शंकर' (हंसते हुए बोले ), यदि हर गाना गजल है और सितार रविशंकर है, तो यह बहुत बड़ी सफलता है।
आप अभी नया क्या कर रहें हैंं, भविष्य क ी योजना ?
मैं वेदों को रिकॉर्ड कर रहा हूं, बहुत कठिन काम है, समय लगेगा पर हो जाएगा। मैं भोजपुरी फिल्में भी बना रहा हूं,  फिल्म रिलीज भी हुर्इं  हैं। जैसे-  'चोर जी नमस्ते' और बाद में 'हमार माटी मा दम बा'  है। बालीवुड फिल्म 'एक-दूजे के लिए',' नास्तिक', 'साई बाबा' इत्यादि में अपनी गायिकी दे चुके अनूप ने बताया कि 1993-93 मोहन सिंह से 'सनम ओ सनम' फिल्म शुरू की थी, लेकिन किसी वजह से वह पूरी नहीं हो सकी,  मैने निमौता के तौर पर रोनित राय को लेकर- 'हम दीवाने प्यार के', जैफी श्राफ को लेकर -'मालिक एक है', दिव्या दत्ता के साथ-मोनिका, सहित 15 फिल्में कर चुका हूं। आने वाले दिनों निर्माता के रूप में दीपा मेहता द्वारा निदेर्शित- 'तेरे मेरे फेर', मिथुन चकवर्ती व ओमपुरी के साथ 'मकसद' फिल्में हैं। आज ड्रीम्ज के प्रोजेक्ट के बारे में उनका कहना था, इस एक्टिंग स्कूल में बढ़िया अभिनय करने वाले युवओं का फिल्मों के लिए चयन किया जाएगा, ताकि उनको वहां पर सीधा जाकर धक्के न खाने पडें।
आज की युवा पीढी जो पॉप और डिस्को की तरफ भाग रही है, क्या वो भजन को भी उसी आस्था से सुनते हैं ?
जी हां, बहुत आस्था से सुनते हैं, उनके मन में ईश्वर के प्रति विश्वास ह,ै क्योंकि जब वो परीक्षा देने जाते हैं तो मंदिर से होते हुए जाते हैं।  डिस्को थेक से नहीं, हमारे भजन के कार्यक्रम में नौजवान (यंग क्राउड) लोग बहुत आते हैं। मेरे विचार से यह कभी भी कम नहीं होगा।

ब्रिगेडियर आरके सिंह, महावीर चक्र विजेता


मेरठ वीर भूमि रही है यहां क्रांतिकारियों के अलावा सैनिकों ने लड़ाई में बहादुरी के जौहर दिखाए। 1971 की लड़ाई में महावीर चक्र विजेता आरके सिंह दौराला के भरौटा के किसान परिवार में जन्में। उनके पिता देवी सिंह ठाकुर स्वतंत्रता सेनानी रहें हैं, बचपन से पिता की इच्छा थी कि उनका बेटा देश की सेवा करे। क्योंकि देवी सिंह को उनके पिता ने बड़े पुत्र होने के नाते फौज में नहीं जाने दिया, लेकिन उन्होंने देश के  स्वतंत्रता आंदोलन में लगातार हिस्सा लिया। उनकी इस इच्छा को पूरा किया, उनके पुत्र आरके सिंह ने।
वह बारहवीं में एनएस कॉलेज की पढ़ाई ही कर रहे थे कि एनडीए की प्रवेश परीक्षा में बैठ गए। पढ़ने और देश के लिए कुछ करने की तमन्ना के चलते उनको एनडीए की प्रवेश परीक्षा में सफलता मिली और 1950 में देहरादून के सिविल सर्विसेज विंग में गए। यहां उन्होंने अपनी ट्रेनिंग पूरी की और 1954 में पंजाब रेजीमेंट ज्वाइन किया। यहां ट्रेनिंग के दौरान बहुत से महत्वपूर्ण कोर्स कराए गए। उनके बेहतर परफॉर्मेंस को देखते हुए उन्हें यूनाइटेड नेशन में कांगों जाने का अवसर दिया गया। 1965 में उन्होंने स्टाफ कॉलेज प्रतियोगिता वैलिंग्टन के लिए परीक्षा उर्त्तीण की। उन्हें 14 पंजाब लांइस में कलकत्ता भेजा गया। यहां उनको पहली बार अपनी ड्यूटी के दौरान खास मिशन सौंपा गया, जिसमें कलकत्ता के चुनाव शांतिपूर्वक कराने के लिए प्रशंसा मिली, उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं।
    21 नवंबर,1971 में उन्हें मुजुबुरहमान और भुट्टों के विवाद के दौरान उनकी बटालियन को बार्डर पर भेजा गया। जिसमें बंगलादेश और पाकिस्तान के किनारे कोबाडक नदी पार करना चुनौती थी। वह कहते हैं कि इस नदी की गहराई 30 मीटर और चौड़ाई 40 मीटर थी, किनारों पर बड़ी-बड़ी घास और दलदल था। इस मिशन के लिए इंदिरा गांधी पहले ही फौज भेजना चाहतीं थीं, लेकिन टैंक नही आ पाए थे। दोबारा कीचड़ पानी में पार होने वाले टैंक दिए गए। हमारे सामने चुनौती थी ही साथ में सीके्रट काम भी करना था। नदी पार करने के लिए हमें एक नांव दी गई, नांव ऐसी थी कि पहले धारा के साथ चलो, तब कहीं जाकर नांव चलती थी। इसी बीच हमारी नांव पल्ट गई और 16 जवान डूब गए। जिनमें 9 जवान मर गए। तीस जवानों को बचाया जा सका और बाकी की पंद्रह दिन बाद लाश मिलीं। यह हमारी सेना के लिए एक बड़ा सदमा था, लेकिन हम लोगों ने हिम्मत नही हारी। फिर से सबको एकजुट किया और नदी पार पहुंचें।
        21 नवंबर को हम 1500 जवान नदी के पार जैसे-तैसे पहुंचें। सुबह 7 बजे नदी को पार किया, दुघर्टना की वजह से 8 बज गए थे। 14 टैंक पर 160 जवान बैठकर जा रहे थे कि उधर दुश्मनों ने सोचा कि इन्हें मार दो। नदी के दूसरी तरफ दुश्मनों की फौज और दूसरी तरफ हमारे 14 टैंक और हमारे जवान। नदी से 14 किलोमीटर दलदल को पार करते हुए हम गरीबपुर पहुंचे। यहां हमने जवानों को तरतीब से पैदल सेना को लगाया। फौज तैनात करने और तापखाने को तैयार करने में 2 बज गए। उधर हमारे जवान नदी में डूबे लोगों को तलाश रहे थे, इधर हम बाकी टोलियों को अजमतपुर तक रवाना कर चुके थे, जिन्हें वहां जाकर टैंक मिले। रातभर तैयारी की मोर्चाें की खुदाई करी, दुश्मनों के रास्तों की रैंकिग की। आगे पेट्रोल और घात पार्टी भेजी। जब गरीबपुर पहुंचे ही थे कि 2 घंटे में फौजो को काम बांट दिया था और पाम के पेड़ के नीचे थककर बैठ गया। मेरी झपकी लग गई, रात को 1 बजे रात को अचानक झटका लगा और एक आवाज जैसी आई कि 'अरे तुम सो रहे हो जागो, अपनी टोलियां ठीक जगह पर लगाओ, एल्फा कंपनी थकी है इनको ठीक से लगाओ, मोटर प्लाटून की स्थिति ठीक करो, बंकर बदलो (यह बटालियन का हेड क्वाटर होता है, जिसमें सेंड बैक लगाते थे)'। बंकर तैयार हो चुके थे, उस समय कैप्टन बाजवा थे, उन्होंने कहा- अभी लगवाया है और तुम हटवा रहे हो। मैने कहा- जो मैं कहा है उसका आदेश करो, कारण बताने की जरूरत नहीं समझी। अगले दिन दुश्मन के जो तीन हमले हुए वह उन्हीं जगहों पर हुए। सबसे ज्यादा तोपखाने की गोलीबारी उसी स्थान पर हुई। यह सब करते-करते सुबह के 4 बज गए। यह सब तैयारी करते-करते  उस समय देखभाल और चौकसी का जिम्मा ओपी अफसर कैप्टन चतुर्वेदी के पास था और प्लाटून कमांडर कैप्टन गिल थे, उन्होंने बताया कि दुश्मन गरीबपुर आ गए हैं। हमारे टैंक और इंफेंट्री तैयार थे, हमने दुश्मनों की टोली को देखकर उन पर तोपखाने से फायरिंग शुरू कर दी। हमारी 14 पंजाब रेजीमेंट का मोटो था, आकाल सहाय है यानी सारे काम आरती और अरदास से शुरू होते थे।  उस दिन 21 तारीख थी, सुबह 6 बजे से 8 बजे तक घमासान लड़ाई हुई। उनकी इंफेंट्री को हमने घेरना शुरू कर दिया। अभी हम लोग गरीबपुर में ही थे। जी कंपनी के मेजर बेंस ने 9 बजे बटालियन हेडक्वाटर पर हमला शुरू कर दिया, यह दूसरा हमला था। इसका घमासान 11 बजे तक चला। तीसरा हमले में बटालियन हेड क्वाटर पर पीछे से आकर दुश्मनों ने हमला किया। ये तीनों हमले 14 पंजाब बटालियन के बहादुर जवानों ने टैंक, तोपखाने से करारा जवाब दिया और दुश्मनों को मार भगाया। वह कहते हैं कि दुश्मनों के टैंकों पर जब हमारी फौज ने हमला किया तो वह इस पशोपेश में थे, क्योंकि उनके  जवान टैंकों पर होने वाले हमलों में जल रहे थे। उस समय पाकिस्तान की फौज में ब्रिगेडियर हयात थे, वह ब्रिगेड क मांडर था। मुसलमानों को जलकर मरना धर्म के खिलाफ माना जाता था, तो उनके बचे सैनिक जलना नहीं चाहते थे। इसलिए वह टैंक छोड़कर वापस भाग गए।
     वह कहते हैं कि इस पूरी लड़ाई में हमने 13 टैंक बरामद किए, जिसमें तीन टैंक दुश्मन छोड़ भागे। तकरीबन 300 जवान दुश्मन के घायल हुए और मरे। हमारी फौज के 3 टैंक, 36 जवान मरे और 36 जवान घायल हुए। जिसमें 14 पंजाब के सूबेदार मलकीत सिंह ने बहादुरी दिखाई, जिन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र मिला। हवलदार लेखराज सिंह ने आरसीएल गन से लड़ाई लड़ी और दुश्मनों के टैंक बरामद किए, जिन्हें वीआरसी सम्मान मिला। कैप्टन चतुर्वेदी को भी वीआरसी सम्मान मिला। मुझे मेरी बहादुरी के लिए महावीर चक्र का सम्मान मिला। अपनी इस लड़ाई में जीत की वजह वह योजनाबद्ध तरीके से लड़ना बताते हैं, वह कहते हैं कि मुसीबतों के बावजूद हमने जीत हासिल की। जिसमें हमारे जवानों ने भी उत्कृष्ट वीरता, बेहतर समाजंस्य और आत्मविश्वास का परिचय दिया। हमने दुश्मनों के 95 प्लेन, 244 टैंक, 10633 कैजुअलिटी हुर्इं, जिसमें 2307  पाकिस्तानियों का मारा, 20163 मिसिंग हुए, 2663 लोगों को घायल किया। इसके अलावा 6 पाकिस्तानियों को बंधक बनाया था। इस बैटल आॅफ गरीबपुर को एक निर्णायक युद्ध की उपमा दी गई। 23 नवंबर से 16 दिसंबर तक घमासान चला, जिसमें 23 नवंबर को कुछ शांति रही, लेकिन दोनों ओर से पेट्रोलिंग होती रही। 24 नवंबर से 2 दिसंबर तक अधिकारी जायजा लेने आते-जाते रहे। 3 दिसंबर को पकिस्तान और भारत की लड़ाई शुरू हुई। जो 14 दिसंबर तक एक बड़े घमासान के बाद खतम हुई।
 हमारे युद्ध जीतने के पीछे दृढ़ इच्छा शक्ति थी, हमारा मानना था कि निश्चय कर अपनी जीत करो। डोगरा रेजीमेंट के जवान दुर्गा माता का आशीर्वाद मांगते थे। हमसब कहते कि पहली लड़ाई जीती तो आगे भी जितेंगे। पंजाब लांइस के जवान कहते कि- लड़ाई की ट्रेनिंग ओखी, ते लड़ाई सोखी। यह मानते थे कि लड़ाई में हमेशा विजयी बनें, रनर अप का कोई स्थान नहीं होता। वह कहते हैं कि मैं अगर फौजी न होता तो, डॉक्टर होता, क्योंकि पिता की भावनाओं का ध्यान रखना था, वह अपने लड़के से देश सेवा की उम्मीद रखते थे। मैंने बायोलॉजी से इंटर तक पढ़ाई की थी। जब मैंने सेना की परीक्षा पास की थी, तभी मेरे पिता ने कहा था कि जा मेडिकल परीक्षा भी दे आ। जब मेडिकल पास कर लिया तो कहा अब चला ही जा। मैं एक राजपूत रहा तो अत्याचारियों का नाश ही किया।
 

