लगता है आत्मा से दूर हूं_मेरठ के लेखक वेदप्रकाश शर्मा

    हिंदी उपन्यास जगत से लेकर छोटे और बड़े पर्दे तक जासूसी विधा में मेरठ के लेखक वेदप्रकाश शर्मा देश भर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। यह उनकी लेखनी का जादू ही है कि  वर्ग विशेष के पाठकों तक सीमित रहने वाली जासूसी विधा को समाज के हर वर्ग के बीच लोकप्रिय बन गई है। मात्र 15 साल की उम्र से उपन्यास लिखने का सिलसिला शुरू करने वाले इस लेखक का पहला उपन्यास 'दहकते शहर' चार दशक पूर्व 1971 में प्रकाशित हुआ। अब तक 161 उपन्यास लिख चुके वेदप्रकाश शर्मा के चार उपन्यासों पर फिल्में भी बन चुकी हैं। जिनमें ‘बहू मांगे इंसाफ’ पर आधारित फिल्म 'बहू की आवाज' (1985), ‘विधवा का पति’ पर आधारित फिल्म 'अनाम' (1992), ‘लल्लू’ पर आधारित फिल्म 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' (1996), 'सुहाग से बड़ा' पर आधारित फिल्म 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' (1999) शामिल हैं। अब जाने माने निर्माता-निर्देशक राकेश रोशन, उनके चर्चित उपन्यास ‘कानून का बेटा’ पर आधारित फिल्म 'कारीगर' बना रहे हैं। उनकी कलम से निकलकर पाठकों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले पात्र केशव पंडित की लोकप्रियता का आलम यह रहा कि एकता कपूर ने बालाजी टेलीफिल्म्स के बैनर तले सीरियल के रूप में केशव पंडित को पेश किया।
उपन्यास जगत के साथ बड़े-छोटे पर्दे के लिए लेखन में कुछ अंतर रहा?
काफी अंतर है, सबसे बड़ा अंतर तो यही है कि उपन्यास के लेखन में जो चाहें लिख सकते हैं, लेकिन फिल्म और छोटे पर्दे पर बहुत सी बंदिशें आयद हो जाती हैं।
करीब एक वर्ष पूर्व आए सीरियल और उपन्यास के पात्र केशव पंडित में काफी फर्क महसूस किया गया?
यह फर्क लेखन के अंतर का एक उदाहरण भी है। उपन्यास का केशव पंडित कानून की धाराओं में सुरंग बनाता है, जिसका उद्देश्य कानून का मजाक बनाना नहीं, बल्कि सवाल उठाना है, उनको बेबाकी से पेश करना है। मसलन ‘ए’ की हत्या होती है, जिसमें पुलिस किसी बेगुनाह ‘बी’ को पकड़ लेती है। कोर्ट में पैरवी करके ‘बी’ छूट जाता है। उसके साथ तो इंसाफ हो गया, क्योंकि वो बेगुनाह है, लेकिन ‘ए’ की हत्या किसी ने तो जरूर की है। उसे न्याय कहां मिल पाया। इसके अलावा ट्रेन का सफर करते हुए बेटिकट यात्री के लिए 500 रुपये जुर्माना या कारावास की सजा के प्रावधान पर केशव पंडित का अपना तर्क है। वह कहता है कि जुर्माना देकर छूटने वाले के लिए            यह व्यवस्था एक मजाक है, पकड़ा गया तो जुर्माना थमाकर साफ निकल जाता है, जबकि खाली जेब यात्रा करने वाले ने ऐसा मजबूरी में किया, लेकिन उसकी विवशता ही उसे कारावास ले जाती है। इस तरह के सवाल             उपन्यास का केशव पंडित उठा सकता है, जबकि सीरियल का केशव पंडित एक डिटेक्टिव बना है।
केशव पंडित को दर्शक आगे भी देख पाएंगे?
यह सप्ताह में एक दिन आने वाला धारावाहिक रहा है, जिसके 13 एपीसोड पास हुए थे। इसे केशव पंडित पार्ट-2 के रूप में और बेहतर व प्रभावी ढंग से छोटे पर्दे पर लाने की प्रक्रिया चल रही है।
इस सीरियल का कुछ और लाभ महसूस हुआ?
बिल्कुल, उपन्यास के रूप में केशव पंडित को हिंदी बेल्ट में पढ़ा जाता था, जबकि सीरियल के बाद दूसरे स्थानों पर भी मेरे उपन्यास केशव पंडित के प्रति लोगों की जिज्ञासा बढ़ी है, जिसको देखते हुए मेरे पुत्र शगुन शर्मा ने सर्वाधिक लोकप्रिय रहे उपन्यासों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करके पाठकों तक पहुंचाने का सिलसिला शुरू किया है। जिस पर इन दिनों काम चल रहा है। निकट भविष्य में मेरे उपन्यास हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा में भी बाजार में उपलब्ध होंगे।
आपका अब तक का सबसे ज्यादा लोकप्रिय उपन्यास कौन-सा रहा है?
मेरे द्वारा लिखे हुए उपन्यासों में 'वर्दी वाला गुंडा' की सबसे ज्यादा बिक्री हुई है। इसके पहले एडीशन की 25 लाख प्रतियां बिकीं। इस उपन्यास की मांग लगातार जारी रही है। अब तक यह उपन्यास एक करोड़ से अधिक           बिक चुका है।
यह तो हुई लोकप्रियता की बात, आप खुद की नजर में सबसे अच्छा लेखन किसको मानते हैं?
निसंदेह केशव पंडित। यह श्रृंखला मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। केशव पंडित मेरा सबसे प्रिय किरदार है, जिसे लिखते हुए कई बार मैं खुद भी भावुक          हो जाता हूं।
आगामी उपन्यास 'पैंतरा' को लेकर पाठक काफी उत्सुक हैं, क्या खास होगा उनके लिए?
'पैंतरा' का कथानक फिल्म इंडस्ट्री पर आधारित है। कुछ लोग फिल्म बनाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देते हैं, तो कुछ गुनाह करने से भी नहीं चूकते। फिल्मी दुनिया के यही दोनों रुख नए उपन्यास 'पैंतरा' में पेश किए गए हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि यह उपन्यास न केवल पाठकों का भरपूर मनोरंजन करेगा, बल्कि फिल्मी दुनिया के कुछ अनछुए पहलुओं से भी         रू-ब-रू कराएगा।
उपन्यास लेखन के साथ फिल्म और सीरियल के लिए मुंबई की भागदौड़ के बीच अपने शहर से रिश्ते को किस रूप में देखते हैं।
वहां की जिंदगी अपने शहर से काफी अलग है। यह अहसास तब होता है, जब मेरठ से कुछ दिन बाहर रहता हूं। ऐसा लगता है कि मैं अपनी आत्मा से दूर हो गया हूं। यहां आत्मीयता है, प्रेम है, एक दूसरे के दु:ख-दर्द में शामिल होने की भावनाएं जिंदा हैं, जबकि मुंबई जैसे बड़े शहरों में सब कुछ यांत्रिक लगता है।
मेरठ शहर छोटी-छोटी बातों को लेकर अक्सर संवेदनशील हो जाता है?
पहले ज्यादा था। मेरे एक उपन्यास 'कर्फ्यू' का कथानक मेरठ की संवेदनशील स्थिति से ही जेहन में आया था। वैसे आज लोगों ने अपने शहर के बारे में चिंतन शुरू कर दिया है। पर्दे के पीछे के खेल को समझना सीख लिया है, जिसके अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं और शहर के मिजाज से खिलवाड़ करने वालों के मंसूबों को नाकाम कर दिया जाता है।

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