Sunday, September 11, 2011

ब्रिगेडियर आरके सिंह, महावीर चक्र विजेता


मेरठ वीर भूमि रही है यहां क्रांतिकारियों के अलावा सैनिकों ने लड़ाई में बहादुरी के जौहर दिखाए। 1971 की लड़ाई में महावीर चक्र विजेता आरके सिंह दौराला के भरौटा के किसान परिवार में जन्में। उनके पिता देवी सिंह ठाकुर स्वतंत्रता सेनानी रहें हैं, बचपन से पिता की इच्छा थी कि उनका बेटा देश की सेवा करे। क्योंकि देवी सिंह को उनके पिता ने बड़े पुत्र होने के नाते फौज में नहीं जाने दिया, लेकिन उन्होंने देश के  स्वतंत्रता आंदोलन में लगातार हिस्सा लिया। उनकी इस इच्छा को पूरा किया, उनके पुत्र आरके सिंह ने।
वह बारहवीं में एनएस कॉलेज की पढ़ाई ही कर रहे थे कि एनडीए की प्रवेश परीक्षा में बैठ गए। पढ़ने और देश के लिए कुछ करने की तमन्ना के चलते उनको एनडीए की प्रवेश परीक्षा में सफलता मिली और 1950 में देहरादून के सिविल सर्विसेज विंग में गए। यहां उन्होंने अपनी ट्रेनिंग पूरी की और 1954 में पंजाब रेजीमेंट ज्वाइन किया। यहां ट्रेनिंग के दौरान बहुत से महत्वपूर्ण कोर्स कराए गए। उनके बेहतर परफॉर्मेंस को देखते हुए उन्हें यूनाइटेड नेशन में कांगों जाने का अवसर दिया गया। 1965 में उन्होंने स्टाफ कॉलेज प्रतियोगिता वैलिंग्टन के लिए परीक्षा उर्त्तीण की। उन्हें 14 पंजाब लांइस में कलकत्ता भेजा गया। यहां उनको पहली बार अपनी ड्यूटी के दौरान खास मिशन सौंपा गया, जिसमें कलकत्ता के चुनाव शांतिपूर्वक कराने के लिए प्रशंसा मिली, उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं।
    21 नवंबर,1971 में उन्हें मुजुबुरहमान और भुट्टों के विवाद के दौरान उनकी बटालियन को बार्डर पर भेजा गया। जिसमें बंगलादेश और पाकिस्तान के किनारे कोबाडक नदी पार करना चुनौती थी। वह कहते हैं कि इस नदी की गहराई 30 मीटर और चौड़ाई 40 मीटर थी, किनारों पर बड़ी-बड़ी घास और दलदल था। इस मिशन के लिए इंदिरा गांधी पहले ही फौज भेजना चाहतीं थीं, लेकिन टैंक नही आ पाए थे। दोबारा कीचड़ पानी में पार होने वाले टैंक दिए गए। हमारे सामने चुनौती थी ही साथ में सीके्रट काम भी करना था। नदी पार करने के लिए हमें एक नांव दी गई, नांव ऐसी थी कि पहले धारा के साथ चलो, तब कहीं जाकर नांव चलती थी। इसी बीच हमारी नांव पल्ट गई और 16 जवान डूब गए। जिनमें 9 जवान मर गए। तीस जवानों को बचाया जा सका और बाकी की पंद्रह दिन बाद लाश मिलीं। यह हमारी सेना के लिए एक बड़ा सदमा था, लेकिन हम लोगों ने हिम्मत नही हारी। फिर से सबको एकजुट किया और नदी पार पहुंचें।
        21 नवंबर को हम 1500 जवान नदी के पार जैसे-तैसे पहुंचें। सुबह 7 बजे नदी को पार किया, दुघर्टना की वजह से 8 बज गए थे। 14 टैंक पर 160 जवान बैठकर जा रहे थे कि उधर दुश्मनों ने सोचा कि इन्हें मार दो। नदी के दूसरी तरफ दुश्मनों की फौज और दूसरी तरफ हमारे 14 टैंक और हमारे जवान। नदी से 14 किलोमीटर दलदल को पार करते हुए हम गरीबपुर पहुंचे। यहां हमने जवानों को तरतीब से पैदल सेना को लगाया। फौज तैनात करने और तापखाने को तैयार करने में 2 बज गए। उधर हमारे जवान नदी में डूबे लोगों को तलाश रहे थे, इधर हम बाकी टोलियों को अजमतपुर तक रवाना कर चुके थे, जिन्हें वहां जाकर टैंक मिले। रातभर तैयारी की मोर्चाें की खुदाई करी, दुश्मनों के रास्तों की रैंकिग की। आगे पेट्रोल और घात पार्टी भेजी। जब गरीबपुर पहुंचे ही थे कि 2 घंटे में फौजो को काम बांट दिया था और पाम के पेड़ के नीचे थककर बैठ गया। मेरी झपकी लग गई, रात को 1 बजे रात को अचानक झटका लगा और एक आवाज जैसी आई कि 'अरे तुम सो रहे हो जागो, अपनी टोलियां ठीक जगह पर लगाओ, एल्फा कंपनी थकी है इनको ठीक से लगाओ, मोटर प्लाटून की स्थिति ठीक करो, बंकर बदलो (यह बटालियन का हेड क्वाटर होता है, जिसमें सेंड बैक लगाते थे)'। बंकर तैयार हो चुके थे, उस समय कैप्टन बाजवा थे, उन्होंने कहा- अभी लगवाया है और तुम हटवा रहे हो। मैने कहा- जो मैं कहा है उसका