मेरठ शहर के पुस्तकालय

किसी ने कहा है कि किताबों को पढ़िए, रोज नहीं तो कभी-कभार ही पढ़िए, अगर कभी नहीं पढ़ सकते हैं, तो कम से कम किताबों को छू ही लिया कीजिए। क्योंकि किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। हर शहर में इंसान की दोस्त कही जाने वाली किताबों का पुस्तकालय बेहतर ठिकाना होता है। ज्ञान के इन ठिकानों में छिपा होता है एक ऐसा रिश्ता, जिसे पीढ़ियों से हम महसूस करते आए हैं। कहते हैं कि किताबें इंसान की जिंदगी बदलती हैं। इंसानियत के रिश्तों का पैगाम देने वाले वह ठिकाने जहां हजारों किताबें लोगों की अंगुलियों से हमेशा एक रिश्ता महसूस करती रहीं हैं। आइए जानते हैं, शहर में मौजूद जिंदगी के किताबनुमा इन ठिकानों की दास्तां-
    हर इमारतों का शहर के लोगों से अनूठा रिश्ता रहा है, यह इमारत धार्मिक स्थल हो, ऐतिहासिक इमारत हो या स्कूल कॉलेज। ऐसे ही शहर में एक लम्बे अरसे से इंसानी किताबत का लेखा-जोखा समेटे कुछ भी हैं। यह पुस्तकालय बरसों से शहर के साथ बाहर के लोगों के लिए अहम जगह रहीं हैं। इनमें मौजूद महत्वपूर्ण किताबें इंसान से अपना भी रिश्ता बना लेती हैं। इन पुस्तकालयों की शहर में एक खासी अहमियत है। अनेक दुर्लभ किताबों की वजह से पुस्तकालय और खास हो जाता है।
     छात्र, शिक्षक, बुजुर्ग और नई पीढ़ी के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की कड़ी के रूप में ये पुस्तकालय अपनी मिसाल आप हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच सांस्कृतिक धरोहर का आदान प्रदान की भूमिका निभाने वाली यहां की किताबें हर शख्स के लिए ज्ञान का भंडार हैं। कई पीढियों से किताबनुमा जिंदगी का रिश्ता गांठते यह पुस्तकालय सदियों से हमारे बीच हैं। इनमें इंसान की सेहतमंद दिमागों की उपज दुर्लभ किताबें और पांडुलिपियां हर नई पीढ़ी के हाथों में बार-बार आती हैं। लेखकों के विचारों के यह ठिकाने हर किसी की जिंदगी के लिए मुफीदगाह हैं। उन कालजयी लेखों को अपने अंदर संजोये यह किताबें शहर के अहम पुस्तकालयों में आज भी मौजूद हैं। जो हर किसी का साथी हैं। 
शहीद स्मारक संदर्भ ग्रंथालय, इतिहास की किताबों का ठिकाना
शहर के इतिहास का गवाह शहीद स्मारक में एक संदर्भ ग्रंथालय है। यह ग्रंथालय 1997 में संग्रहालय के साथ बना है। ढाई हजार किताबों के जरिये यह पुस्तकालय एक दशक से ज्यादा समय से पाठकों के साथ रिश्ता बनाए हुए है। सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक खुलने वाले इस पुस्तकालय में इतिहास से जुड़ी सैकड़ों किताबें मौजूद हैं। जो मेरठ के अलावा देश के गौरवमयी इतिहास की दुर्लभ जानकारी देती हैं। यहां औसतन एक महीने में करीब 500 पाठक इन किताबों से लाभांवित होते हैं। इस पुस्तकालय से शोध छात्र, साहित्यकार, प्रशासनिक सेवाओं के छात्रों समेत अनगिनत पाठकों का गहरा रिश्ता है।
    संग्रहालय अध्यक्ष मनोज गौतम बताते हैं कि इस संदर्भ ग्रंथालय में देश की कई दुर्लभ किताबें भी हैं। जिसमें 1857 की विजूअल डाक्यूमेंटेशन, आर्किलॉजिकल सर्वे आॅफ इंडिया, ब्रिटेनिया और विलियम टी ग्रेट रिवोल्ट आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ एनुअल रिपोर्ट भी मौजूद है। इसका कोई भी सदस्यता शुल्क नहीं है, यह पुस्तकालय संग्रहालय की देखरेख में चलाया जा रहा है।
-चौधरी चरण सिंह विवि पुस्तकालय
दो दशक पहले विवि के हिन्दी विभाग की स्थापना के साथ शुरु हुआ यह पुस्तकालय शहर का महत्वपूर्ण पुस्तकालय है। लगभग ढाई हजार किताबों से सुसज्जित इस पुस्तकालय में महत्वपूर्ण किताबों के अलावा प्राचीन पाण्डुलिपियां भी हैं। जिनमें घीसाराम, शंकरदास और पृथ्वी सिंह बेधडक जैसे लेखकों की पाण्डुलिपियां शामिल हैं। ज्यादातर हिन्दी साहित्य की किताबों से भरा यह पुस्तकालय विवि के हिंदी विभाग की देखरेख में है। विवि के सभीछात्रों, शहर के बुद्धिजीवियों और अन्य पाठकों के लिए मददगार यह पुस्तकालय पिछले दो दशक  से अधिक समय से लोगों के बीच महत्वपूर्ण पुस्कालय बना हुआ है। रोजाना आने-जाने वाले पाठकों के लिए यह निशुल्क पुस्तकालय है। बाहरी पाठकों को विभाग से अनुमति लेने के बाद किताबें पढ़ने का मौका दिया जाता है।
     हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष नवीन लोहनी के मुताबिक यह पुस्तकालय विवि के छात्रों के अलावा बाहरी पाठकों के लिए अवकाश के अलावा सुबह से शाम तक खुला रहता है। इस पुस्तकालय में अनेक दुर्लभ किताबों का खजाना मौजूद है, जिसमें हिंदी से जुड़ी हजारों किताबें बताई गई हैं। इसके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं समय-समय पर आती रहती हैं। शहर के कुछ बुद्धिजीवियों ने यहां महत्वपूर्ण किताबों का अनुदान भी किया है।
मेरठ कॉलेज लाइब्रेरी
एक सदी से अधिक का सफर पार कर चुके मेरठ कॉलेज का पुस्कालय शहर का विशिष्ठ पुस्तकालय है। इस कॉलेज के पुस्तकालय का शहर के अनगिनत पाठकों से कई दशक पुराना रिश्ता है।
आसमान महल हैदराबाद की तर्ज पर बना यह पुस्तकालय मूल महल से इक्कीस गुना छोटा है। यह पुस्तकालय पहले परिसर में लॉ बिल्डिंग में हुआ करता था, जहां आज साइकोलॉजी विभाग है। 1945 में यह पुस्तकालय परिसर में स्थित प्राचार्य आफिस में स्थानांतरित हुआ। जब जर्मनी से युद्ध हुआ था, उसी समय की बात है। इस पुस्तकालय का निर्माण हुआ था, इस पुस्तकालय की खासियत है कि यह बिल्डिंग बिना सरिया और सीमेंट के बनी है। ऐसा पुस्तकालय पूरे उत्तर भारत में कहीं नही है, जैसा कि मेरठ कालेज का है। विस्तृत क्षेत्र में फैला यह पुस्तकालय सात दशक पुराना है, कर्नल डेनियल जो उस समय के प्राचार्य थे। उन्होने इस पुस्तकालय का निर्माण कराया था। उस समय देश में शिक्षा के क्षेत्र में बेहद उपयोगी पुस्तकों को इस पुस्तकालय में संग्रहीत किया गया। आज भी शहर की सबसे व्यवस्थित पुस्तकालयों में इसका स्थान है। हजारों महत्वपूर्ण किताबों के साथ यह पुस्तकालय मेरठ कालेज के छात्र-छात्राओं के अलावा हर किसी के लिए सुबह से शाम से तक खुला रहता है। छात्रों के अलावा शोघार्थियों, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों के लिए यह पुस्तकालय वरदान है।
-राजकीय जिला पुस्तकालय
जीआईसी कॉलेज के बगल में राजकीय जिला पुस्तकालय शहर का सात दशक पुराना पुस्तकालय है। साल में दो बार इस पुस्तकालय के लिए आर्थिक अनुदान, पुस्तकालय प्रकोष्ठ शिक्षा विभाग उप्र से आता है। इस पुस्तकालय की नियमित सदस्यतों लेने वाले पुस्तक प्रेमियों की संख्या 5700 से अधिक हो चुकी है। पुस्तकालय को पाठकों के लिए सप्ताह में मंगलवार और द्वितीय सोमवार को बंद रखा जाता है। पुस्तकालय अध्यक्ष के पद पर 33 साल की अवधि गुजार चुके आरसी निमोकर बताते हैं कि शनिवार और रविवार को यह पुस्तकालय खुला रहता है। क्योंकि लोग अवकाश के दिनों में समय निकाल कर पढ़ने आते हैं। पाठकों के लिए सदस्यता शुल्क 300 रुपये और सामान्य सदस्यों का सदस्यता शुल्क 100 रुपये है। सुबह  से शाम तक खुलने वाले इस पुस्तकालय में हर समय 40 से 50 पाठक  मौजूद रहते हैं। किताबें पाठकों की सहूूलियत के लिए इश्यू भी की जाती हैं, जिन्हे पंद्रह दिनों में वापस करना होता है।
यह शहर का यह काफी पुराना पुस्तकालय है, यहां 5 हजार के करीब किताबें हैं, जिनमें हर विषय की दुर्लभ किताबें भी हैं। 25 पत्र-पत्रिकाएं माह में आती हैं।
-कैलाश प्रकाश स्वतंत्रता संग्राम अध्ययन एवं शोध संस्थान
 शहर में स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास समेटे अनोखा अध्ययन शोध संस्थान पीएलशर्मा स्मारक में है। जिसकी स्थापना 1995 में स्वतंत्रता सेनानी रतनलाल गर्ग और जगदेव शांत ने की थी। इसकी देखरेख प्यारे लाल शर्मा स्मारक की तरफ से होती है। इस संस्थान के प्रबंधक होशियार सिंह सैनी हैं। सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक खुलने वाला यह संस्थान सोमवार को बंद रहता है। इस संस्थान की देखरेख कर रहे पुस्तकालय के हितैषी रमेश चंद शास्त्री बताते हैं कि इस संस्थान में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी 800 दुर्लभ किताबें मौजूद हैं। जिनमें भारतीय कहावत संग्रह, स्वतंत्रता आंदोलन, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु से जुड़ी अमूल्य किताबें उल्लेखनीय हैं। रमेश चंद बताते हैं कि यहां आने वाले पाठकों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता है। अभी भी इस पुस्तकालय में शोध छात्र और स्वतंत्रता सेनानी आते हैं। लेकिन बेहतर रखरखाव और पहले की तरह पाठकों की आवाजाही न होना सभी को खटकती है।
-टाऊन हाल तिलक लाइब्रेरी
करीब 125 साल पूर्व स्थापित यह लाइब्रेरी शहर में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसकी स्थापना शहर के नामी सरकारी वकील कालीपद बोस ने 1886 में की थी। वह इसके पुस्तकालय अध्यक्ष के पद पर रहे। लगभग 500 सौ पाठकों की सदस्यता वाली इस लाइबे्ररी में 4 हजार 700 किताबों की अमूल्य धरोहर है। नगर निगम की देखरेख और शिक्षा विभाग उप्र के अनुदान से चल रही यह लाइब्रेरी शहर की सबसे बड़ी लाइब्रेरी है।
    मौजूदा अध्यक्ष राजेंद्र कुमार चौहान इस लाइब्रेरी को पिछले तीन दशक से सेवा दे रहे  हैं। वह बताते हैं कि  सुबह से शाम तक खुलने वाली इस लाइब्रेरी में लगभग सौ पाठक रोजाना आते हैं। पाठकों से आजीवन सदस्य के तौर पर 2100 रुपये, सामान्य से मासिक 100 रुपये के साथ 10 रुपये अतिरिक्त शुल्क लिया जाता है। यहां देश की दुर्लभ कि ताबें मौजूद हैं, जिनमेें खासकर अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी, फारसी और संस्कृत जैसे विषयों पर आधारित पुस्तकें शामिल हैं। कुछ समय पूर्व तक यहां 1700 ईस्वी के समय की संस्कृत में पांडुलिपियां थी, जो काफी दुर्लभ थीं, जो इतनी पुरानी हो गई थीं कि  जिनका कागज छूने से भी टूट जाता था। दुर्भाग्यवश वह रखरखाव के अभाव में नष्ट हो गर्इं।
  -राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन हिन्दी भवन पुस्तकालय
 तिलक नगर में स्थित पुरुषोत्तम दास टंंडन हिंदी भवन में भी दुर्लभ पुस्तकालय है। यह पुस्तकालय की शुरुआत 1965 में मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी द्वारा हुई। आचार्य दीपांकर, रघुवीर शरण मित्र, डा कृष्णचंद शर्मा के प्रयासों से हिंदी साहित्य सम्मेल्लन प्रयाग के सहयोग से इसकी शुरुआत हुई थी। यहां हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के अलावा संस्कृृृृृत की महत्वपूर्ण लगभग 4000  किताबेंं मौजूद हैं । यह पुस्तकालय पहले परिसर में स्थित एक जगह पर व्यवस्थित तरीके से चल रहा था। लेकिन उस जगह डेयरी बनने की वजह से इसको हिंदी भवन प्रेक्षागृह में स्थानांतरित कर दिया गया। पुस्तकालय की देखरेख कर रहे प्रेम प्रकाश यहां पिछले दस सालों से हैं, वे पुस्तकालय की दुर्दशा के लिए अनुदान का अभाव होना बताते हैं। कहते हैं कि पंद्रह सालों से किताबों में कोई इजाफा नहीं हुआ, दूसरे पुस्तकालय के मूल जगह पर डेयरी बन गई। आज प्रेक्षागृह में ही यह किताबें रखरखाव के अभाव में पड़ी हैं। यह पुस्तकालय किसी जमाने में हिंदी की किताबों के अलावा अन्य भाषा साहित्य के लिए महत्वपूर्ण जगह थी।
          इस पुस्तकालय में शहर के कई बुद्धिजीवियों के साथ लगातार आने वाले शहर के कई समाजसेवी, साहित्यकार, पत्रकार और छात्र आते रहे हैं। शहर के साहित्यकार हरिओम पंवार, सुधाकर आशावादी, धर्मजीत सरन, धर्म दिवाकर के अलावा रतनलाल गर्ग, सरदार अजीत सिंह, वेदप्रकाश बटुक जैसे लोग तमाम गतिविधियों के लिए हमेशा इकठठे होते रहे हैं। यहां समय-समय पर होने वाली साहित्यिक गोष्ठियां, कवि सम्मेलन और परिचर्चाएं सब कुछ खत्म सी हो गई हैं। किसी समय में यहां पाठकों का जमावड़ा लगा करता था, आज सन्नाटा पसरा रहता है। समय-समय पर यहां आने वाले पाठकों के लिए मौजूद दुर्लभ किताबों में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ग्रंथ, तुलसीदास ग्रंथ, हिंदी नाट्य साहित्य, हिंदी साहित्य का इतिहास, संपूर्ण गांधी वांडमय आदि उल्लेखनीय हैं।

