Friday, November 9, 2012

आजादी से जुड़े चंद लम्हों की दास्तां कहता तिरंगा


-  1946 में कांग्रेस के आखिरी अधिवेशन का गवाह
-  नेहरू, आचार्य कृपलानी और शख्श्यितों ने फहराया था तिरंगा
        आजादी के समय की तमाम धरोहरें संग्राहलयों में संजोई गई हैं। जिसमें आजादी के समय के तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं। आजादी से जुड़े चंद लम्हों को एक धरोहर के रुप में मेरठ में भी रखा गया है। 23 नवंबर 1946 में आजादी के पहले मेरठ के विक्टोरिया पार्क में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के दौरान फहराया गया 14 फीट चौड़ा और 9 फीट लंबा तिरंगा फहराया गया था। यह झंडा हस्तिनापुर निवासी देव नागर के पास किसी धरोहर से कम नहीं है। इस ऐतिहासिक झंडे से देश के चंद महत्वपूर्ण लोगों की यादें जुड़ीं हैं। जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु, शहनवाज खान, आचार्य कृपलानी और सुचेता कृपलानी के नाम झंडे के इतिहास से जुड़े हैं।
         द्वितीय विश्वयुद्ध में आजाद हिंद फौज के मलाया डिवीजन के कमांडर रहे, स्व कर्नल गणपत राम नागर के परिवार के लिए यह झंडा किसी अमूल्य धरोहर से कम नहीं है। गॉडविन पब्लिक स्कूल में उपप्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत देव नागर स्व कर्नल गणपत राम नागर के पौत्र  हैं। वे बताते हैं कि आजादी के पहले विक्टोरिया पार्क में इस तिरंगे को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, जनरल शहनवाज खान, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य जेबी कृपलानी  और सुचेता कृपलानी के हाथों फहराया गया था। झंडारोहण के दौरान साथ में गणपत राम नागर भी मौजूद थे।
         गणपत राम का जन्म 16 अगस्त 1905 में मेरठ में केसरगंज निवासी विष्णु राम नागर के घर हुआ था। उन्होंने मेरठ के राजकीय स्कूल से हाईस्कूल और मेरठ कॉलेज से बीए की पढ़ाई की। वे हॉकी-क्रि केट के खेल में शानदार प्रदर्शन के लिए भी जाने जाते थे, इसलिए वे दोनों खेलों के कप्तान भी रहे। उनकी मेहनत, ईमानदारी और ऊर्जा को देखकर मेरठ कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसीपल कर्नल ओडोनल ने नागर को सैंडहर्स्ट कॉलेज इंग्लैंड में पढ़ाई के लिए भेजा। वहां वे दो साल तक आर्मी अफसर का प्रशिक्षण लेकर ब्रिटिश आर्मी में 1928 में किंग कमीशन अफसर के पद पर नियुक्त हुए। 1939 में सिंगापुर के पतन पर अंग्रेजों की बर्बरता को देख उन्होंने विद्रोह कर दिया, इससे अंग्रेजी हुकूमत ने इन्हें बंदी बना लिया। रिहा होने के बाद वे नेताजी सुभाष चंद बोस की आजाद हिंद फौज में इन्हें मेजर जनरल की पोस्ट से नवाजा गया। स्वतंत्रता सेनानी गणपत राम नागर के इकलौते बेटे स्व सूरज नाथ नागर भी कुमाऊं रेजीमेंट में 1950 से 1975 तक कर्नल के पद पर रहे।
          गणपत राम नागर के पौत्र देव नागर कहते हैं कि मेरे पिता स्व सूरज नाथ नागर कहते थे कि 'दादा से विरासत में मिला यह तिरंगा मेरे लिए देश की आजादी से जुड़ी धरोहर है। विक्टोरिया पार्क में यह झंडा जब फहराया जा रहा था, उस वक्त मैं वहां अपने पिता के साथ मौजूद था। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने कहा था कि ' हमने इस तिरंगे के नीचे आजादी की लड़ाई लड़ी है, यही वतन का झंडा बनेगा।' इस ऐतिहासिक तिरंगे के संदर्भ में फिल्म डिवीजन दिल्ली ने एक डाक्यूमेंट्री भी बनाई थी, जिसे सिनेमाघरों और टीवी चैनल पर प्रसारित किया जाता रहा है। गणपत राम नागर पर आधारित डिवीजन द्वारा निर्मित डाक्यूमेंट्री फिल्म समय-समय पर प्रसारित की जा चुकीं हैं। उनके योगदान और उनपर किए गए शोध पर पुस्तकें  आज भी मेरठ के तिलक पुस्तकालय में उपलब्ध हैं। स्व कर्नल गणपत राम का परिवार जिसमें स्व कर्नल सूरज नाथ नागर की पत्नी और देवनागर की मां अनुराधा नागर व जुड़वा भाई गुरु नागर सपरिवार हस्तिनापुर डिफेंस कॉलोनी में रहते हैं। जहां चौथी पीढ़ी के सदस्य रहते हैं, वो इस तिरंगे की दास्तां जुबानी सुनते हैं।
        नोट फोटो में  - गुरु नागर के पुत्र विक्रांत नाथ नागर और देवनागर तिरंगे के साथ

