Saturday, March 31, 2012

हाथ से सरकती कठपुतली की डोर ......


किसी दौर में लोगों के बीच इठलाने वाली कठपुतली आज लगभग गायब है। मनोरंजन के अनेक साधन विकसित होने के साथ मंच से जहां कठपुतली गायब होती गई, वहीं इसके कलाकारों ने भी जीविका के चलते अपना रुख मोड़ लिया। बावजूद इसके टीवी चैनल्स पर आज भी इसकी प्रासंगिकता है। यह भी सही है कि अब यह गिनी-चुनी जगहों पर प्रचार-प्रसार का जरिया मात्र रह गई हैं।
- अनूप मिश्र
शायद ही कोई ऐसा हो, जिसे कठपुतलियां प्रभावित न करती हों। हाथ के इशारों पर नाचती-झूमती, इतराती रंगबिरंगी कठपुतलियां दुनिया के सबसे सार्थक संवाद का जरिया रही हैं। अपने आकर्षण के बल पर संवाद करते हुए दर्शक के जेहन में घर कर जाती हैं। यह जहां एक ओर जिंदगी का दर्द बयां करती हैं, वहीं लोगों के चेहरे पर मुस्कान भी बिखेरती हैं। बचपन की अठखेलियां, जवानी की रूमानियत और बुढ़ापे का दर्द बयां करने वाली कठपुतलियों का असर गांव ही नहीं, शहरों में भी महसूस किया जाता रहा है। हाथ के इशारों पर मटकने वाली कठपुतलियां लोकप्रिय होने के बावजूद प्रसार की कमी से जूझ रही हैं। एक जमाना था, जब लोग कठपुतली की प्रस्तुतियों को चाव से देखते थे, लेकिन वर्तमान समय में इसकी डोर कठपुतली कलाकारों के हाथों से सरकती जा रही है। दर्शकों के मनोरंजन में शामिल लोक संस्कृति से जुड़ी कलाओं की जगह आज टीवी चैनल, क ंप्यूटर और सिनेमाघरों ले लिया है। यही वजह है कि कठपुतली बनाने वाले कलाकारों की किल्लत भी दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। 
कठपुतली परंपरा का इतिहास
रूमानिया, चेको, हंगरी, पोलैंड, इंग्लैंड, पूर्व सोवियत संघ के देशों में, जो अब टूट बिखर गया है, वहां बेहतर प्रयोग किए गए। खासकर बच्चों की शिक्षा के साथ अन्य मनोरंजक काम का जरिया बनीं। भारत में नजर दौड़ाएं, तो कठपुतलियों के लिए इकलौता राजस्थान का नाम ही जुबान पर आता है। यहां काठ की पुतलियों की परंपरा का चलन रहा है। इसके अलावा कठपुतलियों केरल, राजस्थान, तमिलनाडु के साथ लगभग पूरे दक्षिणी भारत की लोक परंपराओं में कठपुतलियों का जिक्र मानव सभ्यता के विकास के साथ पाया गया है।
अपने प्रभावीपन की वजह से कठपुतलियां थिएटर की पूर्वज भी मानी जाती हैं। यही वजह है कि आंदोलन, शिक्षा, अभियानों के साथ फिल्मों में भी इसके प्रयोग हुए। यहां तक कि आजादी के आंदोलन में भी इस परंपरा के तहत बड़े पैमाने पर लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। कठपुतलियों को बनाने के कई माध्यम हैं, लेकिन प्रयोग में ज्यादातर दिखने वाली मैगनेटिक पपेट, काठ की, फोम, रुई, कपड़ा और लोहे आदि की पपेट चलन में रही हैं।
तकनीकी पक्ष और सीमाएं
भारत में सबसे ज्यादा चलन में रहने वाली काठ, कपड़ा, फोम और रुई की कठपुतलियां चर्चित रही हैं। कठपुतलियों की प्रस्तुति में पात्रों का कथानक, बुनावट सबसे अहम हिस्सा होता है। इसके बाद रंगरोगन, वेशभूषा और मेकअप भी अहम पक्ष साबित होता है। ज्यादातर विषयों पर स्क्रिप्टिंग ही बेहद जरूरी हिस्सा साबित होती है। इसमें संवादों में ढले शब्द दर्शकों के जेहन में उतरने की प्राथमिकता होते हैं। तब जाकर कहीं पपेट के कई पक्षों के साथ बेहद सरल दिखने वाली यह पपेट कला कठिन पक्षों के साथ प्रभावी होती है। जो ह्यूमन करेक्टर अभिनेता करते हैं, वह कठपुतली कर सकती है, लेकिन जो कठपुतली करती है, वह अभिनेता नहीं कर सकते। नाटक में एक करेक्टर देर तक दर्शकों को बांधे रह सकता है, लेकिन एक कठपुतली के लिए यह संभव नहीं है। कठपुतली किरदार के मूवमेंट सीमित होते हैं। अभिनेता के मूवमेंट असीमित हैं। पपेट को पर्दे के पीछे नचाते कलाकार के बस में यह नहीं है।
