मेरठ,
जिंदगी में मंजिल पाने की छटपटाहट हर किसी में होती है। सपनों को आकार देने के लिए वह हमेशा जी तोड़ संघर्ष भी करता है। बेहतर भविष्य के लिए वह अक्सर संसाधनों के अभाव में भी वह जूझता है, विपरीत परिस्थितियों में अपना संघर्ष जारी रखता है, लेकिन सपनों की इस मंजिल के करीब पहुंचकर वह अक्सर टूटकर हालातों से समझौता कर लेता है। क्योंकि अपनी मंजिलों के नजदीक पंहुचने पर उसके हाथ से समय निकल चुका होता है। लेकिन जिंदगी में मंजिल तक का सफर पूरा न कर पाने की कसक मन में लिए रहता है। लेकिन अपने हुनर का हमेशा सटीक इस्तेमाल करते हुए अपने जैसे लोगों की जिंदगियों में वह उन कमियों को दूर करने की भरसक कोशिश करता है।
इंसान अपनी मंजिल को पाने में अक्सर हालातों से टूट जाता है, जो इन हालातों में भी नहीं टूटता वह जिंदगी की उन मंजिलों को पा लेता है। युवाओं की सपनों की यह दुनिया बेहद रंगीन होती है, लेकिन मुकाम हासिल न होने पर वह दूसरे की जिंदगी में रंग भरने की कोशिश करता है जो सलाम के लायक होती है। वह चाहे युवाओं की सपनों की कोई दुनिया क्यों न हो। ऐसे ही शहर की खेल की दुनिया का खेल निराला है, यहां शरीर का दमखम मैदानों पर तो सुनहरा नजर आता है। लेकिन जिंदगी के मैदान में उनका खेल बिगड़ जाता है। हमारे शहर में कुछ ऐसे प्रतिभावान खिलाड़ी हैं, जिन्होने दुनिया में शहर का परचम तो लहराया लेकिन अपनी मंजिल के करीब होकर पा नहीं सके। चाहे वह खेल की कोई भी विधा रही हो हर युवा खिलाड़ी अपनी ऊर्जा के साथ राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में तो सफल प्रदर्शन करता रहा। मंजिल के अखिरी पड़ाव में आकर हालातों से टूट गया। और ऐसे रास्तों में वह थका नहीं बल्कि अपने आगे की पीढ़ी के खिलाड़ियों में वह ध्यान रखकर नित-नये गुर परोस रहा है कि कहीं वह भी अपनी मंजिल को पाने में न चूक जाए। हमारे शहर में खेल की दुनिया में अपने जमाने में उम्दा प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों ने भले अपनी मंजिल न पाई हो, लेकिन मैदान अभी भी नहीं छोड़ा। जैसे वह आज भी सपनों के मैदान में फर्राटे भर रहें हों। वह आंख खोलकर रोजाना आज भी पहले की तरह मैदान पर दिखते हैं। नई पीढ़ी के खिलाड़ियों के साथ मैदान में कंधे से कंधा मिलाकर पसीना बहाते हैं। कि कहीं कोई कमी उनके जैसी इनमें न रह जाए।
बृजकिशोर वाजपेई, एथलेटिक्स
उपक्रीड़ा अधिकारी, कैलाश प्रकाश स्पोर्टस स्टेडियम
लखनऊ के बृजकिशोर वाजपेई कैलाश प्रकाश स्पोर्टस स्टेडियम में उप क्रीड़ा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। वह अपने जमाने के राष्ट्रीय स्तर के हरफनमौला खिलाड़ी रहें हैं। इनके पिता स्व राधेश्याम वाजपेई हॉकी के बेहतरीन खिलाड़ी थे। वह कहते हैं कि उन्ही से खेल के प्रति रुझान हुआ, उनमें अच्छे खिलाड़ी पैदा करने का जज्बा था,उन्होने अपने जमाने में बहुतों को हॉकी के गुर सिखाए। पिता के तबादलों के साथ बचपन से कई जगहों पर वह जाते रहे, लेकिन खेलना बंद नही किया। बाराबंकी में क क्षा 6 में गए और हाई स्कूल तक स्कूली प्रशिक्षण के दौरान फुटबाल, हॉकी, एथलेटिक्स और क्रिकेट आदि खेलों में हाथ अजमाते रहे। वह अपने समय में संबंधित स्कूल की टीमों में उम्दा खेल की वजह से कप्तान रहे। कई खेलों में हाथ अजमाने के बाद वह लखनऊ वापस पहुंचे, जहां शिशुपाल सिंह जैसे एथलेटिक्स कोच मिले। जिनसे मिलने के बाद एथलेटिक्स में एकाग्र हुए। शायद तब देर हो चुकी थी, लेकिन जज्बा इतना कि वह यहां भी प्रशिक्षण पाकर अपने दमखम के बूते राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शामिल हुए। यहां विश्वविद्यालयी प्रतिायोगिताओं में सफल प्रदर्शन कर कईमेडल जीते। बृजकिशोर कहते हैं कि मैं खेल के साथ पढ़ाई में भी अव्वल रहा, मैने खेल के साथ बीए, एलएलबी और बीपीएड तक की पढ़ाई की। इसके बाद एनआईएस के प्रशिक्षण के लिए चंडीगढ़ से खेल प्रशिक्षक की पढ़ाई की और पहली बार इलाहाबाद में सहायक प्रशिक्षक के पद पर तैनात हुआ।