गरिमा ने किए मां के सपने साकार


      मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी गरिमा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमक बिखेरेगी। यह किसे पता था, लेकिन लाख दुश्वरियों के बाद गारिमा की मां का आत्मविश्वास नहीं डगमगाया। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी न सिर्फ  मासूम बच्चे के सपनों को संवारा बल्कि खुद की ख्वाहिशों का पूरा होते देखा।           
        1990 में जन्मी गरिमा आरजी कॉलेज से 12वीं करने के बाद चंडीगढ़ से बीए किया और मेरठ से एमबीए की पढ़ाई कर रही है। महज 6 साल की उम्र में उसकी शरारत से तंग आकर मां ने जूडो की कोंचिग दिलाना शुरू किया।  खेलकूद के सफर तब शुरू हुआ जब सिर्फ तीन महीने बाद ही स्टेट लेवल की जूडो प्रतियोगिता में उसे हुनर दिखाने का मौका मिला। लेकिन इतने कम समय में अपने दमखम की वजह से उसे प्रदेशभर के बच्चों के बीच तीसरा स्थान बनाया। असल में यहीं से मासूम गरिमा नन्हीं जूडोका के नाम से जानी गई और यहीं से शुरू हुआ खेल की दुनिया का सफर। अपनी मां के बारे में गरिमा कहतीं हैं कि मेरे यहां तक पहुंचने में मेरी मां का महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
    इसके बाद सिर्फ 9 साल की उम्र में ही केरल में आयोजित पहली नेशनल प्रतियोगिता में भी गोल्ड जीतकर सफलता दर्ज की। इस प्रतियोगिता के बाद गरिमा का नाम सिर्फ प्रदेश में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाने लगा। 14 साल में पहलीबार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलकर भारत के नाम सफलता दर्ज की। इसके बाद लगातार दुनिया के ज्यादातर देशों में कई मेडल और सम्मान प्राप्त कर अंरराष्ट्रीय स्तर पर दर्ज किया।
   गरिमा चौधरी ने कहतीं हैं कि विदेश में जूडो के मुकाबले फर्क सिर्फ इतना ही है कि हमारे यहां कम प्रतियोगिताएं होती हैं और विदेश में ज्यादा। यही वजह है कि विदेशी खिलाड़ी स्टेप-टू-स्टेप आगे बढ़ते हैं तो हमें सीधे बड़े कम्पीटिशन में उतरना पड़ता है, जबकि हम मेहनत उनके बराबर ही करते हैं, लेकिन कम अनुभव होने से प्रदर्शन में अंतर आता है। गरिमा ने कहा कि 2004 में जब उसने मेरठ छोड़ा था तो उसके बाद से जूडो की अच्छी प्रैक्टिस भी खत्म होती गई। वहां अब जूडो के अच्छे खिलाड़ी भी नहीं आ रहे।
  उपलब्धियां
    ’ राष्टÑीय और अंतर्राष्टÑीय प्रतियोगिताओं में 50 से ज्यादा पदक।
  ’ 2007 में जूनियर एशियाई चैंपियनशिप हैदराबाद में स्वर्ण पदक
 ’  2006 में सैफ गेम कोलंबो में स्वर्ण पदक
  ’ 2008 में कॉमनवेल्थ जूडो चैंपियनशिप मॉरीशस में जूनियर व सीनियर में स्वर्ण पदक
 ’ 2010 में कॉमनवेल्थ जूडो चैंपियनशिप सिंगापुर में रजत   ’ 2010 में मार्शल आर्ट्स बैंकाक में कांस्य पदक
  ’ 2008 में जूनियर एशियाई चैंपियनशिप, यमन में रजत
  ’ 2008 में जूनियर एशियाई चैंपियनशिप में कांस्य पदक
  -  2008-09 में वर्ष की सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित
   - 2012 लंदन ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व

तूलिका ने भरे मां के सपनों में रंग


मेरठ के जागृति विहार की 28 वर्षीय तूलिका रानी की उपलब्धियों को शायद ही शहर महसूस कर पाया हो। लेकिन वे दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहराकर जोश और जज्बे की मिसाल पेश की। लेकिन किसी ने टोह नहीं ली कि आखिर हमारे खाते में क्या आमद हुई। ये बात और है कि तूलिका से मिलने के बाद हर शख्स उनके साहस का कायल हो जाता है। सवाल है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और प्रदेश का नाम रोशन करने वाली जांबाज तूलिका क्या किसी सम्मान की हकदार भी नहीं?
     एयरफोर्स लखनऊ में स्कवाड्रन लीडर के पद पर तैनात तूलिका कहती हैं कि एवरेस्ट की चोटी पर जाने के 18 रास्ते हैं, जिनमें प्रमुख रूप से दो ही रास्ते अपनाए जाते हैं, एक नेपाल का साउथ रूट और दूसरा चीन का नॉर्थ रूट। मैं साउथ रूट से वहां तिरंगा फहरा चुकी हूं, अब नॉर्थ रूट से जाऊंगी। मेरी तमन्ना दुनिया की सर्वोच्च ऊंचाईयों पर तिरंगा फहराने की है।
हौसलों की ऊंचाई पर सिर्फ इंसान हूं
  सिर्फ इच्छाशक्ति के दम पर ही इतनी ऊंची मंजिल तय करना संभव है। फैंटेसी होती है कि आखिर इतनी ऊंचाई पर कैसा लगता है। जिंदगी की तरह एवरेस्ट की ऊंचाई पर जाति,धर्म और बिना किसी भेदभाव के सिर्फ इंसान होने का सुखद अहसास होता है। ये दुर्लभ क्षण है, हाथों में था तिरंगा ही मेरी पहचान थी जो सिर्फ भारतीय होने से ज्यादा कुछ भी नहीं था।
तूलिका को मिले यूपी रत्न
तमाम संगठनों ने तूलिका को सम्मान से नवाजे जाने की मांग भी की है। सांसद राजेंद्र अग्रवाल, सपा नेत्री डा सरोजनी अग्रवाल, कमीशनर मृत्युंजय कुमार नारायण, जिलाधिकारी विकास गोठलवाल व एडवोकेट अफजाल अहमद ने पत्र लिखाकर प्रदेश सरकार से तूलिका को यूपी रत्न और आर्थिक मदद की संस्तुति की है। उन्हें राष्ट्रपति पदक से सम्मान के लिए केंद्र सरकार से संस्तुति करने की बात कही है। ताकि वे 21 लाख के कर्जे को  निपटा सकें। 