काम के बिना इंसान सिर्फ सांस लेता है, योगेंद्र रस्तोगी, मेरठ



साठ के दशक से आज तक भगवान के जो रूप हम देखते हैं या अपने घरों की दीवारों पर लटकाते हैं, उनमें से ज्यादातर देश के नामचीन धार्मिक चित्रकला के पुरोधा योगेंद्र रस्तोगी के बनाए होते हैं। सात दशक पार कर चुके योगेंद्र रस्तोगी पिछले 50 सालों में हजारों की तादाद में धार्मिक चित्र बना चुके हैं और आज भी वह इस चित्र पंरपरा को गति दे रहे हैं। पेश हैं, उनसे  बातचीत के कुछ अंश-
-कला से जुड़ाव कैसे हुआ?
मुझे बचपन से चित्रकारी का शौक था। 1959 में महात्मा गांधी का पहला चित्र बनाया था। शुरुआती दौर में आॅयल, वाटर कलर और एक्रेलिक माध्यम से चित्र बनाए। शुरू में एक साल में 40 से 50 चित्र बनाए, लेकिन अब उम्र के मुताबिक काम करता हूं, तो तकरीबन 20-21 चित्र बना लेता हूं। अब सिर्फ पोस्टर और एक्रेलिक कलर के माध्यम से ही चित्र बनाता हूं।
-आपने किन पत्र-पत्रिकाओं के लिए चित्र बनाए और उपलब्धियां कब जुड़नी शुरू हुर्इं?
मैंने कई धार्मिक किताबों के, पत्र-पत्रिकाओं के लिए चित्र बनाए। 1963 में जब चीन युद्ध चल रहा था, तो मैंने एक चित्र बनाया 'लैंड टू डिफेंड'। यह चित्र लोगों के बीच चर्चा का विषय बना। इस चित्र के लिए मुझे त्रिमूर्ति भवन, दिल्ली बुलाया गया, वहां पं जवाहर लाल नेहरू ने यह चित्र 5000 रुपये में खरीदा, जो कोलोनेशन लिथोप्रेस शिवाकाशी से प्रकाशित हुआ। 
-चित्रकला के कई विषयों को छोड़कर सिर्फ धार्मिक चित्रों की तरफ ही क्यों रुख किया?
मैंने महसूस किया कि भारतीय संस्कृति में देवी-देवताआें की काफी मान्यता है, क्यों न इसी विषय के माध्यम से लोगों के बीच जाऊं। और मैं देवी-देवताओं के चित्रों के साथ लोगों के घरों की दीवारों तक पंहुच गया, जहां लोग अपने घरों की दीवारों पर मेरे बनाए भगवान के चित्रों को आज भी सहेज कर लटकाते हैं। लोगों के घरों में चार-चार पीढ़ियों के पहले के समय के मेरे बनाए चित्र मौजूद हैं। यहां तक कि मेरे बनाए पहले के चित्रों की तमाम प्रकाशन आज कापी छाप रहे हैं। खुशी मिलती है और मेरी कला की सार्थकता भी यही है।
-आपके साथी चित्रकार कौन रहे और वह आज क्या कर रहे हैं?
मेरे साथ के चित्रकार रघुवीर गुलागांवकर, शोभा सिंह, एसएम पंडित और इंद्र शर्मा रहे हैं, जो आज इस दुनिया में ही नही हैं, लेकिन उनके बनाए चित्र, उनकी कला हमारे बीच आज भी मौजूद है। शोभा सिंह के प्रसिद्ध चित्र सोहनी-महिवाल और हीर-रांझा रहे, जो लाखों की संख्या में बिके। बाद में वैसा चित्र कोई नहीं बना पाया। उनके ज्यादातर चित्र सूफी संतों पर आधारित होते थे।
-क्या वजह है जो आज के कलाकारों की कृतियां उन्हें प्रसिद्धि नहीं दिला पातीं?
आज के कलाकारों में सब्र नहीं है। वे संघर्ष और सीखने की ललक न होने की वजह से पिछड़ रहे हैं। वैसे कंप्यूटर के जमाने में कौन इतनी मंहगी पेंटिग्स खरीदता है।
-इस उम्र में भी इतना बारीक काम कैसे कर पाते हैं?
अपने शुरुआती समय में मैं सत्रह घंटे काम करता था। दो-तीन घंटे में अपनी जीविका चलाने के लिए व्यावसायिक काम करता था। आज 74 साल का हो गया हूं, उतनी मेहनत नहीं कर पाता। हो सकता है यह सब मेरे सात्विक रहन-सहन की वजह से हो। आज तक किसी तरह का नशा नहीं किया, हां काम का नशा है, आज भी जब काम करता हूं तो समय नहीं देखता।
-व्यावसायिक तौर पर पहली बार कब प्रस्ताव आया?
1967 में पार्किंसन प्रिंटर्स ने 10 हजार रुपये महीना, भोजन-आवास की सुविधा के एवज में माह में चार चित्र का प्रस्ताव रखा, लेकिन मुझे मेरठ से शुरू से लगाव रहा, सो मैंने मना कर दिया। फिर कंपनी ने मेरठ से हर माह आने-जाने के  लिए एयर टिकट की सुविधा का प्रस्ताव भी साथ में दिया, फिर भी मैंने न ही कहा। हालांकि इस प्रस्ताव से व्यावसायिक चित्रकार जरूर बनता, लेकिन मेरी पहचान के साथ मुझे आत्मसंतुष्टि न होती।
-आप सबसे बड़े प्रकाशन में कब छपे?
2005 में पहली बार मैं इंग्लैंड के गोलका बुक्स प्रकाशन में छपा। इसके प्रकाशक इंग्लैंड से दिल्ली और दिल्ली से मुझे खोजते-खोजते मेरठ आ धमके। वह 19 लोगों का दल था, जिसमें प्रकाशन की पूरी टीम थी। वह एक किताब के चित्र बनवाने के संदर्भ में मेरे पास आए थे। इस्कान की भगवद्गीता पर आधारित किताब छापना चाहते थे, जिसमें विश्व के सात चित्रकार थे। हर चित्रकार को एक चेप्टर के लिए चित्र बनाने थे, लेकिन उन्होंने मुझसे दो चेप्टर के चित्र बनवाए। भगवद्गीता के संदर्भों के चित्र बनाने के लिए मैंपे पहले एक-एक घटना को समझा, फिर बनाया। यहां तक कि मैं हस्तिनापुर का भौगोलिक अध्ययन भी करने गया। मेरे सामने चुनौती थी कि मुझे काल्पिनक घटनाओं पर आधारित चित्र बनाने पड़े। मैंने बनाए और यह चित्र काफी सजीव और महाभारतकालीन परिवेश से जुड़े थे। इसका एक चित्र मुझे आज भी पसंद है। वह चित्र कौरवों और पांडवों के बीच के युद्ध का है। यह चित्र भगवतम स्टोरीज नाम की पुस्तक में छपा। जो देश के 22 हजार पुस्तकालयों में मौजूद है।
-आपने कभी प्रदर्शनी लगाई?
मैंने आज तक कोई प्रदर्शनी नहीं लगाई। काम से संतोष है, लोग जानते हैं कि घोर व्यावसायिक हूं नहीं। भगवान में पूरी श्रद्धा है, इसलिए उसने जो दिया, जैसा दिया बहुत है। भगवान के स्वरूपों को बनाते-बनाते उनसे सीधा जुड़ा हुआ महसूस करता हूं।
-नवोदित कलाकारों के लिए कोई संदेश?
मैं उन्हें सब्र और मेहनत से काम करने के लिए कहंूगा। कलाकार को किसी का मोहताज नहीं होना चाहिए। अच्छा वो होता है, जो सबके लिए अच्छा हो। जीवन तब तक है, जब तक आप काम कर रहे हैं। काम के बिना शरीर सिर्फ सांस लेता है।

