Sunday, November 4, 2012

देखने तक वो आया नहीं

  ओमकार गुलशन किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपनी रचनाशीलता के लिए जाने वाले श्री गुलशन अजीविका के लिए वकालत करते हैं, लेकिन न्याय की दलीलों के बीच भी उनका मन जिंदगी के उसी आदिम न्याय में रमता है, जहां सच एकमात्र सुबूत भी है, और सुकून भी, यानी काव्य की दुनिया। पिछले दिनों वे पक्षाघात के शिकार हुए। साहस के साथ इस बुरे वक्त को भी उन्होंने पछाड़ा। वे बिस्तर छोड़कर बंद कमरों के बाहर फिर कचहरी में फरियादियों की भीड़ से रूबरू हुए। बंद कमरे में भी वे रचनाशील रहे। इस दौरान उन्होंने अपनी काव्यानुभूति को दबने नहीं दिया, बल्कि अधिक मुखर होकर सामने आई। शिद्दत से महसूस किए गए रचनात्मक वक्त के चंद कतरे यहां प्रस्तुत हैं...
  कैसे कह दूं पराया नहीं।
देखने तक वो आया नहीं,  कैसे कह दूं पराया नहीं।
अब्र बरसे मगर बिन तेरे, जाम हमने उठाया नहीं।

जिंदगी है सफर धूप का, दूर तक जिसमें साया नहीं,
हम गुनहगार साबित हुए उनपे इल्जाम आया नहीं।

कीं खताएं तो हमने बहुत, दिल किसी का दुखाया नहीं।
पाके खुशियां न पागल हुए, गम का मातम मनाया नहीं।

जिसपे हमने किया ऐतबार, साथ उसी ने निभाया नहीं,
एक तुम्हारे सिवा और कोई, दिल के गुलशन में छाया नहीं।

देखने तक वो आया नहीं कैसे कह दूं पराया नहीं।
अब्र बरसे बदर बिन तेरे, जाम....
  -ओमकार गुलशन,वरिष्ठ साहित्यकार,मेरठ

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