  - दिक्कत और सफर की चुनौतियां
’ खर्चा 21 लाख, फ्रेंड सर्किल में जुटाए
’ 12 किलो के बैग को लादकर ऊंचाई पर चढ़ना
’ बैग में आॅक्सीजन सिलेंंडर, गर्म कपड़े, दवाएं
’ 5 लाख अभियान में मदद के लिए दो शेरपा
’  राशन की नेपाल सरकार 7 लाख परमिट फीस 
’  5 लाख के उपकरण दस्ताने 16 से 20 हजार तक
’ ब्यूटेन गैस सिलेंडर खाना और बर्फ से पानी बनाने 
’ 17,500 फीट पर बेस कैंप और इसके ऊपर हर दो हजार फीट की ऊंचाई पर चार कैंप
- हैरतअंगेज सफर
’ खड़ी चढ़ाई,गहरी खाईयां, बफर् ीले तूफान का जोखिम
’ 26 हजार फीट ऊंचाई के बाद डेथ जोन घोषित
’ तापमान माइनस 30 से 40 डिग्री तक
’ 100 किमी प्रति घंटे से भी अधिक बर्र्फीली हवाएं
’ अप्रैल-मई में 11 पर्वतारोहियों की मौत हुई
- आंकड़ों में एवरेस्ट
’ पहली बार 1953 में एडमंड हिलेरी और तेनसिंग नारगे एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचे।
’ 1953 से आज तक दुनियाभर से 3 हजार लोग
’  195 भारतीय हैं, जिनमें 33 महिलाएं
’ 1984 में बछेंद्री पाल पहली भारतीय महिला
’ तूलिका यूपी की पहली महिला एवरेस्ट विजेता
- शिखर जो तूलिका ने छुए
माउंट स्टोक कांगड़ी, लेह  - 20,000 फीट
माउंट भागीरथी, उत्तराखंड - 23,000 फीट
माउंट कामेट,गढ़वाल      - 25,000 फीट
माउंट सासेर कांगड़ी, लेह  - 25,000 फीट
माउंट एवरेस्ट, नेपाल      - 29,028 फीट

Sunday, November 4, 2012

बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय

  बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय देश के गिने-चुने संस्कृत महाविद्यालयों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों में बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसे वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और समानान्तर शिक्षा का प्रयास किया गया है।  विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और मौजूदा समय में यह संपूर्णानंद संस्कृ त महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है। यह देश के प्रसिद्ध संस्कृत शिक्षण संस्थानों में गिना जाता है। ___
 
सदर इलाके में स्थित बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय गिने-चुने संस्कृत महाविद्यालयों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण महाविद्यालयों में बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसको संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और मौजूदा समय में यह संपूर्णानंद संस्कृ त महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है।
  किसी समय में जहां महाविद्यालय है, वहां बेलपत्रों के पेड़ का जंगल था। बेल पत्रों से घिरा होने की वजह से यहां मौजूद पौराणिक शिव मंदिर बिल्वेश्वर मंदिर के रूप में चर्चित हुआ। किसी समय में मंदिर की उपासना और शिक्षा की वजह से छात्र और गुरु इसके आसपास रहा करते थे। बाद में इस स्थान पर संस्कृत भाषा का शिक्षण कार्य शुरू हुआ। जिसमें बेलपत्रों की छाया में शिक्षक छात्रों को संस्कृत भाषा में पढ़ाया करते थे। गुरु-शिष्य के शिक्षण के आदान-प्रदान के चलते यहां गुरुकुल परंपरा पड़ी। प्राप्त अभिलेखों के अनुसार 1821 में गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज की स्थापना हुई जो काशी विश्वविद्यालय से संबद्ध हुआ। प्रारंभिक तौर पर यहां संस्कृत की कक्षाएं लगनी शुरू हुर्इं और इस विद्यालय को संस्कृत विद्यालय की पहचान मिली, जिसे बिल्वेश्वर संस्कृत विद्यालय भी कहा गया।
 संस्कृत भाषा के शिक्षण कार्य को देखकर 1927 में परास्नातक की कक्षा की मान्यता भी मिली और यह विद्यालय से महाविद्यालय हुआ। तब यहां व्याकरणाचार्य की शिक्षा भी प्रदान की जाने लगी। लगातार संस्कृत भाषा के क्षेत्र में मिलती उपलब्धियों को देखकर 1964 में इस महाविद्यालय को साहित्याचार्य की मान्यता मिली। उस दौरान यह महाविद्यालय उत्तर प्रदेश के संस्कृत महाविद्यालयों में प्रथम श्रेणी का घोषित हुआ। 1965 में ज्योतिषाचार्य की शिक्षा का आरंभ हुआ और ज्योतिषाचार्य की उपाधि भी दी जाने लगी। महाविद्यालय का शैक्षिक स्तर हर कदम पर कई चरणों में ऊपर बढ़ता गया। यही नहीं समय-समय पर मनीषियों ने इस महाविद्यालय को धन्य किया। 1927 में पंडित प्यारे लाल शास्त्री ने प्राचार्य पद पर रहकर अपने सराहनीय प्रयासों से यहां के शिक्षा के स्तर को बढ़ाया। इसके बाद 1936 में पंडित हरिदत्त शास्त्री भी इस महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर रहे। 1980 में डा गिरिजा बलूनी प्राचार्य रहे और मौजूदा समय में डॉ चिंतामणि जोशी यहां के प्राचार्य हैं।
  पंडित हरिदत्त शास्त्री और पंडित प्यारे लाल शास्त्री जैसी विभूतियों ने संस्कृत भाषा के बढ़ावे और महाविद्यालय के लिए कई प्रयास किए, जिनमें यहां दो मंजिला भवन भी शामिल है। इस दो मंजिला भवन के लिए 1951 में मदन गोपाल सिंघल और हरिदत्त के प्रयास सार्थक हुए और इसका निर्माण हुआ। जिसका उद्घाटन उप राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया। समय-समय पर आयोजित आयोजनों में देश की कई विभूतियां यहां आती रहीं, यहां महान संस्कृत मनीषियों के अलावा केएम मुशीं, श्री प्रकाश गर्ग केंद्रीय वाणिज्य सचिव, संस्कृत विद्वान एएन झा, काशी विवि के कुलपति पंडित मंडन मिश्र, राजेंद्र मिश्र, डॉ देव स्वरूप आदि समय-समय पर आए। 1956 में संपूर्णानंद जब मुख्यमंत्री थे, तब इस महाविद्यालय को संस्कृत विवि काशी से संबद्ध कर इसका नाम संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय किया गया। आज भोजन और आवास की सुविधा सहित यह महाविद्यालय अपने आप में महान विद्यापीठ साबित हो रहा है। अठ्रहवीं शताब्दी के मराठा वास्तु शिल्प का बेजोड़ नमूना विद्यालय का यह पुराना भवन, जिसमें पूरा परिसर है, देखते बनता है। यह मेरठ शहर की प्राचीनतम धरोहरों में से एक है। 14 कमरों के छात्रावास के साथ शिक्षण और आवास की सुविधाओं के जरिए शिक्षण का कार्य प्रगति पर है।  हां पहले की अपेक्षा शिक्षकों की संख्या कम है, 11 शिक्षक थे, जिसमें नई नियुक्तियांं न होने के कारण अब मात्र पांच शिक्षकों द्वारा ही शिक्षण हो रहा है।