बातचीत- प्रो केसी गुप्ता, सेवानिवृत्त प्रोफेसर मेरठ कॉलेज

आपका शुरुआती दौर कैसा बीता?
मेरी पैदाइश 1932 को आगरा में हुई थी, प्राथमिक स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा ली। उस समय जो माहौल था, उसमें ज्यादातर बुजुर्ग कांग्रेसी थे और बच्चे आरएसएस की शाखा में जाते थे, सो मैं भी शाखा में जाया करता था।  उस समय देश की आजादी का माहौल था, लोग अच्छा साहित्य लिख रहे थे। पिता एक वकील के मुंशी थे, वे बेहद सरल-सहज स्वभाव के थे। वे नैतिकता का पाठ पढ़ाने के बजाय बच्चों को नैतिक माहौल देने पर विश्वास करते थे।
युवा के तौर पर पहली बार आपने किस पेशे को सही समझा था?
आगरा विश्वविद्यालय से इंग्लिश में एमए करने के बाद, 1957 में दिल्ली गया। वहां हिंदुस्तान समाचार सेवा में रिर्पोटर की हैसियत से काम किया। नौकरी के साथ भारत  सेवक समाज संस्था से जुड़ा। यहां मात्र एक साल ही रहा, क्योंकि मेरा मन राजनीति शास्त्र से एमए करने का था, इसलिए  मैं अपने भाई के पास पहुंच गया, जो डीएवी कॉलेज कानपुर मेंं केमिस्ट्री के प्रोफेसर थे। वहां राजनीति शास्त्र में एमए किया, इस विषय में इतना मन लगा कि मैंने यह परीक्षा प्रथम श्रेणी में उर्त्तीण की। यहां भी पढ़ाई के साथ एक निजी कंपनी में सेल्स मैनेजर के पद पर काम किया।
इस पसंदीदा विषय में शिक्षण का जिम्मा कब मिला?
पहली बार बुलंद शहर के डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता के पद पर रहकर शिक्षण किया, उसके बाद 1969 में मेरठ कॉलेज का राजनीति शास्त्र का प्रवक्ता बना। यहां 1994 तक लगातार शिक्षण कार्य किया और राजनीति शास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुआ, इकतीस साल तक छात्र-छात्राओं को पढ़ाया। 
राजनीति शास्त्र विषय से जुड़े किन महत्वपूर्ण दायित्वों को आपने निभाया?
पहली बार यूजीसी के एक प्रोजेक्ट के लिए जुटा, जो आतंकवाद विषय पर आधारित था, लेकिन इस प्रोजेक्ट में मेरे सामने चुनौती थी। वह यह कि यह प्रोजेक्ट अगर ईमानदारी से करता तो आतंकवादियों के सहयोग के संभव ही नही था। मुझे राजनैतिक जानकार समझकर वह कोई जानकारी नहीं देते थे, कई कोशिशों के बाद अंत में छोड़ना ही पड़ा, जो तीन साल तक चला। इसके बाद 1974 में कनाडा और अमेरिका में आयोजित सोश्योलॉजी में आयोजित वर्ल्ड कांग्रेस में शामिल हुआ। यह इमरजेंसी से पहले की बात है, इस समय मेरी पीएचडी पूरी हो चुकी थी।
आपके शोध का विषय राजनीति शास्त्र के किस विषय से जुड़ा था?
मेरा शोध ' लोकतंत्र में राजनैतिक अलगाव ' विषय पर आधारित था। विषय भारतीय लोकतंत्र में व्यक्ति की लोकतंत्रिक अलगाव की कमजोरियों पर केंद्रित था। लोकतंत्र यह बात मानकर चलता है कि समाज के जो लोग इस देश में हैं, वे राजनीति में रूचि जरूर लेंगे। वे अच्छे जागरूक मतदाता होंगे, लेकिन व्यवहार में ऐसा देखने को कहीं नहीं मिलता, कि लोग जागरूक मतदाता साबित होता हों, इसका मूल्यांकन ही मेरा विषय रहा।
लोकतंत्र में आम नागरिक अलगाववादी क्यों हो गया है, क्या कारण हैं?
मैंने शोध के बाद पाया कि लोगों में अलगाव है, राजनैतिक लगाव के लिए सक्रिय होने से पहले जरूरी है कि वह 'जागरूक नागरिक' हो। कहना आसान है, लेकिन नागरिक का जागरूक होना महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो बेहद जरूरी है, लेकिन हो उल्टा रहा है। वह नागरिक का दायित्व ही नही निभा पा रहा है। आज का नागरिक जागरूक ही नही बन पा रहा है, यही देश का दुर्भाग्य है। मसलन रैगिंग के लिए सुप्रीम कोर्ट आदेश देता है। सवाल यह है कि अगर हम जागरूक हैं, तो ऐसे काम हो ही कैसे रहें हैं? हमें सुधारने के लिए कानून बनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है।
लोगों के अलगाववादी होने की क्या वजह रहीं हैं, कहां दिक्कत है?
 देश की आजादी के बाद समय बीतने के साथ वातावरण में देशभक्ति और नागरिकता का भाव कम होता गया। लोग राजनीति और राजनीति से प्राप्त होने वाले लाभ पर ज्यादा निर्भर हो गए। आजादी के पहले यहां सिर्फ देश था, जिसका मूल आजादी थी। लेकिन आजादी के बाद लोग न तो आदर्श बन पाए न ही पेश कर पाए। यह जो पचास साल का अंतराल आदर्श के अभाव में रहा यही मूल वजह रहा। न चंद्रशेखर आजाद पैदा हुए न भगत सिंह हुए न बिस्मिल, इनके बाद न कोई देशभक्त बना न ही लोग देशभक्त बनना चाहते हैं। शिक्षा का भी यही हाल है, लोग डिग्रियां लेना और देना जानते हैं, अध्ययन करना और कराना परंपरा में रहा ही नही। छात्र राजनीति का भी पतन हुआ है, आज छात्र अराजक बनते हैं, वह समस्याओं के लिए नहीं जुटते, बल्कि अपने राजनैतिक व्यवसाय को देखते हैं, पहले ऐसी छात्र राजनीति नहीं थी। लोकतंत्र में आज छात्र पत्थर फेंक रहें हैं, कहां का लोकतंत्र ऐसा सिखाता है। इसके लिए शिक्षक भी दोषी हैं, इसीलिए लोग जागरूक नही बन पाते। लोकतंत्र में अलगाव होना पतन का मुख्य कारण होता है। आज जिसकी रूचि नहीं होती वह भी वोट डालता है, इससे उसके वोट डालने या न डालने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर ध्यान दें तो साफ दिखता है, हर तरफ आदमी उखड़ा-उखड़ा सा है, वह चाहे परिवार में अभिभावक हो, बाजार में व्यवसायी हो या कॉलेज में शिक्षक। हर तरफ सिर्फ अपराध है, लेकिन किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं है। हम प्रकृति का लगातार दोहन कर रहें हैं, लेना तो जानते हैं, देना जानते ही नही, इसीलिए ग्लोबल वार्मिंग जैसे खतरे का सामना कर रहें हैं।
एक बेहतर राजनीतिज्ञ होने के लिए इंसान में क्या गुण होने चाहिए?
आज के समय में सारी समस्याएं राजनीति से जुड़ीं हैं। इंसान में उत्कृष्ट देशभक्ति की भावना हो, सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा नेतृत्वकारी व्यक्तित्व हो। उसके अंदर समान्य मानवीय गुण हों, सामाजिक सहकारिता और ईमानदारी होनी चाहिए। हां ईमानदार होना बुनियादी जरूरत है, वह कहीं भी किसी भी पद पर हो यह कहने की जरूरत न हो कि फलां ईमानदार अफसर है, यह तो बुनियादी जरूरत है। लोकतंत्र में राजनीति में यह ईमानदारी की कमी विश्वपटल पर आसानी से दिखती है। आज राजनीति मिशन नही रहा, व्यवसाय हो गई है, इसमें पीढ़ी दर पीढ़ी आजीविका की गारंटी है। यही आजादी के पहले यह देशभक्ति का जरिया थी, लोकतंत्र ने समय के साथ इस धंधे में लोगों की भूख बढ़ा दी है।
एक राजनीति शास्त्री की हैसियत से सक्रियता कैसी रही और आप कहां-कहां गए?
1974 में कनाडा, अमेरिका, टोरन्टो में आयोजित वर्ल्ड कांग्रेस में गया, यहां आयोजित विश्व सम्मेलन में अपना पेपर पढ़ा। न्यूयार्क, वाशिंगटन, पेनसिल्वानियस, हॉवर्ड, अमेरिका, 4 बार यूरोप, जर्मनी, फ्रांस, नार्वे, स्वीटजरलैंड, बेल्जियम और हालैंड जैसे लगभग पश्चिम के सारे देशों में विषय से जुड़े सेमिनार और परिचर्चाओं में शामिल रहा, जिसमें भारत देश का प्रतिनिधित्व भी किया। एक वर्ल्ड आर्गेनाइजेशन जिसका नाम अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार नैतिक संघ है इसका दस साल तक अध्यक्ष भी रहा। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन मेें सक्रिय था, इसीलिए 1975 में जेल गया और घर की कुर्की भी हुई। उस समय मैं मेरठ कॉलेज में पढ़ा रहा था, मेरा आवास कैंपस में ही था। 1979 में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में नकल के खिलाफ आंदोलन चलाया। इसका नतीजा यह हुआ कि उस समय 50 हजार विद्यार्थियों का रजिस्टेÑशन रद्द हुआ। 1994 में रिटायरमेंट के बाद ज्ञान परिषद नाम से एक संस्था गठित की।  इसका उद्देश्य किसी समस्या के खिलाफ प्रबुद्ध जनमत तैयार करना है, ताकि समस्या को खत्म किया जा सके। इस सेस्था में शहर के अलावा देश के कई प्रबुद्ध लोग समस्याओं के लिए जुड़े भी। जिनमें अटल बिहारी वाजपेई, रिनपोछे, मौलाना वहीउद्दीन और गोविंदाचार्य शामिल रहे हैं।
आपने किताबें भी लिखीं हैं, इनके क्या विषय रहे और किन कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल हंै?
अफसोस जताते हुए कहते हैं कि अब कुछ नहीं लिख पाता आंखों से दिखना ही कम हो गया है।  पिछले काफी अरसे से कुछ नही लिखा, हां पहले लिखा था, जिनमें कुछ किताबें स्नातक और परास्नातक स्तर की कक्षाओं को पढ़ाई जातीं हैं। जिनमें 'भारतीय धर्म और संस्कृति', 'इंटरनेशनल पॉलीटिक्स', 'राज्य शास्त्र का सिद्धांत और राजनैतिक विचार धाराएं' जैसी किताबें भी हैं।

