Sunday, September 11, 2011

इन हाथों ने जन्मे कई




 मेरठ,
किसी समय में प्रसव के दौरान महिलाओं के सबसे नजदीक समझा जाने वाला संवेदनशील रिश्ता दाई मां का था। हर दिन किसी न किसी के जान के टुकड़े को नई जिंदगी देती है और उसकी किलकारियों के साथ ही थाली पीटकर शुभ सूचना लोगों तक पहुंचाती। इसी तरह रोजाना किसी न किसी नए  मेहमान को जिंदगी देने वाले हाथों पर आज झुर्रियां हैं, जिसने अनगिनत नन्ही जानों को इस दुनिया में पहुंचा कर आगे का सफर तय किया। आंख खुलने के पहले बने इस रिश्ते के लिए आज हमारी आंखें नहीं खुलतीं। आज उसे अपने इन बूढ़े हाथों पर यकीन नहीं होता कि सामने खडेÞ नामचीन व्यक्ति की पैदाइस इन्ही हाथों से हुई है।
   सदियों से हमारी पंरपराओं में रही दाई मां की एक खास जगह रही है। इस मां के हाथों ने कई नाजुक जानों को इस दुनिया में सुरक्षित पहुंचाया। हर पीढ़ी में मां की प्रसव पीड़ा को समझा और एक नई पीढ़ी सौंप आगे बढ़ी। इतना ही नहीं उसने नाजुक सी जान की लगातार परवरिश भी की उसने नन्ही जान को नन्हे पैरों पर खड़ा होने लायक बनाया। बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे तक का सफर इन्ही मजबूत कदमों के सहारे तय किया। जिंदगी के सफर में हमने फिर कभी पलटकर इस रिश्ते की टोह लेने की कोशिश नहीं की। आखिरकार आज दाई मां फिर उसी पीढ़ी का सहारा चाहती है, जिसको उसने इस दुनिया में अपने हाथों पहुंचाया।
    शहर की कुछ ऐसी ही बुढ़ी दाई मां जिन्होने किसी जमाने में शहर को नामचीन शख्स दिए। दाई मां को उन नाजुक पलों की याद हैं जिनमें वह दुनिया में आया था। लेकिन हमें याद नहीं कि यह हमारी दाई मां है। सरकारी योजनाओं में हमेशा से बखान की जाने वाली दाई मां आज लाचार है, जिंदगी के इस पड़ाव में उसकी आंखों में अतीत की तस्वीरें ओझल हो चलीं हैं। उसके चश्में का नंबर भी उसकी उम्र के साथ बढ़ता जा रहा है। वह आज दो जून की रोटी की तलाश में गगनचुंबी अस्पतालों के बाहर निहत्थी खड़ीं हैं। जहां हर पल कोई नया दुनिया में जन्म ले रहा है, लेकिन दाई मां वहीं है, अपनो की राह में, बेहद अकेली। शहर की कुछ ऐसी महिलाएं जो जिंदगी का लंबा सफर तय कर चुकीं है, लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव में जरूरत महसूस कर रहीं हैं मदद की।
जेम्स गिल (गिल आंटी)
जिंदगी के सात दशक बाद किसी की मदद की आस में हैं। उन्होने 1963 की बाढ़ में शिकार अपने परिवार की तंगी की वजह से आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पार्इं। सेंट एंड्रयूज स्कूल से आठवीं की तक की पढ़ाई कर सकीं। वह कहती हैं कि किसी जमाने में मेरठ की प्रसिद्ध डाक्टर सुधा मल्होत्रा के पास रहकर प्रसव की बारीकियां सीखतीं थीं। धीरे-धीरे आगे वह खुद महिलाओं को प्रसव के समय मदद देने लगीं। यह काम उन्होने पच्चीस साल की उम्र में शुुरु किया था। वह कहतीं हैं कि हमने अपनी जिंदगी में महिलाओं को बहुत सुरक्षित प्रसव कराया। जिसमें प्रसववती को यह नहीं बताते थे कि उनकी संतान लड़का है या लड़की जन्म के उसे प्रसव के बाद ही पता चलता था। यह इसलिए कि उसको किसी तरह का सदमा न लगे। 1982 से खुद की शारीरिक असक्षमता के चलते यह काम बंद कर दिया। इस शहर में हमने सैकड़ों महिलाओं के प्रसव कराए। आज सब पता नही कहां से कहां पहुच गए होगें। इसके अलावा उस समय जिला अस्पताल, मेडिकल कालेज में भी प्रसव के लिए जाती थी।
मिसिज मोहनी हैरी
अस्सी वर्षीय मोहनी मिशन कंपाउड में रहतीं हैं। बचपन में ही माता पिता के न रहने पर बड़ी बहन ने उनका भरण पोषण किया। वह 1965 में वह प्यारे लाल जिला अस्पताल में मिड वाईफ थीं, सैकड़ों महिलाओं के प्रसव कराए। तकरीबन डेढ़ सौ  प्रसव करा चुकीं मोहनी कहती हैं कि दस बारह साल से वह प्रसव नहीं करातीं हैं, उसके पीछे वजह बतातीं हैं कि लोग अब बड़े अस्पतालों की तरफ भागते हैं। उन्हे हमारे अनुभव की जरूरत नहीं समझी। आधुनिक दौर में लोगों ने अस्पतालों की तरफ रुख किया और पहले अस्पताल कम होते थे। लोग पुस्तैनी दाईयों पर भरोसा करते थे। आज आधुनिक मशीनों से हो रहे इलाज के आगे हम लोगों की तरफ नही देखते। अब इतनी उम्र में कुछ होता भी नहीं है, हां सरक ार या किसी अपने ने पलट कर हाल नही पूछा यह अफसोस हमेशा रहता है।