लगता है आत्मा से दूर हूं_मेरठ के लेखक वेदप्रकाश शर्मा

    हिंदी उपन्यास जगत से लेकर छोटे और बड़े पर्दे तक जासूसी विधा में मेरठ के लेखक वेदप्रकाश शर्मा देश भर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। यह उनकी लेखनी का जादू ही है कि  वर्ग विशेष के पाठकों तक सीमित रहने वाली जासूसी विधा को समाज के हर वर्ग के बीच लोकप्रिय बन गई है। मात्र 15 साल की उम्र से उपन्यास लिखने का सिलसिला शुरू करने वाले इस लेखक का पहला उपन्यास 'दहकते शहर' चार दशक पूर्व 1971 में प्रकाशित हुआ। अब तक 161 उपन्यास लिख चुके वेदप्रकाश शर्मा के चार उपन्यासों पर फिल्में भी बन चुकी हैं। जिनमें ‘बहू मांगे इंसाफ’ पर आधारित फिल्म 'बहू की आवाज' (1985), ‘विधवा का पति’ पर आधारित फिल्म 'अनाम' (1992), ‘लल्लू’ पर आधारित फिल्म 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' (1996), 'सुहाग से बड़ा' पर आधारित फिल्म 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' (1999) शामिल हैं। अब जाने माने निर्माता-निर्देशक राकेश रोशन, उनके चर्चित उपन्यास ‘कानून का बेटा’ पर आधारित फिल्म 'कारीगर' बना रहे हैं। उनकी कलम से निकलकर पाठकों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले पात्र केशव पंडित की लोकप्रियता का आलम यह रहा कि एकता कपूर ने बालाजी टेलीफिल्म्स के बैनर तले सीरियल के रूप में केशव पंडित को पेश किया।
उपन्यास जगत के साथ बड़े-छोटे पर्दे के लिए लेखन में कुछ अंतर रहा?
काफी अंतर है, सबसे बड़ा अंतर तो यही है कि उपन्यास के लेखन में जो चाहें लिख सकते हैं, लेकिन फिल्म और छोटे पर्दे पर बहुत सी बंदिशें आयद हो जाती हैं।
करीब एक वर्ष पूर्व आए सीरियल और उपन्यास के पात्र केशव पंडित में काफी फर्क महसूस किया गया?
यह फर्क लेखन के अंतर का एक उदाहरण भी है। उपन्यास का केशव पंडित कानून की धाराओं में सुरंग बनाता है, जिसका उद्देश्य कानून का मजाक बनाना नहीं, बल्कि सवाल उठाना है, उनको बेबाकी से पेश करना है। मसलन ‘ए’ की हत्या होती है, जिसमें पुलिस किसी बेगुनाह ‘बी’ को पकड़ लेती है। कोर्ट में पैरवी करके ‘बी’ छूट जाता है। उसके साथ तो इंसाफ हो गया, क्योंकि वो बेगुनाह है, लेकिन ‘ए’ की हत्या किसी ने तो जरूर की है। उसे न्याय कहां मिल पाया। इसके अलावा ट्रेन का सफर करते हुए बेटिकट यात्री के लिए 500 रुपये जुर्माना या कारावास की सजा के प्रावधान पर केशव पंडित का अपना तर्क है। वह कहता है कि जुर्माना देकर छूटने वाले के लिए            यह व्यवस्था एक मजाक है, पकड़ा गया तो जुर्माना थमाकर साफ निकल जाता है, जबकि खाली जेब यात्रा करने वाले ने ऐसा मजबूरी में किया, लेकिन उसकी विवशता ही उसे कारावास ले जाती है। इस तरह के सवाल             उपन्यास का केशव पंडित उठा सकता है, जबकि सीरियल का केशव पंडित एक डिटेक्टिव बना है।
केशव पंडित को दर्शक आगे भी देख पाएंगे?
यह सप्ताह में एक दिन आने वाला धारावाहिक रहा है, जिसके 13 एपीसोड पास हुए थे। इसे केशव पंडित पार्ट-2 के रूप में और बेहतर व प्रभावी ढंग से छोटे पर्दे पर लाने की प्रक्रिया चल रही है।
इस सीरियल का कुछ और लाभ महसूस हुआ?
बिल्कुल, उपन्यास के रूप में केशव पंडित को हिंदी बेल्ट में पढ़ा जाता था, जबकि सीरियल के बाद दूसरे स्थानों पर भी मेरे उपन्यास केशव पंडित के प्रति लोगों की जिज्ञासा बढ़ी है, जिसको देखते हुए मेरे पुत्र शगुन शर्मा ने सर्वाधिक लोकप्रिय रहे उपन्यासों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करके पाठकों तक पहुंचाने का सिलसिला शुरू किया है। जिस पर इन दिनों काम चल रहा है। निकट भविष्य में मेरे उपन्यास हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा में भी बाजार में उपलब्ध होंगे।
आपका अब तक का सबसे ज्यादा लोकप्रिय उपन्यास कौन-सा रहा है?
मेरे द्वारा लिखे हुए उपन्यासों में 'वर्दी वाला गुंडा' की सबसे ज्यादा बिक्री हुई है। इसके पहले एडीशन की 25 लाख प्रतियां बिकीं। इस उपन्यास की मांग लगातार जारी रही है। अब तक यह उपन्यास एक करोड़ से अधिक           बिक चुका है।
यह तो हुई लोकप्रियता की बात, आप खुद की नजर में सबसे अच्छा लेखन किसको मानते हैं?
निसंदेह केशव पंडित। यह श्रृंखला मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। केशव पंडित मेरा सबसे प्रिय किरदार है, जिसे लिखते हुए कई बार मैं खुद भी भावुक          हो जाता हूं।
आगामी उपन्यास 'पैंतरा' को लेकर पाठक काफी उत्सुक हैं, क्या खास होगा उनके लिए?
'पैंतरा' का कथानक फिल्म इंडस्ट्री पर आधारित है। कुछ लोग फिल्म बनाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देते हैं, तो कुछ गुनाह करने से भी नहीं चूकते। फिल्मी दुनिया के यही दोनों रुख नए उपन्यास 'पैंतरा' में पेश किए गए हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि यह उपन्यास न केवल पाठकों का भरपूर मनोरंजन करेगा, बल्कि फिल्मी दुनिया के कुछ अनछुए पहलुओं से भी         रू-ब-रू कराएगा।
उपन्यास लेखन के साथ फिल्म और सीरियल के लिए मुंबई की भागदौड़ के बीच अपने शहर से रिश्ते को किस रूप में देखते हैं।
वहां की जिंदगी अपने शहर से काफी अलग है। यह अहसास तब होता है, जब मेरठ से कुछ दिन बाहर रहता हूं। ऐसा लगता है कि मैं अपनी आत्मा से दूर हो गया हूं। यहां आत्मीयता है, प्रेम है, एक दूसरे के दु:ख-दर्द में शामिल होने की भावनाएं जिंदा हैं, जबकि मुंबई जैसे बड़े शहरों में सब कुछ यांत्रिक लगता है।
मेरठ शहर छोटी-छोटी बातों को लेकर अक्सर संवेदनशील हो जाता है?
पहले ज्यादा था। मेरे एक उपन्यास 'कर्फ्यू' का कथानक मेरठ की संवेदनशील स्थिति से ही जेहन में आया था। वैसे आज लोगों ने अपने शहर के बारे में चिंतन शुरू कर दिया है। पर्दे के पीछे के खेल को समझना सीख लिया है, जिसके अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं और शहर के मिजाज से खिलवाड़ करने वालों के मंसूबों को नाकाम कर दिया जाता है।

