Sunday, November 4, 2012

विरासत छीज रही

  हर प्रदेश का अपना सांस्कृतिक महत्व होता है, जिसमें रचीबसी होती है, वहां की लोक संस्कृति। आइए जानते हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सांस्कृतिक धरोहरों को जो हमारे अतीत की बानगी हैं। ये वो चीजें हैं जिनमें हम किसी जमाने में रचेबसे थे, हमारी पहचान और सभ्यता का प्रतीक थीं।
  भाषा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कौरवी भाषा के साथ कई क्षेत्रीय भाषाएं बोलचाल में शुमार रहीं हैं। जो लोक संप्र्रेष्णीयता के साथ आत्मीयता की पहचान रहीं। बागपत-बड़ौत और परीक्षितगढ़, मवाना की भाषा अलग है। इसी तरह से गुर्जर समुदाय जो जमुना किनारे, ग्रेटर नोयडा, बुलंदशहर की भाषा क्षेत्रीयता के आधार पर बिल्कुल भिन्न है। बोलचाल की शैली में लहजे में जितनी वैरीएशन है, ये बाकी क्षेत्रों में देखने को नहीं मिलती। बोलचाल में अपभं्रश शब्दों की वजह से आज इसका चलन कम हो गया।  जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उपभाषाएं दम तोड़ रहीं हैं। जरूरत है इसे नई पीढ़ी को समझने की ।
संस्कृति
लोक संस्कृति में पहनावा-वेषभूषा, पारंपरिक भोजन, दैनिक रहन-सहन, लघु उद्योग, तीज-त्योहार आज लगभग गायब हैं। इसकी बड़ी वजह हमने सांस्कृतिक विरासत से छेड़छाड़ की और अपनी क्षेत्रीयता को बिसरा दिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की संस्कृति मिश्रित संस्कृति रही है, जिसमें पूर्व में गंगा-जमुना की तहजीब  पश्चिम में पंजाब, दक्षिण ब्रज की संस्कृति का असर है। इस मिश्रण होने की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पहचान अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। गंगा के ऊपरी भाग के गंगाजमुनी तहजीब, पंजाब और ब्रज की संस्कृति का भी असर शुरू से रहा। लेकिन इस मिश्रण से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पहचान एकदम भिन्न रही।
खानपान
महाभारत के समय से ही यह क्षेत्र ईख प्रधान रहा है। इसलिए गुड़, बूरा  आदि  पारंपरिक भोजन में शामिल रहा। हां प्राय: चावल का उपयोग खानपान ॅँमें नहीं होता, हालांकि उत्पादन है। रोटियों में भिन्नता रही, जिमसें गेहूं, ज्वार, मक्के ,चना और मिश्रित आटे का असर रहा। हर रोटी को बनाने का तरीका एकदम भिन्न है, जिसमें चूल्हा, भट्टी और तंदूर के साथ अब गैस चूल्हे का भी इस्तेमाल होने लगा। हरी सब्जियों के साथ, काली उरद की दाल यहां की पहचान रही, जिसे हांडी में पकाने की विधि आज भी गांवों में  है। पंजाबी छाप होने की वजह से मिस्सी रोटी या मक्के की रोटी सरसों का साग, गुड़ और छाछ के साथ भोजन की थाली आज भी संपूर्ण मानी जाती है।
लोक संस्कृति
बहुत से पारंपरिक तीज-त्योहारों को लोगों ने यहां भी आधुनिक दौर के मुताबिक मनाने का तरीका बदला। गांव में  आज भी ऐसे पारंपरिक पर्व मनाए जाते हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि ये कहीं नहीं मनाया जाता। फुलहेरा दूज पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में आज भी मनाया जाता है। जब बसंत के महीने में फूल बहुतायत में खिलते हैं, तब किशोरियां फूलों को चुनकर घर की दहलीज पर रखकर उल्लास से मनाती हैं और घर के बड़े बुजुर्ग उन्हें दक्षिणा देते हैं। होली गायन जो कभी होली के त्योहार के महीनेभर पहले शुरू होता था, आज नदारद है। हर तीज त्योहारों पर गाए जाने वाले उल्लास के कौरवी भाषा के लोकगीत अब गाने वाले ही नहीं रहे।
संगीत

किसी समय में अजराड़ा तबला और कैराना घराना शास्त्रीय गायन के लिए पहचान रखता था। आखिरी शास्त्रीय तबला वादक उस्ताद निसार खान का भी निधन हो गया। आल्हा गायन, स्वांग की प्रस्तुतियां की परंपरा नदारद है। गायन के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले हुड़का, हारमोनियम, तबला,मटका, ढोलक, चिमटा, सारंगी आज दिखाई ही नहीं देता। हां रागिनी गायन तो कभी-कभार सुनाई देता है, लेकिन स्वांग देखने-सुनने को नहीं मिलता। इसकी बड़ी वजह यहां की संस्कृतिक विरासत को हमने खुद तो संभाला नहीं और न ही सरकारी प्रयास हुए नहीं। क्षेत्रीय समस्याआें, खेती-किसानी और पर्वोँ से जुड़ी गायन की शैलियां, मनोरंजन के अन्य आधुनिक ससांसधनों के आगे टिकी नहीं। नई पीढ़ी अपनी कौरवी संस्कृति से ही भटक गई। बढ़ते मनोरंजन के साधन और फिल्मों में डूबने पर सामाजिक ताना-बाना ढीला हुआ और संस्कृतिक विरासत हाथ से छूटती गई।
पहनावा
 पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोक संस्कृति में पहनावा अलग पहचान रखता है। महिलाएं घेरदार घाघरा- कमीज-साड़ी जिसका पल्लू पीछे से डालने का चलन है। पैरों में जूती,गले में हंसुली, हाथों में कड़े या चूड़ियां, पैरों में लच्छे या कड़ों का इस्तेमाल किया। मध्यम वर्ग में चांदी और संपन्न परिवारों में सोने की ज्वेलरी का चलन रहा। वहीं पुरूषों में धोती-कमीजदार कुर्ता पहना और ढीली पगड़ी बांधने का रिवाज रहा। खेती-किसानी से जुड़े होने की वजह से इन परिधानों को लोगों ने सुविधाजनक माना, लेकिन ये परिधान धीरे-धीरे लुप्त होते गए।
युद्धकला

युद्धकला 'पता' का पारंपरिक चलन रहा है। किसी जमाने में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग हर जगह इस युद्धकला से लोग परिचित थे। आज यह कला लुप्त हो गई है। बड़ौत के  बसौत गांव जो कभी क्रांति के समय अहम भूमिका के लिए जाना जाता है। वहां आज भी युद्ध कला के महारथी मौजूद हैं, वे अस्त्र-शस्त्र और लाठी डंडों  के साथ हैरतअंगेज जोखिमभरी लड़ाई का कौशल जानते हैं।

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