ऊंचाइयों का नाम नौनिहाल-प्रतिपाल


जिंदगी के संघर्ष के दिनों में भी इंसान अपने जुनूनी कामों को जारी रखता है। वह उतार-चढ़ाव के बीच भी अपने शौक के जरिए लोगों के दिमाग पर छाप छोड़ देता है। जिंदगी के सात दशक गुजार चुके  प्रतिपाल सिंह और नौनिहाल सिंह। प्रतिपाल सिंह ने बचपन में साईकिल का साथ किया और आज भी साइकिल से ही चलते हैं। दोनों ही संघर्षों में एक साथ सुख-दुख के साथी रहे। प्रतिपाल और नौनिहाल को बचपन से साहसी कामों में रुचि थी। बचपन में लंबी दूरी की साइकिलिंग कब जुनून में बदल गई, उन्हें खुद नहीं पता चला।
      दोस्ती क ा सफर हमेशा साथ रहा, वह नौकरी करने आर्डिनेंस फैक्ट्री भी एक साथ गए। यहां रिटायरमेंट तक एक साथ परिवार के भरण-पोषण की जुगत लगाते रहे। दोनों का साहस भी भी उफान मार रहा था, सो कंपनी की तरफ से भी पर्वतारोहण और ट्रैकिंग के लिए अक्सर साथ जाते थे। यहां कंचनजंगा ट्रैकिंग क्लब का गठन कर साइकिलिंग, पर्वतारोहण और ट्रैकिंग के लिए जाते रहे। दोनों दोस्तों का साहस पहली बार तब रंग लाया, जब दोनों ने 1986 में लेह-लद्दाख की पर्वत चोटियों तक का सफर साईकिल से पूरा किया। यह सफर दिल्ली से 18380 किमी का था, लेकिन अपने नौ सदस्यीय दल के यह सफर तय कर तिरंगा फहराकर विश्व कीर्तिमान बनाया। उस समय अंतर्राष्ट्रीय संगठन इंडियन मांउटेनियरिंग फाउंडेशन ने दुनिया में पहली बार इतनी ऊंचाई पर पहुंचने पर प्रमाण-पत्र भी दिया। 
    दोस्त के साथ ऊंचाईयों का सफर अभी चल ही रहा था कि दोनों ने मन बनाया कि क्यों न बद्रीनाथ, हेमकुंड साहब, रूपकुंड साहब की यात्रा साइकिल से ऊंचाइयां जाए। 1972 में दोनों ने एक बार फिर बचपन के साहस का परिचय दिया और यह दूरी भी साइकिल से तय की। साइकिल से ऊंचाइयां तय करते प्रतिपाल कहते हैं कि बचपन  में हम इतिहास, नागरिक शास्त्र और भूगोल जैसी किताबों में पर्वत और घाटियों के चित्र देखते, तो तभी तय कर लिया था कि एक दिन यहां जाएंगे जरूर। बचपन के उस सपने को बड़े होने पर साकार किया। हमेशा नई ऊंचाइयां तय करने पर बार-बार साहस बढ़ता गया और ऊंचाइयां तय करते गए। वह कहते हैं कि उस जमाने में हमारे समाचार देश की मुख्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते तो खुशी होती थी। इसके अलावा ट्रैकिंग के लिए कैलाश पर्वत, पार्वती लेक,हमतापास, पिंडारी ग्लेशियर, मैकटेली बेस कैंप और एवरेस्ट बेस कैंप तक ट्रैकिंग की और तिरंगा फहराया।
कई पर्वतारोहण और साईकिंलिग के लिए समय-समय पर देश में सम्मानित किया गया। सेना के अधिकारियों ने, कंपनी के अधिकारियों ने सम्मान दिया, जिस प्रदेश में पहुंचते वहां सम्मान मिलता। एक बार तो फिल्म कलाकार देव आनंद शूटिंग कर रहे थे हमें गुजरते देख हमारा हौसला बढ़ाया। शूटिंग में व्यस्तता के बावजूद उन्होंने हमारे साथ कुछ दूर साईकिल भी चलाई।      
            अतीत को याद कर प्रतिपाल कहते हैं कि जब हम लोगों ने विश्वकीर्तिमान बनाया तो टीवी पर प्रसारण हुआ था। उस समय जेबी रमण समाचार वाचक थे, उन्होने हमारे समाचार लोगों तक पहुंचाए। केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह पाटिल ने सम्मान दिया। उस समय हमारे घरों में परिवार के लोग काफी प्रसन्न हुए और लौटने पर भव्य स्वागत हुआ था। 60 साल बाद अपने इस साहस की अनदेखी होने पर वह कहते हैं कि खेल निदेशालय या सरकार की तरफ से कभी हमें समुचित आर्थिक मदद नहीं मिली। अब तो दुनिया में एक ही खेल है, जो व्यावसायिक है। जज्बा और साहस सरकारी संवेदनहीनता की वजह से दिख नहीं पाता। आज भी देश में होनहारों की कमी नहीं है। इस उम्र में अगर आज भी मदद मिले तो हम अभी और ऊं चाइयां तय करके दिखा सकते हैं। वह लंबी सांस लेते हुए कहते हैं कि दोस्त साइकिलिंग के लिए जमुनोत्तरी तक अभी फिर जा रहा हूं। साहस का सफर में ऊंचाइयों को छूने का सफर मेरे मरने के बाद ही रुक सकता है।

शाहपीर मकबरा, मेरठ

बेगमपुल चौराहे से हापुड़ रोड पर चलने पर इंदिरा चौक के बाद दाहिनी ओर शाहपीर गेट पड़ता है। इसी गेट से अंदर जाने पर एक लाल बलुआ पत्थर का मकबरा नजर आएगा। यह मकबरा दीन-ईमान के प्रसारक शाहपीर रहमत उल्लाह का है। 
दरअसल यह मकबरा शाहपीर रहमत उल्लाह की मजार है और शाहपीर के मकबरे के नाम से जाना जाता है। रहमत उल्लाह का जन्म रमजान की पहली तिथि को 978 हिजरी (1557 ई.) में मेरठ के शाहपीर गेट पर हुआ। कहा जाता है कि इनके वंशजों की नवीं पीढ़ी आज भी शाहपीर गेट पर उसी मकान में रह रही है। यह भी कहा जाता है कि इनके पूर्वज ईरान के शिराज शहर से आए थे। बेहद सरल और सहज स्वभाव के शाहपीर की लोगों के बीच खासी आस्था थी। उनके ईमान के रास्ते को देखकर आज भी लोग यहां सिर झुकाते नजर आते हैं। उन्होंने लोगों को अपने दीन और ईमान पर चलने की शिक्षा दी। इस मकबरे के सामने इनके वंशजों की मजारें भी मौजूद हैं, जिसकी सुरक्षा मौजूदा पीढ़ी द्वारा की जाती है । फिलहाल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी इसका संरक्षण कर रहा है, जो कि मेरठ शहर के पुरातात्विक अवशेषों को संरक्षित करने के प्रयास में है।
इस मकबरे का निर्माण 1620 ई. में नूरजहां द्वारा कराया गया था। किसी समय में यह मकबरा सड़क  के एकदम किनारे पर था, लेकिन अब घनी आबादी हो जाने के कारण मुख्य मार्ग से आसानी से नहीं दिख पाता है। आप जैसे ही मकबरे के पास जाते हैं, तो इसकी सुंदरता आपको अनायास ही अपनी ओर खींच लेती है। मकबरे का स्थापत्य देखने लायक है, इसमें लाल बलुए पत्थर से बनाए गए नक्काशीदार अलंकरण इसे अलग ही शोभा प्रदान करते हैं। मकबरे के अंदर जाकर देखने से साफ पता चल जाता है कि इसका निर्माण अधूरा है। इस मकबरे के संबंध में आज भी कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं। जनश्रुतियों के अनुसार शाहपीर से बादशाह के किसी अधिकारी ने इसमें होने वाले खर्च का हिसाब मांग लिया था, तो शाहपीर बाबा ने कहा कि ' मैं ठहरा सूफी, मुझे हिसाब-किताब से क्या मतलब। मैं किसी तरह का हिसाब-किताब नहीं रखता '। इतना सुन शाहजहां ने इसका निर्माण रुकवा दिया था, और इसके बाद यह मकबरा अधूरा ही रह गया।
इस मकबरे के अधूरे निर्माण की वजह से गुंबद की छत पूरी नहीं है। स्थानीय लोगों में यह भी भ्रम या कहानियां प्रचलित हैं कि इसमें बरसात का पानी नहीं जाता है, लेकिन सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। बरसात जब तेज हवा के साथ होती है, तो वह खुले गुंबद से अंदर नहीं जा पाती है, लेकिन जब बरसात बगैर हवा के होती है, तो इसमें बरसात का पानी जाता है। मकबरे के अंदर जाने पर इसके दीवार से सटे नक्काशीदार स्तंभों पर हरी काई के निशान देखे जा सकते हैं, जो पानी के कारण होते हैं । स्थापत्य के नजरिए से यह मकबरा बेजोड़ है, इसमें लगे पत्थर और फतेहपुर सीकरी, आगरा में लगे पत्थर एक ही तरह के हैं। स्थापत्य के अनुपम उदाहरण इस मकबरे की बाहरी और भीतरी सुंदरता देखते ही बनती है।

साक्षात्कार- प्रोफेसर घंमडी लाल मित्तल, फिजिक्स

बचपन में कैसा माहौल मिला और पढ़ाई-लिखाई कै से हुई?
बचपन परीक्षितगढ़ रोड पर जेई गांव में गुजरा यहीं मूल निवास भी था, पिता किसान थे। घर में गाय-भैंस भी पलीं थीं, मेरे पिता का मन था कि मैं खेती-किसानी और जानवरों की देखभाल में उनका साथ दूं। मेरा इन कामों की बजाय पढ़ाई-लिखाई की ओर ज्यादा था, इसलिए पिता से नजर बचाकर दिनभर घर से गायब रहता और देर रात लालटेन की रोशनी में पढ़ाई करता था। हमेशा शहर आने के फिराक में रहता था, क्योंकि शहर में बिजली की सुविधा थी। परीक्षितगढ़ के गांधी स्मारक देवनागरी कॉलेज से हाई स्कूल और 1953 में मेरठ कॉलेज आया यहां  एमएससी तक पढ़ाई की। पढ़ाई में अव्वल था, हर कक्षा में प्रथम रहा, एमएससी में अच्छे अंक प्राप्त करने पर छात्रवृत्ति 'बरसरी '  मिलती थी।
शिक्षण कार्य से कब जुड़े और लेखन कब शुरू किया?
एएस इंटर कॉलेज मवाना में पहली बार शिक्षक बना और 1999 में यहीं से रिटायर हुआ। यहां कृषि भौतिकी विषय के छात्रों को पढ़ाता था, कृषि भौतिकी विषय में छात्र कमजोर थे, क्योंकि उस समय इस विषय से जुड़ी किताबे कम थीं। नगीन प्रकाशन के मालिक भैरव लाल जैन ने मुझे किताब लिखने को कहा। इस विषय से जुड़ी पहली किताब आगरा के रतन प्रकाशन से प्रकाशित हुई।
कुमार एंड मित्तल की किताबों में विशेष क्या हैं?
मुझे जब कृषि भौतिकी विषय पर किताब लिखने को कहा गया, तो किताब के लेखन के संदर्भ में मैंने मेरठ कॉलेज के भौतिकी के विभागाध्यक्ष राजकुमार से संपर्क किया। उनके साथ मिलकर लिखी यह किताब खूब बिकी, जो हमारी पहली किताब थी। लेखन का सिलसिला आगे बढ़ा, 1965 में 'भौतिकी सरल अध्ययन', 1969 में 'नूतन माध्यमिक भौतिकी' लिखी, जिसके 44 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। सीबीएससी, आइसीएससी, यूपीबोर्ड में इंटर कक्षाओं के लिए हिंदी-इंगलिश में बारह और स्नातक कक्षाओं के लिए 6 किताबें लिखीं, जिसके संस्करण लगातार प्रकाशित होते रहें हैं। किताबों की खूबी यह है कि भौतिकी की पेचिदीगियों को सरलता से परोसा गया है, आंकिक प्रश्नों में उलझाव नहीं है और भौतिक के मूल ज्ञान से इनकी शुरूआत है। कुमार साहब काफी विद्वान थे, जो मैं लिखता था, वह उसका सुधार करते थे। भौतिक की बारीकि यों पर उनकी पैनी नजर थी। 9वीं, 10वीं और 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में हमेशा लिंक रखा। अक्सर यह होता है कि छात्र-छात्राएं अक्सर जटिलताओं के चलते किताब बीच में छोड़ देते हैं, लेकिन इन किताबों में ऐसा नहीं था। इसीलिए यह किताबें आज भी चर्चा में हैं।
भौतिक जटिल विषय माना जाता है, कैसे सरल समझते हैं?
मेरे एक शिक्षक थे, आरबी माथुर वह मेरठ कॉलेज में भौतिक के विभागाध्यक्ष थे। वे भौतिक के प्रसिद्ध शिक्षकों में थे, उन्हे पढ़ाने में महारत थी, वह टू द प्वाइंट पढ़ाते थे। उनका कहना था कि छात्रों के लिए मूलभूत ज्ञान आवश्यक है। मैं कक्षा में हमेशा पहले ही पढ़कर जाता था, वह इसलिए कि जो पढ़ाया जाएगा उसकी जटिलताओं का पता चल जाता था। एक बार एक शिक्षक के पढ़ाए गए आंकिक प्रश्न को मैने गलत ठहराया, तो वह आग बबूला हो गए और कक्षा छोड़कर चले गए। लेकिन दूसरे दिन जब कक्षा में आए तो कहा 'यू आर राइट मैं गलत था'। मेरा मानना है कि किताब और शिक्षक एक दूसरे के पूरक हैं। किताब का तरीका एक होता है, लेकिन शिक्षक के कई तरीके हो सकते हैं। यह भी है कि कई किताबों को पढ़ने से जरूरी नहीं कि आदमी ज्ञानी बन जाए। यह चीजें पहले के समय में तो लागू होतीं थीे, लेकिन आज नई शोधों के आने से चीजें अपडेट होतीं हैं, इसलिए कंप्यूटर की भूमिका बढ़ी है। जटिलताएं आज भी आतीं हैं, लेकिन सरलीकरण के तरीके खोज लेता हूं।
भौतिक को छात्र जटिल समझते हैं, क्या वजह है?
छात्रों का इस विषय में रुझान कम होने की वजह जॉब ओरियएंटेड न होना भी है। लोगों में उत्सुकता नहीं रही, वह कुंजी का सहारा लेते हैं, इंटरनेट का सहारा लेते हैं। कम समय में ज्यादा पाने की होड़ में हैं, लेकिन यहां डिवोशन चाहिए जो दिखता ही नहीं। छात्रों को गहराई से अध्ययन करना होगा, जो क्रमबद्ध चले। पहले स्कूल-कॉलेजों में प्रेक्टिकल होता था, प्रयोगशालाओं में शिक्षक यंत्रों के सहारे छात्र-छात्राओं को रचनात्मक तरीके से जोड़ते थे, आज प्रेक्टिकल का होने ही बंद हो गए।
भौतिक में नई किताबें नहीं लिखी जा रहीं हैं, क्या वजह है?
गिनी-चुनी किताबें लिखीं भी जाती हैं तो अधकचरे ज्ञान के साथ लिखी जाती हैं, जो पुरानी किताबों और इंटरनेट पर उपलब्ध ज्ञान के सहारे लिखीं जातीं हैं। यही वजह है कि ऐसी किताबें कारगर ही नहीं होती।  छात्रों की उत्सुकता को शांत करना ही किताब का मूल होता है, जो नहीं हो रहा है। लेखकों को आज के समय में अधिक रॉयलिटी चाहिए, वह अधूरे लेखन के मुहं मांगी रकम मांगते हैं। लोग अध्ययन करने का जहमत उठाना नहीं चाहते, लेकिन आज नए विचारों के साथ लेखन करने जरूरत है।
क्या आपको कभी किसी और क्षेत्र में अवसर नहीं मिले?
मुझे टेलीकम्युनिकेशन में इंजीनियर के पद पर नौकरी मिली। उस समय 60 रुपये की छात्रवृत्ति मुझे मिलती थी, 100 रुपये बुक की ग्रांड मिलने लगी, जिससे पैसों की दिक्कत नहीं थी। अपनी भौतिक विषय की उत्सुकताओं को दूर करने के लिए शिक्षण ही चुना। अध्यापन से पारिश्रमिक मिलता था, बाद में किताबों की रॉयलिटी मिलती रही।
जब भौतिक की जटिलताओं में फंसते थे, तो उस समय आपका मददगार कौन होता था?
कई बार जटिलताओं में फंसा लेकिन अन्य लोगों से मदद लेकर आगे बढ़ा। एक बार किताब लिखते समय जटिलताओं में फंसा, वाक्या भौतिक में नया पाठ्यक्रम आने के समय का है। तो इलाहाबाद के भौतिक शिक्षक सुरेश चंद शर्मा से मदद ली। नाम याद न रहने पर कहते हैं कि नाम याद नहीं लेकिन एक बार आगरा के एक भौतिक शास्त्र के शिक्षक से भी मदद ली थी।