आदेश करो, कारण बताने की जरूरत नहीं समझी। अगले दिन दुश्मन के जो तीन हमले हुए वह उन्हीं जगहों पर हुए। सबसे ज्यादा तोपखाने की गोलीबारी उसी स्थान पर हुई। यह सब करते-करते सुबह के 4 बज गए। यह सब तैयारी करते-करते  उस समय देखभाल और चौकसी का जिम्मा ओपी अफसर कैप्टन चतुर्वेदी के पास था और प्लाटून कमांडर कैप्टन गिल थे, उन्होंने बताया कि दुश्मन गरीबपुर आ गए हैं। हमारे टैंक और इंफेंट्री तैयार थे, हमने दुश्मनों की टोली को देखकर उन पर तोपखाने से फायरिंग शुरू कर दी। हमारी 14 पंजाब रेजीमेंट का मोटो था, आकाल सहाय है यानी सारे काम आरती और अरदास से शुरू होते थे।  उस दिन 21 तारीख थी, सुबह 6 बजे से 8 बजे तक घमासान लड़ाई हुई। उनकी इंफेंट्री को हमने घेरना शुरू कर दिया। अभी हम लोग गरीबपुर में ही थे। जी कंपनी के मेजर बेंस ने 9 बजे बटालियन हेडक्वाटर पर हमला शुरू कर दिया, यह दूसरा हमला था। इसका घमासान 11 बजे तक चला। तीसरा हमले में बटालियन हेड क्वाटर पर पीछे से आकर दुश्मनों ने हमला किया। ये तीनों हमले 14 पंजाब बटालियन के बहादुर जवानों ने टैंक, तोपखाने से करारा जवाब दिया और दुश्मनों को मार भगाया। वह कहते हैं कि दुश्मनों के टैंकों पर जब हमारी फौज ने हमला किया तो वह इस पशोपेश में थे, क्योंकि उनके  जवान टैंकों पर होने वाले हमलों में जल रहे थे। उस समय पाकिस्तान की फौज में ब्रिगेडियर हयात थे, वह ब्रिगेड क मांडर था। मुसलमानों को जलकर मरना धर्म के खिलाफ माना जाता था, तो उनके बचे सैनिक जलना नहीं चाहते थे। इसलिए वह टैंक छोड़कर वापस भाग गए।
     वह कहते हैं कि इस पूरी लड़ाई में हमने 13 टैंक बरामद किए, जिसमें तीन टैंक दुश्मन छोड़ भागे। तकरीबन 300 जवान दुश्मन के घायल हुए और मरे। हमारी फौज के 3 टैंक, 36 जवान मरे और 36 जवान घायल हुए। जिसमें 14 पंजाब के सूबेदार मलकीत सिंह ने बहादुरी दिखाई, जिन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र मिला। हवलदार लेखराज सिंह ने आरसीएल गन से लड़ाई लड़ी और दुश्मनों के टैंक बरामद किए, जिन्हें वीआरसी सम्मान मिला। कैप्टन चतुर्वेदी को भी वीआरसी सम्मान मिला। मुझे मेरी बहादुरी के लिए महावीर चक्र का सम्मान मिला। अपनी इस लड़ाई में जीत की वजह वह योजनाबद्ध तरीके से लड़ना बताते हैं, वह कहते हैं कि मुसीबतों के बावजूद हमने जीत हासिल की। जिसमें हमारे जवानों ने भी उत्कृष्ट वीरता, बेहतर समाजंस्य और आत्मविश्वास का परिचय दिया। हमने दुश्मनों के 95 प्लेन, 244 टैंक, 10633 कैजुअलिटी हुर्इं, जिसमें 2307  पाकिस्तानियों का मारा, 20163 मिसिंग हुए, 2663 लोगों को घायल किया। इसके अलावा 6 पाकिस्तानियों को बंधक बनाया था। इस बैटल आॅफ गरीबपुर को एक निर्णायक युद्ध की उपमा दी गई। 23 नवंबर से 16 दिसंबर तक घमासान चला, जिसमें 23 नवंबर को कुछ शांति रही, लेकिन दोनों ओर से पेट्रोलिंग होती रही। 24 नवंबर से 2 दिसंबर तक अधिकारी जायजा लेने आते-जाते रहे। 3 दिसंबर को पकिस्तान और भारत की लड़ाई शुरू हुई। जो 14 दिसंबर तक एक बड़े घमासान के बाद खतम हुई।
 हमारे युद्ध जीतने के पीछे दृढ़ इच्छा शक्ति थी, हमारा मानना था कि निश्चय कर अपनी जीत करो। डोगरा रेजीमेंट के जवान दुर्गा माता का आशीर्वाद मांगते थे। हमसब कहते कि पहली लड़ाई जीती तो आगे भी जितेंगे। पंजाब लांइस के जवान कहते कि- लड़ाई की ट्रेनिंग ओखी, ते लड़ाई सोखी। यह मानते थे कि लड़ाई में हमेशा विजयी बनें, रनर अप का कोई स्थान नहीं होता। वह कहते हैं कि मैं अगर फौजी न होता तो, डॉक्टर होता, क्योंकि पिता की भावनाओं का ध्यान रखना था, वह अपने लड़के से देश सेवा की उम्मीद रखते थे। मैंने बायोलॉजी से इंटर तक पढ़ाई की थी। जब मैंने सेना की परीक्षा पास की थी, तभी मेरे पिता ने कहा था कि जा मेडिकल परीक्षा भी दे आ। जब मेडिकल पास कर लिया तो कहा अब चला ही जा। मैं एक राजपूत रहा तो अत्याचारियों का नाश ही किया।
 

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