अपने सफल खिलाड़ी होने के बावजूद आगे न बढ़ पाने की वजह सिर्फ सही दिशा निर्देश न मिलना बतातें हैं। वह कहते हैं कि पहले इतने संसाधन भी नहीं थे, न खेल का मैदान न कोई सटीक प्रशिक्षक लेकिन फिर भी जितना कर सका किया। मुझे कोई बताने वाला नहीं था कि भाई तुम इस खेल में अच्छा खेल सकते हो। खेलों के प्रति पहले कोई एक मानक नहीं था, अगर एक विधा में खेल गए तो ठीक । मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ, लेकिन मैं लगातार खेला इसीलिए कई खेलों में उपलब्धि हासिल कर सका। हर भारतीय खिलाड़ी की तरह मेरे साथ भी वही हुआ जो हमेशा होता है, आजीविका और जिम्मेदारियों के चलते आगे नही खेल सका। इलाहाबाद और बुलंदशहर में सहायक प्रशिक्षक, मेरठ में उप क्रीड़ा अधिकारी हूं यही मेरी उपलब्धि है। रोजाना हर खिलाड़ी में ध्यान रखता हूं कि कहीं कोई बृज किशोर की तरह सटीक प्रशिक्षण से न वंचित रह जाए।
जबर सिंह, कुश्ती प्रशिक्षक
सरधना के कालंदी गांव में जन्मे जबर सिंह कुश्ती के राष्ट्रीय खिलाड़ी रह चुके हैं। जिंदगी के 6 दशक पूरे कर चुके, जबर सिंह कहते हैं कि उन्होने गांव के इंटर कॉलेज से इंटर की पढ़ाई की। इसके बाद आगे की पढ़ाइ्र मेरठ कॉलेज से की। उन्होने खेल के साथ 1987 में मेरठ कॉलेज में दाखिला लिया। यहां एमए तक शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद नोयडा से बीपीएड, एमपीएड और पीएचडी भी की।
वह कहते हैं कि कुश्ती के गुर सीखने का समय बाद में आया लेकिन बचपन में ही माछरा में अपने बड़े भाई राजवीर सिंह को व्यायाम करते देख मैं भी करता था। 1976 में जब मेरठ कॉलेज आया तो यहां मुझे प्रशिक्षक के रुप में डीएस सूर्यवंशी मिले, जिनसे मैने कुश्ती के गुर सीखे। यहां पूरी तरह से पहलवान बन गया, आगे यहीं से जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय स्तरीय प्रतियोगिताओं में सफल प्रदर्शन करता रहा। 1978 में शिमला में आयोजित सीनियर नेशनल रेसलिंग चैम्पियनशिप में शामिल हुआ। इसके बाद इलेक्ट्रिकसिटी बोर्ड में नौकरी मिली तो यहां भी कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सफल प्रदर्शन किया। यहां रहकर आल इंडिया इलेक्ट्रिक सिटी बोर्ड द्वारा राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भेजा गया। इस प्रतियोगिता में मैने गोल्ड भी जीता। उस समय खेलों के प्रति इतना रुझान नही था, इसलिए प्रशिक्षक भी कम मिलते थे। जीविका और परिवार की जिम्मेदारियां जो युवाओं के सामने होती हैं, वह मेरे सामने भी थीं। इसलिए एनआइएस की ट्रेनिंग करी। 1983 में एनआइएस की पढ़ाई पूरी कर विश्वविद्यालय में कुश्ती प्रशिक्षक के रुप में तैनात हुआ। हां सुविधाएं और संसाधन होते तो शायद कुछ और करता, लेकिन समय के गुजरते ही मेरे हाथ से भी समय निकल गया। सो आज अपने सामने हर खिलाड़ी को कुश्ती के गुर बांटता रहता हूं। आज 25 खिलाड़ी रोजाना मुझसे प्रशिक्षण ले रहें हैं। जिनमें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक सफलता हासिल कर चुकें हैं।
प्रदीप चिन्योटी, हॉकी प्रशिक्षक
शहर के हॉकी खिलाड़ी प्रदीप चिन्योटी अस्सी के दशक के धुआंधार हॉकी खिलाड़ियों में शुमार किए जाते थे। उनका बचपन से खेलों के प्रति रुझान रहा, वह शुरुआती पढ़ाई के दौरान राम सहाय कॉलेज में एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में दमखम अजमाते रहे। इसके बाद वह बीएवी कॉलेज और एनएएस कॉलेज से हॉकी खेल कर कई जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय और अन्तरविश्वविद्यालयी प्रतियोगिताओं में सफल प्रदर्शन करते रहे।
