Sunday, September 11, 2011

जिंदगी की जद्दोजहद में बिखरे सपने

जिंदगी हम तुझको मनाने निकले, हम भी किस दर्जा दीवाने निकले
कुछ तो थे दुश्मन मुखालिफ शफ़ में, कुछ मेरे दोस्त पुराने निकले ।
मशहूर शायर गालिब का यह शेर जिंदगी के झंझावातों से टूट चुकी सेंट जोंस की शिक्षिका दीपा सक्सेना पर सटीक बैठता है। एक ऐसी लड़की जिसने हमेशा संघर्ष किया, लेकिन आखिरकार जीवन की जद्दोजहद में उसके सपने बिखर गए। जिंदगी के सफर में एक मोड़ पर वह इस कदर टूटीं कि विक्षिप्तता की कगार पर पहुंच गर्इं। दीपा सक्सेना सोफिया गर्ल्स कॉलेज की अव्वल छात्रा रहीं हैं, इतना ही नहीं वह विश्वविद्यालय की गोल्डमेडिलिस्ट भी रहीं हैं। एमए भूगोल विषय से किया और विश्वविद्यालय में अपने विषय की टॉपर रहीं। जिस मां के लिए अपना घर नहीं बसाया, वह भी उनकी जिंदगी से अलग हो गर्इं। रहे सहे उनके अपनों ने सदर में मौजूद अपनी बेशकीमती जमीनों को बेचकर किनारा कर लिया।
 अगर आप शहर में सदर इलाके से गुजर रहें हैं, तो आपकी नजर इमारतों की दीवारों पर लिखी दीपा की इबारतों पर पड़ ही जाएगी। शायद ही कोई दीवार हो जिस पर दीपा ने अपनी व्यथाओं को न लिखा हो। इस लिखावट को पढ़ते ही कोई भी संवेदनशील शख्स अनायास ही इन इबारतों से जुड़ जाएगा। संघर्षों की दास्तां पढ़ते ही जिंदगी के झंझावातों की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है। गहराई में जाने के बाद यह पता चल जाता है कि यह जिंदगी के उतार-चढ़ाव में टूट चुकी लड़की की कहानी है। हो सकता है कि वह किसी दीवार या सड़क के चबूतरे पर अपनी व्यथा उकेरते हुए दिखाई भी दे जाए, लेकिन पलभर में अपनी दुनियादार चिंता बघारते हुए हर कोई आगे बढ़ जाता है। ऐसा नहीं कि यह किसी एक शख्स की दुनियादार चिंता भरी प्रतिक्रिया हो, पिछले एक दशक से इस जगह से गुजरने वाले हर शख्स की यही प्रतिक्रिया है। यह प्रतिक्रिया है एक चिंतनशील समाज की, जहां स्त्री-विमर्श, नारी सशक्तिकरण और महिला अधिकारों के लिए बड़े-बड़े मंचों पर चिंतन किया जाता है।
जिन छात्रों को उन्होंने कलम पकड़कर आगे बढ़ना सिखाया, वह युवा भी अपनी दुनिया में मस्त हैं। उनकी अपनी दुनियादार व्यस्तताएं हैं, उन्हें इधर देखने का वक्त भी नहीं है। जिंदगी की बैचेनी में विक्षिप्त हो चुकी दीपा जब इस हालत में पहुंची, तो उनके करीबियों ने भी पल्ला झाड़ लिया। वह अपने अतीत से जुड़ी जगहों पर अक्सर पहुंच जाया करतीं हैं, जहां से उनका गहरा जुड़ाव रहा है। उनकी सहयोगी सेंट जोंस की शिक्षिका सुनीता चावला कहती हैं कि दीपा अपनी मां की इकलौती संतान रहीं हैं। वह यहां अध्यापन किया करती थीं, खासकर वह भूगोल में महारत रखतीं थीं। 1990 तक उन्होंने यहां पढ़ाया, लेकिन मां के बीमार होने पर उन्होंने कॉलेज से इस्तीफा दे दिया। उनके साथ जिंदगी को आगे बढ़ाने के लिए शादी का फैसला न लेना, असुरक्षा की भावना की वजह से था। जिम्मेदारियों और असुरक्षा की वजह से वह न खुद को मां से अलग कर पार्इं और न मां उन्हें खुद से। संयुक्त परिवार के शुरुआती समय में अपना बचपन गुजारने वाली दीपा मां के निधन के बाद अकेली हो गर्इं। उनके पिता का पहले ही निधन हो गया था, वह बेहद अकेलापन महसूस करती थीं।
उनका विक्षिप्तता के कगार पर पहुंचने का कारण कोई नया नहीं दिखता। दीवारों पर लिखी दीपा की इबारतों में साफ झलकता है कि महिलाएं अपने को आधुनिक दौर में भी बेसहारा और असुरक्षित समझती हैं।  यह चिंतन अकेले दीपा का ही नहीं, लगभग हर बेसहारा महिला का है। अपने आसपास के माहौल में शायद दीपा को कुछ ऐसा मिला ही नहीं, जिससे उनका मनोबल बढ़ता। दीवारों पर लिखे उनके अतीत से जुड़े मंजरों को देखकर साफ पता चलता है कि वह जिंदगी के परेशानियों में किस कदर अपनी मां के साथ और मां के न रहने के बाद भी अकेले लड़ती रहीं।
उनके छात्र रह चुके दिनेश चुग कहते हैं कि मैंने इनसे पढ़ा है, वह मुझे सेंट जोंस स्कूल में भूगोल विषय पढ़ाती थीं। शहर का इतना महत्वपूर्ण शख्स इस हालत में सड़कों पर घूम रहा है और लोग अनदेखी कर रहे हैं, यह संवेदनहीनता नहीं तो क्या है। आज इतने साल हो गए, किसी ने आज तक इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। उनके करीबी इतने सारे छात्र, शिक्षक, पारिवारिक सदस्य और प्रशासनिक रवैये को देखकर साफ पता चलता है कि हम संवेदनहीन हो गए हैं।

No comments:

Post a Comment