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Showing posts from November, 2012

आजादी से जुड़े चंद लम्हों की दास्तां कहता तिरंगा

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-  1946 में कांग्रेस के आखिरी अधिवेशन का गवाह -  नेहरू, आचार्य कृपलानी और शख्श्यितों ने फहराया था तिरंगा         आजादी के समय की तमाम धरोहरें संग्राहलयों में संजोई गई हैं। जिसमें आजादी के समय के तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं। आजादी से जुड़े चंद लम्हों को एक धरोहर के रुप में मेरठ में भी रखा गया है। 23 नवंबर 1946 में आजादी के पहले मेरठ के विक्टोरिया पार्क में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के दौरान फहराया गया 14 फीट चौड़ा और 9 फीट लंबा तिरंगा फहराया गया था। यह झंडा हस्तिनापुर निवासी देव नागर के पास किसी धरोहर से कम नहीं है। इस ऐतिहासिक झंडे से देश के चंद महत्वपूर्ण लोगों की यादें जुड़ीं हैं। जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु, शहनवाज खान, आचार्य कृपलानी और सुचेता कृपलानी के नाम झंडे के इतिहास से जुड़े हैं।          द्वितीय विश्वयुद्ध में आजाद हिंद फौज के मलाया डिवीजन के कमांडर रहे, स्व कर्नल गणपत राम नागर के परिवार के लिए यह झंडा किसी अमूल्य धरोहर से कम नहीं है। गॉडविन पब्लिक स्कूल में उपप्रधानाचार्य के प...

गरिमा ने किए मां के सपने साकार

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      मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी गरिमा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमक बिखेरेगी। यह किसे पता था, लेकिन लाख दुश्वरियों के बाद गारिमा की मां का आत्मविश्वास नहीं डगमगाया। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी न सिर्फ  मासूम बच्चे के सपनों को संवारा बल्कि खुद की ख्वाहिशों का पूरा होते देखा।                    1990 में जन्मी गरिमा आरजी कॉलेज से 12वीं करने के बाद चंडीगढ़ से बीए किया और मेरठ से एमबीए की पढ़ाई कर रही है। महज 6 साल की उम्र में उसकी शरारत से तंग आकर मां ने जूडो की कोंचिग दिलाना शुरू किया।  खेलकूद के सफर तब शुरू हुआ जब सिर्फ तीन महीने बाद ही स्टेट लेवल की जूडो प्रतियोगिता में उसे हुनर दिखाने का मौका मिला। लेकिन इतने कम समय में अपने दमखम की वजह से उसे प्रदेशभर के बच्चों के बीच तीसरा स्थान बनाया। असल में यहीं से मासूम गरिमा नन्हीं जूडोका के नाम से जानी गई और यहीं से शुरू हुआ खेल की दुनिया का सफर। अपनी मां के बारे में गरिमा कहतीं हैं कि मेरे यहां तक पहुंचने में मेरी ...

तूलिका ने भरे मां के सपनों में रंग

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मेरठ के जागृति विहार की 28 वर्षीय तूलिका रानी की उपलब्धियों को शायद ही शहर महसूस कर पाया हो। लेकिन वे दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहराकर जोश और जज्बे की मिसाल पेश की। लेकिन किसी ने टोह नहीं ली कि आखिर हमारे खाते में क्या आमद हुई। ये बात और है कि तूलिका से मिलने के बाद हर शख्स उनके साहस का कायल हो जाता है। सवाल है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और प्रदेश का नाम रोशन करने वाली जांबाज तूलिका क्या किसी सम्मान की हकदार भी नहीं?      एयरफोर्स लखनऊ में स्कवाड्रन लीडर के पद पर तैनात तूलिका कहती हैं कि एवरेस्ट की चोटी पर जाने के 18 रास्ते हैं, जिनमें प्रमुख रूप से दो ही रास्ते अपनाए जाते हैं, एक नेपाल का साउथ रूट और दूसरा चीन का नॉर्थ रूट। मैं साउथ रूट से वहां तिरंगा फहरा चुकी हूं, अब नॉर्थ रूट से जाऊंगी। मेरी तमन्ना दुनिया की सर्वोच्च ऊंचाईयों पर तिरंगा फहराने की है। हौसलों की ऊंचाई पर सिर्फ इंसान हूं   सिर्फ इच्छाशक्ति के दम पर ही इतनी ऊंची मंजिल तय करना संभव है। फैंटेसी होती है कि आखिर इतनी ऊंचाई पर कैसा लगता है। जिंदगी की तरह एवरेस्ट की ऊंचाई पर जाति,धर्म और ब...

बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय

  बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय देश के गिने-चुने संस्कृत महाविद्यालयों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों में बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसे वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और समानान्तर शिक्षा का प्रयास किया गया है।  विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और मौजूदा समय में यह संपूर्णानंद संस्कृ त महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है। यह देश के प्रसिद्ध संस्कृत शिक्षण संस्थानों में गिना जाता है। ___   सदर इलाके में स्थित बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय गिने-चुने संस्कृत महाविद्यालयों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण महाविद्यालयों में बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसको संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और मौजूदा समय में यह संपूर्णानंद संस्कृ त महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है।   किसी समय में जहां महाविद्यालय है, वहां बेलपत्रों के पेड़ का जंगल था। बेल पत्रों से घिरा होने की वजह से यहां मौजूद पौराणिक शिव मंदिर बिल्वेश्वर मंदिर के रूप में चर्चित हुआ। किसी समय...

लगता है आत्मा से दूर हूं_मेरठ के लेखक वेदप्रकाश शर्मा

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    हिंदी उपन्यास जगत से लेकर छोटे और बड़े पर्दे तक जासूसी विधा में मेरठ के लेखक वेदप्रकाश शर्मा देश भर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। यह उनकी लेखनी का जादू ही है कि  वर्ग विशेष के पाठकों तक सीमित रहने वाली जासूसी विधा को समाज के हर वर्ग के बीच लोकप्रिय बन गई है। मात्र 15 साल की उम्र से उपन्यास लिखने का सिलसिला शुरू करने वाले इस लेखक का पहला उपन्यास 'दहकते शहर' चार दशक पूर्व 1971 में प्रकाशित हुआ। अब तक 161 उपन्यास लिख चुके वेदप्रकाश शर्मा के चार उपन्यासों पर फिल्में भी बन चुकी हैं। जिनमें ‘बहू मांगे इंसाफ’ पर आधारित फिल्म 'बहू की आवाज' (1985), ‘विधवा का पति’ पर आधारित फिल्म 'अनाम' (1992), ‘लल्लू’ पर आधारित फिल्म 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' (1996), 'सुहाग से बड़ा' पर आधारित फिल्म 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' (1999) शामिल हैं। अब जाने माने निर्माता-निर्देशक राकेश रोशन, उनके चर्चित उपन्यास ‘कानून का बेटा’ पर आधारित फिल्म 'कारीगर' बना रहे हैं। उनकी कलम से निकलकर पाठकों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले पात्र केशव पंडित की लोकप्रियता का आलम यह रहा कि...

71 का जांबाज ब्रिगेडियर रनवीर

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  ब्रिगेडियर रनवीर सिंह 1971 (भारत-पाक लड़ाई) के प्रमुख योद्धाओं में रहे हैं। उन्हें इस युद्ध में बहादुरी के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया। उन्होंने फौज में सेकेंड लेफ्टिनेंट, मेजर, लेफ्टिनेंट कर्नल और ब्रिगेडियर तक का सफर तय किया। वह मराठा रेजीमेंट के बहादुर सैनिकों में गिने गए और बहादुरी के लिए विशिष्ट सेवा सम्मान से भी उन्हेंसम्मानित किया गया। दौराला के धंजू गांव में जन्मे ब्रिगेडियर रनवीर ने 1952 में एनएएस कॉलेज से हाई स्कूल और मेरठ कॉलेज से एमए की पढ़ाई की। अपनी धुंधली यादों में खोकर वह कहते हैं, मैं मेरठ कॉलेज के न्यू ब्लॉक हॉस्टल में रहता था, जहां मेरा कमरा नंबर 108 था। उस दौरान भी मैं कॉलेज का सीनियर मॉनीटर था।  अपने दमखम की वजह से खेलकूद प्रतियोगिताओं में भी जीत दर्ज करता रहा। कॉलेज की एथलेटिक्स टीम का कप्तान रहा और विश्वविद्यालय की कई प्रतियोगिताएं भी जीतीं। उस समय मेजर श्याम लाल, मेजर माथुर और प्रो एमएल खन्ना आदि नामी शिक्षक  थे। 1956 में ही इंडियन मिलिट्री एकेडमी में मेरा चयन हो गया। मैं मराठा रेजीमेंट में सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर तैनात हुआ। मेरी सेवाओं ...