71 का जांबाज ब्रिगेडियर रनवीर

  ब्रिगेडियर रनवीर सिंह 1971 (भारत-पाक लड़ाई) के प्रमुख योद्धाओं में रहे हैं। उन्हें इस युद्ध में बहादुरी के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया। उन्होंने फौज में सेकेंड लेफ्टिनेंट, मेजर, लेफ्टिनेंट कर्नल और ब्रिगेडियर तक का सफर तय किया। वह मराठा रेजीमेंट के बहादुर सैनिकों में गिने गए और बहादुरी के लिए विशिष्ट सेवा सम्मान से भी उन्हेंसम्मानित किया गया।
दौराला के धंजू गांव में जन्मे ब्रिगेडियर रनवीर ने 1952 में एनएएस कॉलेज से हाई स्कूल और मेरठ कॉलेज से एमए की पढ़ाई की। अपनी धुंधली यादों में खोकर वह कहते हैं, मैं मेरठ कॉलेज के न्यू ब्लॉक हॉस्टल में रहता था, जहां मेरा कमरा नंबर 108 था। उस दौरान भी मैं कॉलेज का सीनियर मॉनीटर था।  अपने दमखम की वजह से खेलकूद प्रतियोगिताओं में भी जीत दर्ज करता रहा। कॉलेज की एथलेटिक्स टीम का कप्तान रहा और विश्वविद्यालय की कई प्रतियोगिताएं भी जीतीं।
उस समय मेजर श्याम लाल, मेजर माथुर और प्रो एमएल खन्ना आदि नामी शिक्षक  थे। 1956 में ही इंडियन मिलिट्री एकेडमी में मेरा चयन हो गया। मैं मराठा रेजीमेंट में सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर तैनात हुआ। मेरी सेवाओं को देखकर एक के बाद एक मेरा प्रोमोशन होता गया और मैं सेना के लिए उपलब्धियां बटोरता गया। इन्हीं विशिष्ट सेवाओं के तहत मैं लेफ्टिनेंट से मेजर फिर लेफ्टिनेंट कर्नल और ब्रिगेडियर बना। नौकरी के दौरान 1971 में (भारत-पाक लड़ाई में) और मिजोरम में पहली बार चुनाव कराने में मेरी बहादुरी के लिए सरकार की तरफ से दो बार विशेष सम्मान मिला। 1971 में वीर चक्र से देश के राष्ट्रपति वीवी गिरि ने सम्मानित कि या। दोबारा मिजोरम में मेरी सेवाओं के लिए राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अतिविशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया।
वह अपने अतीत में जाकर 1971 की भारत-पाक लड़ाई का जिक्र करते हैं, '' दिसंबर की ठंडक थी, हमारी पल्टन वेस्टर्न सेक्टर, जो राजस्थान का किनारा था, पर थी। पाकिस्तानी फौजें दिन-रात ऊपर से हैलीकॉप्टर से निगरानी कर रहीं थी। बुर्ज और फतेहपुर दो जगहें थीं, जहां पाकिस्तानियों ने कब्जा कर रखा था। हमने उन्हें रातभर थकने का मौका दिया क्योंकि वह जानते थे कि जो हमला होगा वह रात में या तड़के सुबह ही होगा। इस सोच का फायदा उठाकर हमने जब पाकिस्तानी थक गए, तो मौका देख ऊपर के अधिकारियों को सूचित किया।
उस समय कम्युनिकेशन के लिए गिने-चुने ही वायरलेस सेट होते थे, इसलिए पूरी पल्टन के पास एक ही होता था। शर्त यह होती थी कि जो भी बात हो, वह कोड भाषा में हो, लेकिन समय के अभाव को देख हमने खुलकर सीधी भाषा में पूछा कि - क्या हम हमला करें, विरोधी फौज निश्चिंत हो चुकी है, आदेश हुआ और हमने हमला बोल दिया। उनके 54 सैनिक मारे गए बाकी मैदान छोड़ भाग गए, कुछ रावी नदी में डूबकर मर गए। हमारे नौ सैनिक मारे गए, वो भी इसलिए कि उन्होंने टैंकों को उड़ाने के लिए माइन बिछार्इं थीं, जिनकी जानकारी हमें हो ही नहीं पाई। होता यह था कि जो माइन फौजों को उड़ाने के लिए बनाई जाती थीं, वह आसानी से दिख जाती थीं, लेकिन इन माइंस का पता आसानी से नहीं चला। मेरे हाथ में गोली लगी, गोली का खोखा हाथ में फंसा रह गया। खून बुरी तरह से बह रहा था, लेकिन हम लोगों ने उनके सारे बारूद, टैंक और गन कब्जे में ले लिए और जीत हासिल की। बाद में मुझे प्राथमिक उपचार के लिए लाया गया, फिर फौज के छोटे अस्पताल में ले जाया गया। यहां से कई अस्पतालों में आपरेशन के लिए भेजा गया। 6 दिसंबर से 26 जुलाई तक सिर्फ उपचार के लिए कई अस्पतालों में सफर करता रहा। अंत में आपरेशन के बाद मेरा हाथ सही हुआ। हमारी पल्टन में से 1 शहीद को महावीर चक्र से, 5 को वीर चक्र, 6 को सेना मेडल और 2 को सांत्वना पुरस्कार से सम्मानित किया गया।'              - अनूप मिश्र