1986 में लखनऊ से बीपीएड की पढ़ाई करने के बाद खेलते रहे। इसके बाद एमपीएड उन्होने किया। जीविका और परिवारिक जिम्मेदारियों के चलते एनआइएस की ट्रेनिंग कर सीधे प्रशिक्षक के रुप में एनएएसस कॉलेज में हॉकी प्रशिक्षक के रुप में तैनात हुए। वह कहते हैं कि मेरे समय में भारतीय हॉकी टीम सुर्खियों में थी। मेरठ में हॉकी के लिए लहर थी, सो मैने भी खेला। उस समय विक्रम सिंह त्यागी मेरे खेल प्रशिक्षक थे, उनसे हॉकी की बारीकियां सीखीं। लेकिन सीमित संसाधन में खेलना, बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से नौकरी की तरफ ध्यान लगाया। बाद में पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ी तो आय ही चारा बनी। आज रोजाना सुबह शाम शहर के खिलाड़ियों को हॉकी को सीखे हुए गुर सिखाता हूं। यहां कई राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी निकले हैं, जिन्होने मेरठ का नाम रोशन किया है।
मनीष शर्मा, वुशू, एडहॉक प्रशिक्षक कैलाश प्रकाश स्टेडियम
लखनऊ में जन्मे मनीष शर्मा मेरठ के प्रतिभावान वुशू खिलाड़ी रहें हैं। बचपन में मार्शल आर्ट की फिल्मों से प्रभावित होकर उन्होने कराटे सीखना शुरु किया। लखनऊ की ड्रेगन अकादमी में कराटे और बाक्सिंग सीखने के बाद वुशू खेल के प्रति आकर्षित हुए। पढ़ाई के दौरान स्कूल-क ॉलेज स्तर पर कई प्रतियोगिताएं भी जींती। लखनऊ से ही बीपीएड करने के बाद एनआइएस की ट्रेनिंग कर कैलाश प्रकाश स्टेडियम में वुशू के एडहॉक प्रशिक्षक के रुप में तैनात हैं।
शुरु में 1999 नेशनल वुशू प्रतियोगिता, 2000 में दिल्ली में आयोजित वुशू की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में और जमशेदपुर में 2001 में राष्ट्रीय प्रतियोगिता में मेडल जीते। इसके बाद साऊथ एशियन चैम्पियनशिप में राष्ट्रीय रैंकिग में रहे। तकरीबन बीस राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उपलब्धियां दर्ज कराते हुए, सिल्वर, ब्रोंच और गोल्ड मेडल जीतकर मेरठ का नाम रोशन किया। वह कहते हैं कि खेल के अभ्यास के दौरान घुटने में चोट आने पर दोबारा उसी दमखम से नहीं खेल पाए। सीमित संसाधन और वुशू के विकास न होने पर कड़ा संघर्ष करना पड़ा। फिर उम्र बीतने के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों बढ़ती गर्इं और फिर उसी ऊर्जा के साथ नहीं खेल पाया। आज अपने समय रहते संसाधनों के अभाव में खेल की कमियों को ध्यान में रखकर 40 खिलाड़ियों को रोजाना वुशू के गुर सिखाता हूंं।
विपिन वत्स, क्रिकेट प्रशिक्षक
पूर्व रणजी ट्राफी, सीके नायडू, वेटरन ट्राफी, विल्स ट्राफी, देवधर ट्राफी और दिलीप ट्राफी में अपनी धुआंधार बैटिंग की वजह से जाने गए विपिन वत्स खेल की दुनिया में नया नाम नही हैं। मेरठ के विपिन वत्स रोजाना विक्टोरिया पार्क में नये क्रिकेटरों के साथ पसीना बहाते नजर आ जाएंगे।
विपिन मेरठ बीएवी कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज से पढ़ाई कर। स्पोर्टस हास्टल कानपुर में क्रिकेट के प्रशिक्षण के लिए रहे। तीन साल बाद वह 1979 से 1982 तक मोहन मिकिंस गाजियाबाद की तरफ से क्रिकेट खेलकर कई प्रतियोगिताएं में सफ लता दर्ज की। 1982 में देश की नामी क्रिकेट प्रतियोगिताओं में उम्दा कीपिंग और बैटिंग के लिए जाने गए। वह हमेशा ओपनर बैट्समैन के रुप में उतारे गए और धुआंधार बैंटिग से सफल प्रदर्शन करते रहे। वह कहते हैं कि 1991 में न्यूजीलैंड के दौरे पर जाने वाली क्रिकेट टीम में चयन के विसंगतियों की वजह से शमिल नहीं हो पाए। अपने प्रशिक्षकों के नामों में वह शुरुआत में जीआर गोयल कानपुर में, केके गौतम, तारिक सिन्हा, अरुण भारद्वाज, डीसी कश्यप और कर्नल एमओ अधिकारी को बताते हैं। वह कहते हैं कि समय-समय पर हर प्रशिक्षक से क्रिकेट की बारीकि यां सीखता रहा। अंतर्राराष्ट्रीय स्तर पर वीसीसीआई और नेशनल क्रिकेट अकादमी में रहा। यूपी जूनियर क्रिकेट टीम और रणजी ट्राफी के चयनकर्ताओं में रहा।