बेजोड़ इमारत नारी निकेतन

मेरठ,

विभाजन के समय शरणर्थियों के लिए बना नारी निकेतन
नारी निकेतन शहर की बेजोड़ इमारतों में है। यह इमारत मुगल वास्तुकला से प्रेरित है, जो वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। कहा जाता है कि पहले के समय में यह इमारत बेगम समरु क ा महल था। यह इमारत लगभग 100 साल पुरानी है, जो बाद में इलाही बख्श जो समरु के समय के निर्माणकर्ता थे, ने लिया। बाद में यह शरणार्थी ट्रस्ट के हाथ में गई। 1857 के बाद की इमारतों में एक है। जो आज नारी निकेतन की इमारत के रुप में स्थापित है। आज इसी ट्रस्ट के अन्तर्गत देखरेख में है।
 विभाजन के समय पंजाब और पाकिस्तान से लोग आकर यहीं ठहरे थे। इसमें ज्यादातर लड़कियां और महिलाएं थीं, जो बाद तक रहीं। बाद में शहर के अन्य इलाकों में विस्थापित हुए। इसके चारों ओर कई इमारतें थीं जो बेगम समरु की देन थीं। जैसे बेगमबाग, सेंट जोंस स्कूल और सीडीए सेंट्रल बिल्ंिडग। यह इमारतें पहले तो काफी सुरक्षित रहीं लेकिन रखरखाव के अभाव में यह इमारतें खंडहर हो गई हैं। पिछले तीस सालोंं से देख रहा हूं, इन इमारतों को शहर के विकास के साथ इन इमारतों ने दम तोड़ा है। पहले एक शहर था जिसमें ऐतिहासिक इमारतें थीं। जिसे लोग अपने आसपास महसूस करते थे। लेकिन इतने खर्चीले रखरखाव के चलते इनसे पल्ला झाड़ लिया। एक कारण और रहा इमारतें या तो सरकारी तौर पर चलीं गई या तो अतिक्रमण का शिकार हुई। हां जितना बन पाया इस इमारत की देखरेख में शहर के लोगों ने योगदान दिया। स्वतंत्रता सेनानी शकुंतला गोयल ने भी इस संस्थान को अहम योगदान दिया था।
   आजादी के समय से इस इमारत को देख रहा हूं, कांग्रेस के शासन काल में यह इमारत शरणार्थी महिलाओं और लड़कियों के लिए सुरक्षित जगह थी। कांग्रेस के शासन काल में इस इमारत का देखरेख तब के समाजसेवियों ने किया। आलीशान इमारतों के रखरखाव के लिए एक बड़ी रकम की जरुरत होती है। तमाम संसाधनों से महिलाओं क ी सुविधाओं का इंतजाम हुआ । अब रही बात इमारत के मूल स्वरुप को बचाने की इसके लिए इब इसका जीर्णोद्धार हो रहा है। एक सीमा तक तो यह इमारतें प्राकृति से अपने पुख्ता निर्माण की वजह से बचतीं रहीं। आज यह लोगों के बीच से गायब होने की कगार पर हैं। नारी निकेतन की देखरेख या तो ट्रस्ट और प्रशासन करता है। अगर ऐसी इमारतों का संरक्षण समय रहते हो जाए तो शायद हमारी विरासत सुरक्षित रह जाएं।

सपनों को पंख लगाते हुनरमंद




मेरठ,
जिंदगी में मंजिल पाने की छटपटाहट हर किसी में होती है। सपनों को आकार देने के लिए वह हमेशा जी तोड़ संघर्ष भी करता है। बेहतर भविष्य के लिए वह अक्सर संसाधनों के अभाव में भी वह जूझता है, विपरीत परिस्थितियों में अपना संघर्ष जारी रखता है, लेकिन सपनों की इस मंजिल के करीब पहुंचकर वह अक्सर टूटकर हालातों से समझौता कर लेता है। क्योंकि अपनी मंजिलों के नजदीक पंहुचने पर उसके हाथ से समय निकल चुका होता है। लेकिन जिंदगी में मंजिल तक का सफर पूरा न कर पाने की कसक मन में लिए रहता है। लेकिन अपने हुनर का हमेशा सटीक इस्तेमाल करते हुए अपने जैसे लोगों की जिंदगियों में वह उन कमियों को दूर करने की भरसक कोशिश करता है।
इंसान अपनी मंजिल को पाने में अक्सर हालातों से टूट जाता है, जो इन हालातों में भी नहीं टूटता वह जिंदगी की उन मंजिलों को पा लेता है। युवाओं की सपनों की यह दुनिया बेहद रंगीन होती है, लेकिन मुकाम हासिल न होने पर वह दूसरे की जिंदगी में रंग भरने की कोशिश करता है जो सलाम के लायक होती है। वह चाहे युवाओं की सपनों की कोई दुनिया क्यों न हो। ऐसे ही शहर की खेल की दुनिया का खेल निराला है, यहां शरीर का दमखम मैदानों पर तो सुनहरा नजर आता है। लेकिन जिंदगी के मैदान में उनका खेल बिगड़ जाता है। हमारे शहर में कुछ ऐसे प्रतिभावान खिलाड़ी हैं, जिन्होने दुनिया में शहर का परचम तो लहराया लेकिन अपनी मंजिल के करीब होकर पा नहीं सके। चाहे वह खेल की कोई भी विधा रही हो हर युवा खिलाड़ी अपनी ऊर्जा के साथ राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में तो सफल प्रदर्शन करता रहा। मंजिल के अखिरी पड़ाव में आकर हालातों से टूट गया। और ऐसे रास्तों में वह थका नहीं बल्कि अपने आगे की पीढ़ी के खिलाड़ियों में वह ध्यान रखकर नित-नये गुर परोस रहा है कि कहीं वह भी अपनी मंजिल को पाने में न चूक जाए। हमारे शहर में खेल की दुनिया में अपने जमाने में उम्दा प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों ने भले अपनी मंजिल न पाई हो, लेकिन मैदान अभी भी नहीं छोड़ा। जैसे वह आज भी सपनों के मैदान में फर्राटे भर रहें हों। वह आंख खोलकर रोजाना आज भी पहले की तरह मैदान पर दिखते हैं। नई पीढ़ी के खिलाड़ियों के साथ मैदान में कंधे से कंधा मिलाकर पसीना बहाते हैं। कि कहीं कोई कमी उनके जैसी इनमें न रह जाए।