देखने तक वो आया नहीं

  ओमकार गुलशन किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपनी रचनाशीलता के लिए जाने वाले श्री गुलशन अजीविका के लिए वकालत करते हैं, लेकिन न्याय की दलीलों के बीच भी उनका मन जिंदगी के उसी आदिम न्याय में रमता है, जहां सच एकमात्र सुबूत भी है, और सुकून भी, यानी काव्य की दुनिया। पिछले दिनों वे पक्षाघात के शिकार हुए। साहस के साथ इस बुरे वक्त को भी उन्होंने पछाड़ा। वे बिस्तर छोड़कर बंद कमरों के बाहर फिर कचहरी में फरियादियों की भीड़ से रूबरू हुए। बंद कमरे में भी वे रचनाशील रहे। इस दौरान उन्होंने अपनी काव्यानुभूति को दबने नहीं दिया, बल्कि अधिक मुखर होकर सामने आई। शिद्दत से महसूस किए गए रचनात्मक वक्त के चंद कतरे यहां प्रस्तुत हैं...
  कैसे कह दूं पराया नहीं।
देखने तक वो आया नहीं,  कैसे कह दूं पराया नहीं।
अब्र बरसे मगर बिन तेरे, जाम हमने उठाया नहीं।

जिंदगी है सफर धूप का, दूर तक जिसमें साया नहीं,
हम गुनहगार साबित हुए उनपे इल्जाम आया नहीं।

कीं खताएं तो हमने बहुत, दिल किसी का दुखाया नहीं।
पाके खुशियां न पागल हुए, गम का मातम मनाया नहीं।

जिसपे हमने किया ऐतबार, साथ उसी ने निभाया नहीं,
एक तुम्हारे सिवा और कोई, दिल के गुलशन में छाया नहीं।

देखने तक वो आया नहीं कैसे कह दूं पराया नहीं।
अब्र बरसे बदर बिन तेरे, जाम....
  -ओमकार गुलशन,वरिष्ठ साहित्यकार,मेरठ

विरासत छीज रही

  हर प्रदेश का अपना सांस्कृतिक महत्व होता है, जिसमें रचीबसी होती है, वहां की लोक संस्कृति। आइए जानते हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सांस्कृतिक धरोहरों को जो हमारे अतीत की बानगी हैं। ये वो चीजें हैं जिनमें हम किसी जमाने में रचेबसे थे, हमारी पहचान और सभ्यता का प्रतीक थीं।
  भाषा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कौरवी भाषा के साथ कई क्षेत्रीय भाषाएं बोलचाल में शुमार रहीं हैं। जो लोक संप्र्रेष्णीयता के साथ आत्मीयता की पहचान रहीं। बागपत-बड़ौत और परीक्षितगढ़, मवाना की भाषा अलग है। इसी तरह से गुर्जर समुदाय जो जमुना किनारे, ग्रेटर नोयडा, बुलंदशहर की भाषा क्षेत्रीयता के आधार पर बिल्कुल भिन्न है। बोलचाल की शैली में लहजे में जितनी वैरीएशन है, ये बाकी क्षेत्रों में देखने को नहीं मिलती। बोलचाल में अपभं्रश शब्दों की वजह से आज इसका चलन कम हो गया।  जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उपभाषाएं दम तोड़ रहीं हैं। जरूरत है इसे नई पीढ़ी को समझने की ।
संस्कृति
लोक संस्कृति में पहनावा-वेषभूषा, पारंपरिक भोजन, दैनिक रहन-सहन, लघु उद्योग, तीज-त्योहार आज लगभग गायब हैं। इसकी बड़ी वजह हमने सांस्कृतिक विरासत से छेड़छाड़ की और अपनी क्षेत्रीयता को बिसरा दिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की संस्कृति मिश्रित संस्कृति रही है, जिसमें पूर्व में गंगा-जमुना की तहजीब  पश्चिम में पंजाब, दक्षिण ब्रज की संस्कृति का असर है। इस मिश्रण होने की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पहचान अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। गंगा के ऊपरी भाग के गंगाजमुनी तहजीब, पंजाब और ब्रज की संस्कृति का भी असर शुरू से रहा। लेकिन इस मिश्रण से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पहचान एकदम भिन्न रही।
खानपान
महाभारत के समय से ही यह क्षेत्र ईख प्रधान रहा है। इसलिए गुड़, बूरा  आदि  पारंपरिक भोजन में शामिल रहा। हां प्राय: चावल का उपयोग खानपान ॅँमें नहीं होता, हालांकि उत्पादन है। रोटियों में भिन्नता रही, जिमसें गेहूं, ज्वार, मक्के ,चना और मिश्रित आटे का असर रहा। हर रोटी को बनाने का तरीका एकदम भिन्न है, जिसमें चूल्हा, भट्टी और तंदूर के साथ अब गैस चूल्हे का भी इस्तेमाल होने लगा। हरी सब्जियों के साथ, काली उरद की दाल यहां की पहचान रही, जिसे हांडी में पकाने की विधि आज भी गांवों में  है। पंजाबी छाप होने की वजह से मिस्सी रोटी या मक्के की रोटी सरसों का साग, गुड़ और छाछ के साथ भोजन की थाली आज भी संपूर्ण मानी जाती है।
लोक संस्कृति
बहुत से पारंपरिक तीज-त्योहारों को लोगों ने यहां भी आधुनिक दौर के मुताबिक मनाने का तरीका बदला। गांव में  आज भी ऐसे पारंपरिक पर्व मनाए जाते हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि ये कहीं नहीं मनाया जाता। फुलहेरा दूज पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में आज भी मनाया जाता है। जब बसंत के महीने में फूल बहुतायत में खिलते हैं, तब किशोरियां फूलों को चुनकर घर की दहलीज पर रखकर उल्लास से मनाती हैं और घर के बड़े बुजुर्ग उन्हें दक्षिणा देते हैं। होली गायन जो कभी होली के त्योहार के महीनेभर पहले शुरू होता था, आज नदारद है। हर तीज त्योहारों पर गाए जाने वाले उल्लास के कौरवी भाषा के लोकगीत अब गाने वाले ही नहीं रहे।
संगीत