वह कहते हैं कि 1992 से क्रिकेट की आगे की प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं लिया। जब खिलाड़ी शिखर पर होता है तो उसके लिए सटीक निर्णय उसका भविष्य बनाता और बिगाड़ता है। इसलिए खासतौर पर सुर्खियों में रहने वाले खेलों में एहतियात चाहिए, वह भी क्रिकेट में देश का सबसे चर्चित खेल भी होना इसकी वजह है। पिछले 14 साल से मेरठ में हर बार एक नया क्रिकेटर निकालता हूं, जिसमें वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक जाता है। प्रवीन कुमार, सुदीप त्यागी, भुवनेश कुमार, गौरव गोयल, उमंग शर्मा, मो खालिद, सुनील यादव, उदित मुदगल और आशीष शर्मा जैसे कई खिलाड़ी इस मैदान से क्रिकेट की बारीकि यां सीख उम्दा प्रदर्शन कर चुकें हैं। आज तक लगभग सौ क्रिकेटर तो रहें ही हैं, जिन्होने मुझसे सीखकर जा चुके हैं। आज भी दस ग्रुपों में दस प्रशिक्षकों द्वारा क्रि केट की बारीकियां सिखाई जातीं हैं। यहां रोजाना सुबह और शाम को प्रशिक्षण के लिए डेढ़ सौ बच्चे आते हैं, जिनमें आठ साल की उम्र से लेकर बड़े बच्चे तक क्रिकेट के गुर सीख रहें हैं।
अनंत शिवेंद्र प्रताप सिंह, स्वतंत्र शूटिंग कोच
सरधना के कालिंदी गांव के अनंत शिवेंद्र अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के शूटिंग खिलाड़ी हैं। मेरठ पब्लिक स्कूल मेरठ से बारहवीं कर सेंट स्टीफन कॉलेज दिल्ली से एमएससी की पढ़ाई कर रहें हैं। वह कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शूटिंग प्रतियोगिताओं में सफल प्रदर्शन कर तमगे हासिल कर चुकें हैं।
वह कहते हैं कि जब वह सात साल के थे तो अपने पिताजी को शूटिंग प्रशिक्षण देते हुए देखते थे। शुरु में शौक के चलते शूटिंग करने की कोशिश एक दिन जुनून में बदल गई। जब सात साल की उम्र में ही, पिता के साथ पजांब में नेशनल जूनियर शूटिंग प्रतियोगिता में भाग लेने पंहुच गए।
यहां पहली बार में खास उपलब्धि नहीं मिली, क्योंकि पहली बार प्रतियोगिता के सही मायने नही मालूम थे। प्रतियोगिता में अनजाने से भाग लेना और अन्य लोगों के सामने असफल होना। उन्हे मात्र सात साल की उम्र में चुनौती के रुप में लिया। इसके बाद वह लगातार अभ्यास में जुट गए और कई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सफलता दर्ज कर तमगे झटके। तमाम राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उन्होने 77 मेडल हासिल किए जिसमें 50 गोल्ड और 15 सिल्वर और ब्रोंच शामिल हैं।
वह कहते हैं कि उन्होने खेल के अभ्यास के साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। जिसमें वह हमेशा सफल छात्र भी रहे। उन्हे अपने उम्दा खेल प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय स्तर की कई कंपनियों से नौकरी के प्रस्ताव भी आए कि वह उनके लिए खेलें। लेकिन वह अभी और खेलना चाहते हैं, कहतें हैं कि सफलता का कोई चरम नही होता जितना मिले भूख बढ़ती है। अभी आगे और अच्छा प्रदर्शन करना है। फिलहाल वह शहर के सबसे कम उम्र के खेल प्रशिक्षक हैं, जो रोजाना शूटिंग के खिलाड़ियों को गुर बांटने निकल पड़ते हैं।
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