बृजकिशोर वाजपेई, एथलेटिक्स
उपक्रीड़ा अधिकारी, कैलाश प्रकाश स्पोर्टस स्टेडियम
लखनऊ के बृजकिशोर वाजपेई कैलाश प्रकाश स्पोर्टस स्टेडियम में उप क्रीड़ा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। वह अपने जमाने के राष्ट्रीय स्तर के हरफनमौला खिलाड़ी रहें हैं। इनके पिता स्व राधेश्याम वाजपेई हॉकी के बेहतरीन खिलाड़ी थे। वह कहते हैं कि उन्ही से खेल के प्रति रुझान हुआ,  उनमें अच्छे खिलाड़ी पैदा करने का जज्बा था,उन्होने अपने जमाने में बहुतों को हॉकी के गुर सिखाए। पिता के तबादलों के साथ बचपन से कई जगहों पर वह जाते रहे, लेकिन खेलना बंद नही किया। बाराबंकी में क क्षा 6 में गए और हाई स्कूल तक स्कूली प्रशिक्षण के दौरान फुटबाल, हॉकी, एथलेटिक्स और क्रिकेट आदि खेलों में हाथ अजमाते रहे। वह अपने समय में संबंधित स्कूल की टीमों में उम्दा खेल की वजह से कप्तान रहे। कई खेलों में हाथ अजमाने के बाद वह लखनऊ वापस पहुंचे, जहां शिशुपाल सिंह जैसे एथलेटिक्स कोच मिले। जिनसे मिलने के बाद एथलेटिक्स में एकाग्र हुए। शायद तब देर हो चुकी थी, लेकिन जज्बा इतना कि वह यहां भी प्रशिक्षण पाकर अपने दमखम के बूते राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शामिल हुए। यहां विश्वविद्यालयी प्रतिायोगिताओं में सफल प्रदर्शन कर कईमेडल जीते। बृजकिशोर कहते हैं कि मैं खेल के साथ पढ़ाई में भी अव्वल रहा, मैने खेल के साथ बीए, एलएलबी और बीपीएड तक की पढ़ाई की। इसके बाद एनआईएस के प्रशिक्षण के लिए चंडीगढ़ से खेल प्रशिक्षक की पढ़ाई की और पहली बार इलाहाबाद में सहायक प्रशिक्षक के पद पर तैनात हुआ।
                 अपने सफल खिलाड़ी होने के बावजूद आगे न बढ़ पाने की वजह सिर्फ सही दिशा निर्देश न मिलना बतातें हैं। वह कहते हैं कि पहले इतने संसाधन भी नहीं थे, न खेल का मैदान न कोई सटीक प्रशिक्षक लेकिन फिर भी जितना कर सका किया। मुझे कोई बताने वाला नहीं था कि भाई तुम इस खेल में अच्छा खेल सकते हो। खेलों के प्रति पहले कोई एक मानक नहीं था, अगर एक विधा में खेल गए तो ठीक । मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ, लेकिन मैं लगातार खेला इसीलिए कई खेलों में उपलब्धि हासिल कर सका। हर भारतीय खिलाड़ी की तरह मेरे साथ भी वही हुआ जो हमेशा होता है, आजीविका और जिम्मेदारियों के चलते आगे नही खेल सका। इलाहाबाद और बुलंदशहर में सहायक प्रशिक्षक, मेरठ में उप क्रीड़ा अधिकारी हूं यही मेरी उपलब्धि है। रोजाना हर खिलाड़ी में ध्यान रखता हूं कि कहीं कोई बृज किशोर की तरह सटीक प्रशिक्षण से न वंचित रह जाए।
जबर सिंह, कुश्ती प्रशिक्षक
सरधना के कालंदी गांव में जन्मे जबर सिंह कुश्ती के राष्ट्रीय खिलाड़ी रह चुके हैं। जिंदगी के 6 दशक पूरे कर चुके, जबर सिंह कहते हैं कि उन्होने गांव के इंटर कॉलेज से इंटर की पढ़ाई की। इसके बाद आगे की पढ़ाइ्र मेरठ कॉलेज से की। उन्होने खेल के साथ 1987 में मेरठ कॉलेज में दाखिला लिया। यहां एमए तक शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद नोयडा से बीपीएड, एमपीएड और पीएचडी भी की।
         वह कहते हैं कि कुश्ती के गुर सीखने का समय बाद में आया लेकिन बचपन में ही माछरा में अपने बड़े  भाई राजवीर सिंह को व्यायाम करते देख मैं भी करता था। 1976 में जब मेरठ कॉलेज आया तो यहां मुझे प्रशिक्षक के रुप में डीएस सूर्यवंशी मिले, जिनसे मैने कुश्ती के गुर सीखे। यहां पूरी तरह से पहलवान बन गया, आगे यहीं से जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय स्तरीय प्रतियोगिताओं में सफल प्रदर्शन करता रहा। 1978 में शिमला में आयोजित सीनियर नेशनल रेसलिंग चैम्पियनशिप में शामिल हुआ। इसके बाद इलेक्ट्रिकसिटी बोर्ड में नौकरी मिली तो यहां भी कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सफल प्रदर्शन किया। यहां रहकर आल इंडिया इलेक्ट्रिक सिटी बोर्ड द्वारा राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भेजा गया। इस प्रतियोगिता में मैने गोल्ड भी जीता। उस समय खेलों के प्रति इतना रुझान नही था, इसलिए प्रशिक्षक भी कम मिलते थे। जीविका और परिवार की जिम्मेदारियां जो युवाओं के सामने होती हैं, वह मेरे सामने भी थीं। इसलिए एनआइएस की ट्रेनिंग करी। 1983 में एनआइएस की पढ़ाई पूरी कर विश्वविद्यालय में कुश्ती प्रशिक्षक के रुप में तैनात हुआ। हां सुविधाएं और संसाधन होते तो शायद कुछ और करता, लेकिन समय के गुजरते ही मेरे हाथ से भी समय निकल गया। सो आज अपने सामने हर खिलाड़ी को कुश्ती के गुर बांटता रहता हूं। आज 25 खिलाड़ी रोजाना मुझसे प्रशिक्षण ले रहें हैं। जिनमें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक सफलता हासिल कर चुकें हैं।
प्रदीप चिन्योटी, हॉकी प्रशिक्षक
शहर के हॉकी खिलाड़ी प्रदीप चिन्योटी अस्सी के दशक के धुआंधार हॉकी खिलाड़ियों में शुमार किए जाते थे। उनका बचपन से खेलों के प्रति रुझान रहा, वह शुरुआती पढ़ाई के दौरान राम सहाय कॉलेज में एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में दमखम अजमाते रहे। इसके बाद वह बीएवी कॉलेज और एनएएस कॉलेज से हॉकी खेल कर कई जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय और अन्तरविश्वविद्यालयी प्रतियोगिताओं में सफल प्रदर्शन करते रहे।
     1986 में लखनऊ से बीपीएड की पढ़ाई करने के बाद खेलते रहे। इसके बाद एमपीएड उन्होने किया। जीविका और परिवारिक जिम्मेदारियों के चलते एनआइएस की ट्रेनिंग कर सीधे प्रशिक्षक के रुप में एनएएसस कॉलेज में हॉकी प्रशिक्षक  के रुप में तैनात हुए। वह कहते हैं कि मेरे समय में भारतीय हॉकी टीम सुर्खियों में थी। मेरठ में हॉकी के लिए लहर थी, सो मैने भी खेला। उस समय विक्रम सिंह त्यागी मेरे खेल प्रशिक्षक थे, उनसे हॉकी की बारीकियां सीखीं। लेकिन सीमित संसाधन में खेलना, बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से नौकरी की तरफ ध्यान लगाया। बाद में पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ी तो आय ही चारा बनी। आज रोजाना सुबह शाम शहर के खिलाड़ियों को हॉकी को सीखे हुए गुर सिखाता हूं। यहां कई राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी निकले हैं, जिन्होने मेरठ का नाम रोशन किया है। 
मनीष शर्मा, वुशू, एडहॉक प्रशिक्षक कैलाश प्रकाश स्टेडियम
लखनऊ में जन्मे मनीष शर्मा मेरठ के प्रतिभावान वुशू खिलाड़ी रहें हैं। बचपन में मार्शल आर्ट की फिल्मों से प्रभावित होकर उन्होने कराटे सीखना शुरु किया। लखनऊ की ड्रेगन अकादमी में कराटे और बाक्सिंग सीखने के बाद वुशू खेल के प्रति आकर्षित हुए। पढ़ाई के दौरान स्कूल-क ॉलेज स्तर पर कई प्रतियोगिताएं भी जींती। लखनऊ से ही बीपीएड करने के बाद एनआइएस की ट्रेनिंग कर कैलाश प्रकाश स्टेडियम में वुशू के एडहॉक प्रशिक्षक के रुप में तैनात हैं।
     शुरु में 1999 नेशनल वुशू प्रतियोगिता, 2000 में दिल्ली में आयोजित वुशू की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में और जमशेदपुर में 2001 में राष्ट्रीय प्रतियोगिता में मेडल जीते। इसके बाद साऊथ एशियन चैम्पियनशिप में राष्ट्रीय रैंकिग में रहे। तकरीबन बीस राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उपलब्धियां दर्ज कराते हुए, सिल्वर, ब्रोंच और गोल्ड मेडल जीतकर मेरठ का नाम रोशन किया। वह कहते हैं कि खेल के अभ्यास के दौरान घुटने में चोट आने पर दोबारा उसी दमखम से नहीं खेल पाए। सीमित संसाधन और वुशू के विकास न होने पर कड़ा संघर्ष करना पड़ा। फिर उम्र बीतने के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों बढ़ती गर्इं और फिर उसी ऊर्जा के साथ नहीं खेल पाया। आज अपने समय रहते संसाधनों के अभाव में खेल की कमियों को ध्यान में रखकर 40 खिलाड़ियों को रोजाना वुशू के गुर सिखाता हूंं।
विपिन वत्स, क्रिकेट प्रशिक्षक
पूर्व रणजी ट्राफी, सीके नायडू, वेटरन ट्राफी, विल्स ट्राफी, देवधर ट्राफी और दिलीप ट्राफी में अपनी धुआंधार बैटिंग की वजह से जाने गए विपिन वत्स खेल की दुनिया में नया नाम नही हैं। मेरठ के विपिन वत्स रोजाना विक्टोरिया पार्क में नये क्रिकेटरों के साथ पसीना बहाते नजर आ जाएंगे।
     विपिन मेरठ बीएवी कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज से पढ़ाई कर। स्पोर्टस हास्टल कानपुर में क्रिकेट के प्रशिक्षण के लिए रहे। तीन साल बाद वह 1979 से 1982 तक मोहन मिकिंस गाजियाबाद की तरफ से क्रिकेट खेलकर कई प्रतियोगिताएं में सफ लता दर्ज की। 1982 में देश की नामी क्रिकेट प्रतियोगिताओं में उम्दा कीपिंग और बैटिंग के लिए जाने गए। वह हमेशा ओपनर बैट्समैन के रुप में उतारे गए और धुआंधार बैंटिग से सफल प्रदर्शन करते रहे। वह कहते हैं कि  1991 में न्यूजीलैंड के दौरे पर जाने वाली क्रिकेट टीम में चयन के विसंगतियों की वजह से शमिल नहीं हो पाए। अपने प्रशिक्षकों के नामों में वह शुरुआत में जीआर गोयल कानपुर में, केके गौतम, तारिक सिन्हा, अरुण भारद्वाज, डीसी कश्यप और कर्नल एमओ अधिकारी को बताते हैं। वह कहते हैं कि समय-समय पर हर प्रशिक्षक से क्रिकेट की बारीकि यां सीखता रहा। अंतर्राराष्ट्रीय स्तर पर वीसीसीआई और नेशनल क्रिकेट अकादमी में रहा। यूपी जूनियर क्रिकेट टीम और रणजी ट्राफी के चयनकर्ताओं में रहा।
         वह कहते हैं कि 1992 से क्रिकेट की आगे की प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं लिया। जब खिलाड़ी शिखर पर होता है तो उसके लिए सटीक निर्णय उसका भविष्य बनाता और बिगाड़ता है। इसलिए खासतौर पर सुर्खियों में रहने वाले खेलों में एहतियात चाहिए, वह भी क्रिकेट में देश का सबसे चर्चित खेल भी होना इसकी वजह है। पिछले 14 साल से मेरठ में हर बार एक नया क्रिकेटर निकालता हूं, जिसमें वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक जाता है। प्रवीन कुमार, सुदीप त्यागी, भुवनेश कुमार, गौरव गोयल, उमंग शर्मा, मो खालिद, सुनील यादव, उदित मुदगल और आशीष शर्मा जैसे कई खिलाड़ी इस मैदान से क्रिकेट की बारीकि यां सीख उम्दा प्रदर्शन कर चुकें हैं। आज तक लगभग सौ क्रिकेटर तो रहें ही हैं, जिन्होने मुझसे सीखकर जा चुके हैं। आज भी दस ग्रुपों में दस प्रशिक्षकों द्वारा क्रि केट की बारीकियां सिखाई जातीं हैं। यहां रोजाना सुबह और शाम को प्रशिक्षण के लिए डेढ़ सौ बच्चे आते हैं, जिनमें आठ साल की उम्र से लेकर बड़े बच्चे तक क्रिकेट के गुर सीख रहें हैं।
अनंत शिवेंद्र प्रताप सिंह, स्वतंत्र शूटिंग कोच
सरधना के कालिंदी गांव के अनंत शिवेंद्र अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के शूटिंग खिलाड़ी हैं। मेरठ पब्लिक स्कूल मेरठ से बारहवीं कर सेंट स्टीफन कॉलेज दिल्ली से एमएससी की पढ़ाई कर रहें हैं। वह कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शूटिंग प्रतियोगिताओं में सफल प्रदर्शन कर तमगे हासिल कर चुकें हैं।
  वह कहते हैं कि जब वह सात साल के थे तो अपने पिताजी को शूटिंग प्रशिक्षण देते हुए देखते थे। शुरु में शौक के चलते शूटिंग करने की कोशिश एक दिन जुनून में बदल गई। जब सात साल की उम्र में ही, पिता के साथ पजांब में नेशनल जूनियर शूटिंग प्रतियोगिता में भाग लेने पंहुच गए।
 यहां पहली बार में खास उपलब्धि नहीं मिली, क्योंकि पहली बार प्रतियोगिता के सही मायने नही मालूम थे। प्रतियोगिता में अनजाने से भाग लेना और अन्य लोगों के सामने असफल होना। उन्हे मात्र सात साल की उम्र में चुनौती के रुप में लिया। इसके बाद वह लगातार अभ्यास में जुट गए और कई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सफलता दर्ज कर तमगे झटके। तमाम राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उन्होने 77 मेडल हासिल किए जिसमें 50 गोल्ड और 15 सिल्वर और ब्रोंच शामिल हैं।
   वह कहते हैं कि उन्होने खेल के अभ्यास के साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। जिसमें वह हमेशा सफल छात्र भी रहे। उन्हे अपने उम्दा खेल प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय स्तर की कई कंपनियों से नौकरी के प्रस्ताव भी आए कि वह उनके लिए खेलें। लेकिन वह अभी और खेलना चाहते हैं, कहतें हैं कि सफलता  का कोई चरम नही होता जितना मिले भूख बढ़ती है। अभी आगे और अच्छा प्रदर्शन करना है। फिलहाल वह शहर के सबसे कम उम्र के खेल प्रशिक्षक हैं, जो रोजाना शूटिंग के खिलाड़ियों को गुर बांटने निकल पड़ते हैं।