किसी समय में अजराड़ा तबला और कैराना घराना शास्त्रीय गायन के लिए पहचान रखता था। आखिरी शास्त्रीय तबला वादक उस्ताद निसार खान का भी निधन हो गया। आल्हा गायन, स्वांग की प्रस्तुतियां की परंपरा नदारद है। गायन के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले हुड़का, हारमोनियम, तबला,मटका, ढोलक, चिमटा, सारंगी आज दिखाई ही नहीं देता। हां रागिनी गायन तो कभी-कभार सुनाई देता है, लेकिन स्वांग देखने-सुनने को नहीं मिलता। इसकी बड़ी वजह यहां की संस्कृतिक विरासत को हमने खुद तो संभाला नहीं और न ही सरकारी प्रयास हुए नहीं। क्षेत्रीय समस्याआें, खेती-किसानी और पर्वोँ से जुड़ी गायन की शैलियां, मनोरंजन के अन्य आधुनिक ससांसधनों के आगे टिकी नहीं। नई पीढ़ी अपनी कौरवी संस्कृति से ही भटक गई। बढ़ते मनोरंजन के साधन और फिल्मों में डूबने पर सामाजिक ताना-बाना ढीला हुआ और संस्कृतिक विरासत हाथ से छूटती गई।
पहनावा
 पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोक संस्कृति में पहनावा अलग पहचान रखता है। महिलाएं घेरदार घाघरा- कमीज-साड़ी जिसका पल्लू पीछे से डालने का चलन है। पैरों में जूती,गले में हंसुली, हाथों में कड़े या चूड़ियां, पैरों में लच्छे या कड़ों का इस्तेमाल किया। मध्यम वर्ग में चांदी और संपन्न परिवारों में सोने की ज्वेलरी का चलन रहा। वहीं पुरूषों में धोती-कमीजदार कुर्ता पहना और ढीली पगड़ी बांधने का रिवाज रहा। खेती-किसानी से जुड़े होने की वजह से इन परिधानों को लोगों ने सुविधाजनक माना, लेकिन ये परिधान धीरे-धीरे लुप्त होते गए।
युद्धकला

युद्धकला 'पता' का पारंपरिक चलन रहा है। किसी जमाने में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग हर जगह इस युद्धकला से लोग परिचित थे। आज यह कला लुप्त हो गई है। बड़ौत के  बसौत गांव जो कभी क्रांति के समय अहम भूमिका के लिए जाना जाता है। वहां आज भी युद्ध कला के महारथी मौजूद हैं, वे अस्त्र-शस्त्र और लाठी डंडों  के साथ हैरतअंगेज जोखिमभरी लड़ाई का कौशल जानते हैं।

कर्ण की कर्म स्थली पर ही कर्ण जैसे दानी की तलाश

  पौराणिक, ऐतिहासिक शहर मेरठ में कई प्राचीन धरोहरें अतीत के गवाह हैं। इन्हें पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित कर अच्छी खासी आमदनी जुटाई जा सकती है। इससे इस शहर की पहचान बन चुकी सांस्कृतिक, पौराणिक, ऐतिहासिक विरासत को भी संजोया जा सकता है। इस बार पढ़िए पर्यटन की संभावनाओं की पड़ताल करती अनूप मिश्र की एक रिपोर्ट-
  पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विरासत को संवारने की कवायद  किसी महाभारत से कम साबित होती नहीं दिखती। सांस्कृतिक, ऐतिहासिक स्थलों को संवारने  के लिए 2006-07 में पहली बार मेरठ डेवलपमेंट एथॉरिटी को दो करोड़ रुपए मिले थे। दूसरी बार 2012 में  महाभाारत सर्किट योजना के तहत 50 करोड़ रुपए स्वीकृत हुए हैं। लेकिन इस बार एमडीए को हस्तिनापुर में पर्यटन हब विकसित करने के लिए एक अदद जमीन की तलाश है। जहां अतीत की विरासत को संजोने की पहल की जा सके। रियासत और जायदादों के दान के किस्से भले ही आपको किसी गुजरे जमाने की बात लगती हों, लेकिन एमडीए को आज भी किसी  कर्ण की कर्म स्थली पर ही कर्ण जैसे दानी की तलाश है।  एक ओर धनराशि है, लेकिन जमीन नहीं। दूसरी ओर खंडहर होती विरासत हैं, लेकिन धन नहीं। इसे आप भी गजब की विडंबना कह सकते हैं। कुछ भी हो  पांडव और दानवीर कर्ण को अपनी ही कर्मस्थली पर अपने अतीत से कुछ हिस्से की दरकार है। ताकि दिलों में ही नहीं बल्कि हकीकत में जिंदा रह सके   विरासत। 
        मेरठ को पर्यटन के लिहाज से विकसित करने के लिए महाभारत सर्कि ट योजना बनी थी। इस योजना के तहत कुछ स्थलों के जीर्णोंद्धार के साथ कोशिश हुई, लेकिन   कारगर  नहीं साबित हुई। चूंकि भारत में मेरठ छावनी एक महत्वपूर्ण स्थल रहा है, पूरे भारतीय महाद्वीप में बड़े-बड़े सम्राज्य चाहे वो कुषाण, गुप्त, मौर्य या अन्य काल के रहे हों, किसी न किसी रुप में मेरठ से जुड़े रहे हैं। पाकिस्तान की पर्यटन की साइट पर देखने पर हड़प्पा की मोहनजोदड़ो सभ्यता का जिक्र जरुर मिलता है।
सिंधु सभ्यता का पूर्वी भाग में मेरठ आता है, जिसका जिक्र  सिंधु सभ्यता से लेकर 1857 के विद्रोह तक का उल्लेख इतिहास के पन्नों में दर्ज है। शहर की हेरिटेज जोन सोसाइटी की पहल पर 2002 के दौरान छावनी क्षेत्र में  1857 के ऐतिहासिक स्थलों का जीर्णोंद्धार हुआ, शिलालेख भी लगे।  एनएएस कॉलेज मेरठ के इतिहास विभाग के रीडर डा देवेश शर्मा कहते हैं कि यहां कई सतहों में सभ्यताएं यहां दबी हैं, जिनका समयकाल बेहद प्राचीन है। शहरों के विकसित होने के पहले आदिमानव के अवशेष तक यहां मिले हैं। बागपत के आलमगीर इलाके में लगभग 1000 साल पुराने तराशे हुए हथियार तक मिले हैं।