देखने तक वो आया नहीं

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  ओमकार गुलशन किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपनी रचनाशीलता के लिए जाने वाले श्री गुलशन अजीविका के लिए वकालत करते हैं, लेकिन न्याय की दलीलों के बीच भी उनका मन जिंदगी के उसी आदिम न्याय में रमता है, जहां सच एकमात्र सुबूत भी है, और सुकून भी, यानी काव्य की दुनिया। पिछले दिनों वे पक्षाघात के शिकार हुए। साहस के साथ इस बुरे वक्त को भी उन्होंने पछाड़ा। वे बिस्तर छोड़कर बंद कमरों के बाहर फिर कचहरी में फरियादियों की भीड़ से रूबरू हुए। बंद कमरे में भी वे रचनाशील रहे। इस दौरान उन्होंने अपनी काव्यानुभूति को दबने नहीं दिया, बल्कि अधिक मुखर होकर सामने आई। शिद्दत से महसूस किए गए रचनात्मक वक्त के चंद कतरे यहां प्रस्तुत हैं...   कैसे कह दूं पराया नहीं। देखने तक वो आया नहीं,  कैसे कह दूं पराया नहीं। अब्र बरसे मगर बिन तेरे, जाम हमने उठाया नहीं। जिंदगी है सफर धूप का, दूर तक जिसमें साया नहीं, हम गुनहगार साबित हुए उनपे इल्जाम आया नहीं। कीं खताएं तो हमने बहुत, दिल किसी का दुखाया नहीं। पाके खुशियां न पागल हुए, गम का मातम मनाया नहीं। जिसपे हमने किया ऐतबार, साथ उसी ने निभाया नहीं, एक तुम्ह...

विरासत छीज रही

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  हर प्रदेश का अपना सांस्कृतिक महत्व होता है, जिसमें रचीबसी होती है, वहां की लोक संस्कृति। आइए जानते हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सांस्कृतिक धरोहरों को जो हमारे अतीत की बानगी हैं। ये वो चीजें हैं जिनमें हम किसी जमाने में रचेबसे थे, हमारी पहचान और सभ्यता का प्रतीक थीं।   भाषा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कौरवी भाषा के साथ कई क्षेत्रीय भाषाएं बोलचाल में शुमार रहीं हैं। जो लोक संप्र्रेष्णीयता के साथ आत्मीयता की पहचान रहीं। बागपत-बड़ौत और परीक्षितगढ़, मवाना की भाषा अलग है। इसी तरह से गुर्जर समुदाय जो जमुना किनारे, ग्रेटर नोयडा, बुलंदशहर की भाषा क्षेत्रीयता के आधार पर बिल्कुल भिन्न है। बोलचाल की शैली में लहजे में जितनी वैरीएशन है, ये बाकी क्षेत्रों में देखने को नहीं मिलती। बोलचाल में अपभं्रश शब्दों की वजह से आज इसका चलन कम हो गया।  जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उपभाषाएं दम तोड़ रहीं हैं। जरूरत है इसे नई पीढ़ी को समझने की । संस्कृति लोक संस्कृति में पहनावा-वेषभूषा, पारंपरिक भोजन, दैनिक रहन-सहन, लघु उद्योग, तीज-त्योहार आज लगभग गायब हैं। इसकी बड़ी वजह हमने सांस्कृतिक विरासत से छेड़छा...

कर्ण की कर्म स्थली पर ही कर्ण जैसे दानी की तलाश

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  पौराणिक, ऐतिहासिक शहर मेरठ में कई प्राचीन धरोहरें अतीत के गवाह हैं। इन्हें पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित कर अच्छी खासी आमदनी जुटाई जा सकती है। इससे इस शहर की पहचान बन चुकी सांस्कृतिक, पौराणिक, ऐतिहासिक विरासत को भी संजोया जा सकता है। इस बार पढ़िए पर्यटन की संभावनाओं की पड़ताल करती अनूप मिश्र की एक रिपोर्ट-   पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विरासत को संवारने की कवायद  किसी महाभारत से कम साबित होती नहीं दिखती। सांस्कृतिक, ऐतिहासिक स्थलों को संवारने  के लिए 2006-07 में पहली बार मेरठ डेवलपमेंट एथॉरिटी को दो करोड़ रुपए मिले थे। दूसरी बार 2012 में  महाभाारत सर्किट योजना के तहत 50 करोड़ रुपए स्वीकृत हुए हैं। लेकिन इस बार एमडीए को हस्तिनापुर में पर्यटन हब विकसित करने के लिए एक अदद जमीन की तलाश है। जहां अतीत की विरासत को संजोने की पहल की जा सके। रियासत और जायदादों के दान के किस्से भले ही आपको किसी गुजरे जमाने की बात लगती हों, लेकिन एमडीए को आज भी किसी  कर्ण की कर्म स्थली पर ही कर्ण जैसे दानी की तलाश है।  एक ओर धनराशि है, लेकिन जमीन नहीं। दूसरी ओर ...