इन हाथों ने जन्मे कई




 मेरठ,
किसी समय में प्रसव के दौरान महिलाओं के सबसे नजदीक समझा जाने वाला संवेदनशील रिश्ता दाई मां का था। हर दिन किसी न किसी के जान के टुकड़े को नई जिंदगी देती है और उसकी किलकारियों के साथ ही थाली पीटकर शुभ सूचना लोगों तक पहुंचाती। इसी तरह रोजाना किसी न किसी नए  मेहमान को जिंदगी देने वाले हाथों पर आज झुर्रियां हैं, जिसने अनगिनत नन्ही जानों को इस दुनिया में पहुंचा कर आगे का सफर तय किया। आंख खुलने के पहले बने इस रिश्ते के लिए आज हमारी आंखें नहीं खुलतीं। आज उसे अपने इन बूढ़े हाथों पर यकीन नहीं होता कि सामने खडेÞ नामचीन व्यक्ति की पैदाइस इन्ही हाथों से हुई है।
   सदियों से हमारी पंरपराओं में रही दाई मां की एक खास जगह रही है। इस मां के हाथों ने कई नाजुक जानों को इस दुनिया में सुरक्षित पहुंचाया। हर पीढ़ी में मां की प्रसव पीड़ा को समझा और एक नई पीढ़ी सौंप आगे बढ़ी। इतना ही नहीं उसने नाजुक सी जान की लगातार परवरिश भी की उसने नन्ही जान को नन्हे पैरों पर खड़ा होने लायक बनाया। बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे तक का सफर इन्ही मजबूत कदमों के सहारे तय किया। जिंदगी के सफर में हमने फिर कभी पलटकर इस रिश्ते की टोह लेने की कोशिश नहीं की। आखिरकार आज दाई मां फिर उसी पीढ़ी का सहारा चाहती है, जिसको उसने इस दुनिया में अपने हाथों पहुंचाया।
    शहर की कुछ ऐसी ही बुढ़ी दाई मां जिन्होने किसी जमाने में शहर को नामचीन शख्स दिए। दाई मां को उन नाजुक पलों की याद हैं जिनमें वह दुनिया में आया था। लेकिन हमें याद नहीं कि यह हमारी दाई मां है। सरकारी योजनाओं में हमेशा से बखान की जाने वाली दाई मां आज लाचार है, जिंदगी के इस पड़ाव में उसकी आंखों में अतीत की तस्वीरें ओझल हो चलीं हैं। उसके चश्में का नंबर भी उसकी उम्र के साथ बढ़ता जा रहा है। वह आज दो जून की रोटी की तलाश में गगनचुंबी अस्पतालों के बाहर निहत्थी खड़ीं हैं। जहां हर पल कोई नया दुनिया में जन्म ले रहा है, लेकिन दाई मां वहीं है, अपनो की राह में, बेहद अकेली। शहर की कुछ ऐसी महिलाएं जो जिंदगी का लंबा सफर तय कर चुकीं है, लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव में जरूरत महसूस कर रहीं हैं मदद की।
जेम्स गिल (गिल आंटी)
जिंदगी के सात दशक बाद किसी की मदद की आस में हैं। उन्होने 1963 की बाढ़ में शिकार अपने परिवार की तंगी की वजह से आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पार्इं। सेंट एंड्रयूज स्कूल से आठवीं की तक की पढ़ाई कर सकीं। वह कहती हैं कि किसी जमाने में मेरठ की प्रसिद्ध डाक्टर सुधा मल्होत्रा के पास रहकर प्रसव की बारीकियां सीखतीं थीं। धीरे-धीरे आगे वह खुद महिलाओं को प्रसव के समय मदद देने लगीं। यह काम उन्होने पच्चीस साल की उम्र में शुुरु किया था। वह कहतीं हैं कि हमने अपनी जिंदगी में महिलाओं को बहुत सुरक्षित प्रसव कराया। जिसमें प्रसववती को यह नहीं बताते थे कि उनकी संतान लड़का है या लड़की जन्म के उसे प्रसव के बाद ही पता चलता था। यह इसलिए कि उसको किसी तरह का सदमा न लगे। 1982 से खुद की शारीरिक असक्षमता के चलते यह काम बंद कर दिया। इस शहर में हमने सैकड़ों महिलाओं के प्रसव कराए। आज सब पता नही कहां से कहां पहुच गए होगें। इसके अलावा उस समय जिला अस्पताल, मेडिकल कालेज में भी प्रसव के लिए जाती थी।
मिसिज मोहनी हैरी
अस्सी वर्षीय मोहनी मिशन कंपाउड में रहतीं हैं। बचपन में ही माता पिता के न रहने पर बड़ी बहन ने उनका भरण पोषण किया। वह 1965 में वह प्यारे लाल जिला अस्पताल में मिड वाईफ थीं, सैकड़ों महिलाओं के प्रसव कराए। तकरीबन डेढ़ सौ  प्रसव करा चुकीं मोहनी कहती हैं कि दस बारह साल से वह प्रसव नहीं करातीं हैं, उसके पीछे वजह बतातीं हैं कि लोग अब बड़े अस्पतालों की तरफ भागते हैं। उन्हे हमारे अनुभव की जरूरत नहीं समझी। आधुनिक दौर में लोगों ने अस्पतालों की तरफ रुख किया और पहले अस्पताल कम होते थे। लोग पुस्तैनी दाईयों पर भरोसा करते थे। आज आधुनिक मशीनों से हो रहे इलाज के आगे हम लोगों की तरफ नही देखते। अब इतनी उम्र में कुछ होता भी नहीं है, हां सरक ार या किसी अपने ने पलट कर हाल नही पूछा यह अफसोस हमेशा रहता है।
चावली बेगम
पच्चासी साल पूरे कर चुकीं चावली मेरठ शहर ही नहीं आसपास के गांव देहातों में काफी प्रसिद्ध रहीं हैं। वह सुरक्षित प्रसव के लिए जानी जाती हैं, अपनी मां हमीदन और पुस्तैनी प्रसव के काम को अपनी रोजी रोटी का जरिया बतातीं हैं। वह कहती हैं कि जब शहर में डाक्टर और अस्पताल गिनेचुने थे, लोग बड़ी आशा लेकर आते थे। उस जमाने में न बिजली होती थी न किसी तरह का साधन, फिर भी लोगों को मेरे हाथ पर पूरा भरोसा था। पांच पीढ़ियों से जड़ी बूटियों के जरिए प्रसव कराने वाली चावली कहती हैं कि लोग अब अंग्रेजी दवा और बड़े अस्पतालों के डाक्टरों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। जब मैं महिलाओं का प्रसव कराती थी तो लोग मुझे पूजते थे, आज जो मेरे हाथों से पैदा हुए वहीं अपनी औलादों को मेरे हाथों में सुरक्षित नहीं समझते। पहले इलाके  के लोग गाहे-बगाहे मेरे पास आते भी थे,लेकिन आज कोई हालचाल भी नही पूछता।
कैथरिन डेविस
1974 से 1992 तक सैकड़ों महिलाओं को सुरक्षित प्रसव कराने वाली कैथरिन आज अपने अतीत को याद करती हैं। वह कहती हैं कि 1943 में आठवीं पास कर लिया था, पहले के समय में आठवीं बड़ी पढ़ाई थी और लड़कियों को घर के बाहर अभिभावक पसंद नही करते थे। 15 साल की थी, तब शादी हो गई। शहर में डा आरपी मल्होत्रा, डा चढ्डा ओर डा मैथ्यूस ही नामीगरामी डाक्टर थे। डा मल्होत्रा की पत्नी सुधा मल्होत्रा भी डाक्टर थीं। उन्ही के पास 23 साल की उम्र से प्रसव कराना सीखा। सत्तर साल की कैथरीन कहती हैं कि पहले के जमाने में आधुनिक तकनीक नही थीं, जिला अस्पताल या मेडिकल कालेज में ही प्रसव होते थे। इसके अलावा लोग अपने घर पर प्रसव कराना सही समझते थे। धीरे-धीरे अस्पताल और डाक्टर बड़े तो घर में प्रसव का चलन खत्म होता गया। मुझे याद भी नहीं कि कितने प्रसव कराए हां आज जब उस दौर की बूढ़ी महिलाएं मिलतीं हैं तो वह मुझे पहचान लेतीं हैं। इतना ही बहुत है, वर्ना न जाने कितनी महिलाओं को प्रसव कराया कोई पहचानता ही नही है।
एलिस चार्ल्स मैसी
जिंदगी के नौ दशक पार कर चुकीं ऐलिस भगवान पर हमेशा भरोसा करतीं हैं। 1928 में जन्मी एलिस मैसी उम्र के इस पड़ाव में कहतीं हैं कि आज भी खुदा से ताकत मांगतीं हूं कि वह शक्ति दे ताकि मैं हमेशा अच्छा कर सकूं। वह कहमी हैं कि पुराने जमाने में आठवी पास किया था, जो मैट्रिक के मायने रखती थी। सेंट स्टीफन अस्पताल दिल्ली से नर्सिंग की ट्रेनिंग करी थी। पूरे शहर में सुशीला जसवंत राय अस्पताल, हीरालाल अस्पताल, डफरिन अस्पताल और मेडिकल कॉलेज ही होते थे, जिनमें मैं रही।  ऊर्दू, हिंदी और अंगे्रजी भाषाओं में पूरी पकड़ रखने वाली एलिस ने अपने काम के जरिए अपनी पहचान बनाए रखी। कहतीं हैं कि मेरे पति सेना में थे, आठ बच्चों को अकेला छोड़कर काम पर जाती थी। 1925 में सीएमओ नही होते थे, सिविल सर्जन होते थे। वह ही पूरे जिले की चिकित्सा सुविधाओं का ध्यान रखते थे। न बिजली होती थी, न यातायात के साधन और न ही अस्पताल। बुग्गियों से मवाना, बागपत और पिलखुवा जाती थी। इन तीनों जगहों पर लंबे-लंबे समय तक मवाना, पिलखुवा और बागपत में इंचार्ज के तौर पर काम किया। अस्पताल की प्रसूति विभाग का पूरा जिम्मा संभाला। उम्र के साथ अस्पताल ने भी रिटायर कर दिया, लेकिन अफसोस जहां मैं इतने सारे अस्पतालों में लगातार 50 सालों तक  जिम्मेदारी संभाली उसी विभाग ने मुझे पेंशन के लायक नही समझा। जिस विभाग ने मुझे मेरे सराहनीय कामों के लिए लगातार सम्मानित किया उसी विभाग ने मेरा हाल भी नही पूछा। हजारों बच्चों को नई जिंदगी देने वाली एलिस जहां अपने काम के लिए खुश दिखती हैं वहीं उन्हे पछतावा होता है। मुझसे गलती हुई थी कि मैने अपना नर्सिंग का रजिट्रेशन कराना भूल गई। वह कहतीं हैं कि मुझे अगर हर महीने अपने पति की पेंशन के तीन हजार रुपये न मिलें तो मेरा क्या होता। मैं अपनी जरुरी दवाएं भी न जुटा पाती।