   जैनधर्म
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने हस्तिनापुर में तपस्या की थी, यहीं उन्होेंने गन्ने का रस पीकर उपवास तोड़ा था। इस घटना का जिक्र जैनधर्म के ग्रंथों में भी है। जैनधर्म के श्वेतांंबर-पीतांबर दोनों समुदाय के हस्तिनापुर में धार्मिक स्थल हैं। जो पुरातनकाल में कई तीर्थंकरों से जुड़ रहे हैं।
 सिंधु सभ्यता
बागपत के आलमगीर, सिनौली इलाके में 5000 साल पुराने सिंधु सभ्यता के अवशेष मिले, जो हड़प्पा सभ्यता से पहले का है। यहां आर्केलॉजिकल सर्वे आॅफ इंडिया ने उत्खनन भी किया।
 रामायण कालीन
गौतमबुद्ध नगर (नोयडा) का बिस्रख गांव, माना जाता है कि रावण के पिता बिसरवा के नाम पर इसका नामकरण हुआ। यहां रावण दहन नहीं होता और इसे रावण गांव के नाम से जाना जाता है। इसी तरह बागपत के एक गांव का नाम रावण गांव है। यहां छठी और सांतवी शताब्दी की भगवान विष्णु की मूर्तियां और स्तंभ मौजूद हैं।
महाभारत कालीन
 हस्तिनापुर भारत के संपन्न राजनीतिक स्थलों में रहा है। कुरु वंश में कुरु परिक्षेत्र दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरियाणा भी इसी कढ़ी में जुड़ते हैं। लेकिन महाभारतकाल से जुड़े ऐतिहासिक स्थलों के अवशेषों का वैज्ञानिक सर्वेक्षण तक नहीं हुआ। एमएम मोदी डिग्री कॉलेज के इतिहास विभाग के रीडर डॉ कृष्णकांत शर्मा कहते हैं कि महाभारत काल का केंद्र हस्तिनापुर था, यह सत्ता का केंद्र थी। भारत में सोलह महाजनपद में कुरु भी था, जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी। यहां विदुर टीले की खुदाई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के निदेशक और पुरातत्व विज्ञानी प्रोफेसर वीबी लाल ने 1950 में की थी। खुदाई में कई सभ्यताओं के अवशेष मिले, जो मोहनजोदड़ो सभ्यता के समकालीन सभ्यता के थे। यह महाभारतकालीन, छठी शताब्दी के महावीर बुद्ध के समय के अवशेष, कुषाण, गुप्त, राजपूत और मुगल काल के थे। मेरठ का नाम मयराष्ट्र होने के बारे में कहा जाता है कि मय दानव कुशल शिल्पी था। जिसने पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) को बनाया। इसके पुरस्कार स्वरुप उसे एक शहर दिया गया, जिसे मयराष्ट्र कहा गया। मेरठ को रावण की पत्नी मंदोदरी की जन्मस्थली भी माना जाता है। जनश्रुति है कि मेरठ शहर में टीलेनुमा पुराना कोतवाली क्षेत्र है, जहां कभी मंदोदरी का महल था और वे यहां से बिल्वेश्वर मंदिर पूजा के लिए जाती थी। 
 अन्य धार्मिक जगहें
 मेरठ में सूरजकुंड के आसपास लगभग 7वीं शताब्दी के मंदिरों के अवशेष मिले। आबू का मकबरा, शाहपीर का मकबरा के अलावा इस्लाम धर्म से जुडेÞ कुछ ऐतिहासिक स्थल शाही ईदगाह है जो लगभग 800 साल पुरानी है। जामा मसजिद भारतीय महाद्वीप की प्राचीन मसजिद है। छावनी का सेंट जोंस चर्च उत्तर भारत में अंग्रेजों का बनाया पहला चर्च है। गढ़मुक्तेश्वर में महाभारतकालीन अवशेष मिले हैं, जिसमें भगवान विष्णु की मूर्तियां भी शामिल हैं। इस स्थल का शिवपुराण में इसका जिक्र है, मान्यता है कि यह जगह इंसान की मुक्ति की कल्पना की पंरपरा बनी। यहां लगभग 8वीं और 9वीं शताब्दी की भगवान विष्णु की मूर्तियां, भगवान परशुराम शैली के प्राचीन शिवलिंग के अवशेष मौजूद हैं। यहां बलराम मंदिर है,जिसमें राजपूत काल की भगवान कृष्ण के भाई बलदाऊ (बलराम) की मूर्ति है। किला परीक्षितगढ़, बागपत, हस्तिनापुर, मेरठ, लोनी, बड़ौत का बड़का गांव  से कुषाण काल की एक गुल्लक में पांच सिक्के और कुषाण काल की र्इंटें भी मिलीं। लोनी रामायण काल में भगवान राम के पुत्र लव के नाम से जुड़ा माना जाता है। किलापरीक्षितगढ़ को अर्जुन तीसरी पीढ़ी के थे,उन्होंने हस्तिनापुर को बाढ़ की वजह से छोड़ा और सुरक्षित स्थान चुना जो किलापरीक्षितगढ़ कहलाया। किलापरीक्षितगढ़ मेंं गुर्जर राजा कर्दम सिंह ने अंगे्रजों के खिलाफ विद्रोह कर मेरठ के उत्तरी भाग को मुक्त कराया था। लगभग 200 साल पुराना कैथोलिकं सरधना का चर्च, हस्तिनापुर को  गुरुगोविंद सिंह के पंज प्यारे धर्म की जन्मस्थलों में माना जाता है, जो लगभग 300 साल पुरानी है।