चावली बेगम
पच्चासी साल पूरे कर चुकीं चावली मेरठ शहर ही नहीं आसपास के गांव देहातों में काफी प्रसिद्ध रहीं हैं। वह सुरक्षित प्रसव के लिए जानी जाती हैं, अपनी मां हमीदन और पुस्तैनी प्रसव के काम को अपनी रोजी रोटी का जरिया बतातीं हैं। वह कहती हैं कि जब शहर में डाक्टर और अस्पताल गिनेचुने थे, लोग बड़ी आशा लेकर आते थे। उस जमाने में न बिजली होती थी न किसी तरह का साधन, फिर भी लोगों को मेरे हाथ पर पूरा भरोसा था। पांच पीढ़ियों से जड़ी बूटियों के जरिए प्रसव कराने वाली चावली कहती हैं कि लोग अब अंग्रेजी दवा और बड़े अस्पतालों के डाक्टरों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। जब मैं महिलाओं का प्रसव कराती थी तो लोग मुझे पूजते थे, आज जो मेरे हाथों से पैदा हुए वहीं अपनी औलादों को मेरे हाथों में सुरक्षित नहीं समझते। पहले इलाके  के लोग गाहे-बगाहे मेरे पास आते भी थे,लेकिन आज कोई हालचाल भी नही पूछता।
कैथरिन डेविस
1974 से 1992 तक सैकड़ों महिलाओं को सुरक्षित प्रसव कराने वाली कैथरिन आज अपने अतीत को याद करती हैं। वह कहती हैं कि 1943 में आठवीं पास कर लिया था, पहले के समय में आठवीं बड़ी पढ़ाई थी और लड़कियों को घर के बाहर अभिभावक पसंद नही करते थे। 15 साल की थी, तब शादी हो गई। शहर में डा आरपी मल्होत्रा, डा चढ्डा ओर डा मैथ्यूस ही नामीगरामी डाक्टर थे। डा मल्होत्रा की पत्नी सुधा मल्होत्रा भी डाक्टर थीं। उन्ही के पास 23 साल की उम्र से प्रसव कराना सीखा। सत्तर साल की कैथरीन कहती हैं कि पहले के जमाने में आधुनिक तकनीक नही थीं, जिला अस्पताल या मेडिकल कालेज में ही प्रसव होते थे। इसके अलावा लोग अपने घर पर प्रसव कराना सही समझते थे। धीरे-धीरे अस्पताल और डाक्टर बड़े तो घर में प्रसव का चलन खत्म होता गया। मुझे याद भी नहीं कि कितने प्रसव कराए हां आज जब उस दौर की बूढ़ी महिलाएं मिलतीं हैं तो वह मुझे पहचान लेतीं हैं। इतना ही बहुत है, वर्ना न जाने कितनी महिलाओं को प्रसव कराया कोई पहचानता ही नही है।
एलिस चार्ल्स मैसी
जिंदगी के नौ दशक पार कर चुकीं ऐलिस भगवान पर हमेशा भरोसा करतीं हैं। 1928 में जन्मी एलिस मैसी उम्र के इस पड़ाव में कहतीं हैं कि आज भी खुदा से ताकत मांगतीं हूं कि वह शक्ति दे ताकि मैं हमेशा अच्छा कर सकूं। वह कहमी हैं कि पुराने जमाने में आठवी पास किया था, जो मैट्रिक के मायने रखती थी। सेंट स्टीफन अस्पताल दिल्ली से नर्सिंग की ट्रेनिंग करी थी। पूरे शहर में सुशीला जसवंत राय अस्पताल, हीरालाल अस्पताल, डफरिन अस्पताल और मेडिकल कॉलेज ही होते थे, जिनमें मैं रही।  ऊर्दू, हिंदी और अंगे्रजी भाषाओं में पूरी पकड़ रखने वाली एलिस ने अपने काम के जरिए अपनी पहचान बनाए रखी। कहतीं हैं कि मेरे पति सेना में थे, आठ बच्चों को अकेला छोड़कर काम पर जाती थी। 1925 में सीएमओ नही होते थे, सिविल सर्जन होते थे। वह ही पूरे जिले की चिकित्सा सुविधाओं का ध्यान रखते थे। न बिजली होती थी, न यातायात के साधन और न ही अस्पताल। बुग्गियों से मवाना, बागपत और पिलखुवा जाती थी। इन तीनों जगहों पर लंबे-लंबे समय तक मवाना, पिलखुवा और बागपत में इंचार्ज के तौर पर काम किया। अस्पताल की प्रसूति विभाग का पूरा जिम्मा संभाला। उम्र के साथ अस्पताल ने भी रिटायर कर दिया, लेकिन अफसोस जहां मैं इतने सारे अस्पतालों में लगातार 50 सालों तक  जिम्मेदारी संभाली उसी विभाग ने मुझे पेंशन के लायक नही समझा। जिस विभाग ने मुझे मेरे सराहनीय कामों के लिए लगातार सम्मानित किया उसी विभाग ने मेरा हाल भी नही पूछा। हजारों बच्चों को नई जिंदगी देने वाली एलिस जहां अपने काम के लिए खुश दिखती हैं वहीं उन्हे पछतावा होता है। मुझसे गलती हुई थी कि मैने अपना नर्सिंग का रजिट्रेशन कराना भूल गई। वह कहतीं हैं कि मुझे अगर हर महीने अपने पति की पेंशन के तीन हजार रुपये न मिलें तो मेरा क्या होता। मैं अपनी जरुरी दवाएं भी न जुटा पाती।

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