सिर्फ प्रचार-प्रसार का साधन बनी कठपुतलियां
एक सामाजिक संस्था के कठपुतली कार्यक्रम के प्रस्तोता विनोद विश्वकर्मा कहते हैं कि कठपुतली कला की शुरुआत एक शताब्दी से भी ज्यादा पुरानी है। तभी गांवों में मनोरंजन के माध्यम के रूप में कठपुतलियों का खेल शुरू हुआ, जो खासकर राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के राजाओं की गाथाओं को प्रसारित करने का साधन होता था। आज यह सांस्कृतिक कला सरकारी तौर पर महज दर्ज होने की वजह से प्रचार-प्रसार का जरिया बनी है। लोगों के बीच इसकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई। इसका उदाहरण फिल्मों में इसके प्रयोग और टीवी चैनलों पर सामाजिक संदेश पहुंचाने का मजबूत जरिया माना जाता है। कठपुतलियों के खेल आज भी बच्चों के बीच गहरी पैठ बनाए हुए हैं। बेजान-सी दिखने वाली सुंदर कठपुतलियां महज कठपुतलियां नहीं होतीं, बल्कि इनका सल्तनत काल-वीरगाथा काल से लेकर आज भी लोगों तक सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश प्रभावी ढंग से पहुंचाने में कारगर है। वे कहते हैं कि सल्तनत काल और वीरगाथा काल में यहां भाट जनजाति समुदाय के लोग कठपुतली का इस्तेमाल वीरों की गाथा, युद्ध का जिक्र करने के लिए करते थे, लेकिन आज इस लोक कला का रूप गिनीचुनी प्रस्तुतियों के अलावा सिर्फ टेलीविजन तक सीमित रह गया है।
लोकप्रियता कम नहीं, लेकिन अस्तित्व खतरे में ....
लखनऊ के कठपुतली कला के जानकार आदियोग कहते हैं कि कई ऐसे कलाकार हैं, जिनकी कला कौशल की सुध लेने वाला कोई नहीं है। हालांकि, वे यह भी मानते हैं कि इस लोक कला को आज भी ग्रामीण ही नहीं, बल्कि शहरों के दर्शक  भी असरदार मानते हैं। वे कहते हैं कि इस कला को बचाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। किसी भी विषय को दर्शकों के सामने उकेरने के लिए आज भी कठपुतली प्रदर्शन करते हैं। देश में लोक संस्कृति कलाओं को बढ़ावा देने की कोशिशें व्यापक नहीं हैं। यही वजह है कि कठपुतली के बनाने वाले और प्रस्तुत करने वाले कलाकार कम रह गए हैं। आज कठपुतली बनाने वाले कलाकार भी इसकी मांग कम होने की वजह से पल्ला झाड़ चुके हैं। टीवी चैनल और सिनेमा ने इन कलाकारों की पूछ समाप्त करने के साथ निवाला भी छीन लिया।
मंच से पहुंची टीवी स्क्रीन पर
कठपुतली कलाकार अल्का प्रभाकर बताती हैं कि कंबोडिया, सिंगापुर तथा मलेशिया में कठपुतली कला लोगों के बीच काफी पसंद की जाती है। उनके अनुसार कठपुतलियां बिना बोले ही अपने भावों के जरिए दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाती हैं। यही वजह है कि वे सामाजिक मुद्दों पर कठपुतली प्रस्तुति के तहत लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने के अभियान चलाती हैं। कठपुतलियां देश में ही नहीं, विदेशों में भी वैश्वीकरण के इस युग में भी टेलीविजन पर संवाद का माध्यम बनी हैं। इनका रोचक प्रस्तुतिकरण दर्शकों के बीच प्रासंगिक हैं। इसी कला से जुड़े एक कलाकार कहते हैं कि भारत में इस प्रभावी कला का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। लोक कला में कठपुतली के महत्वपूर्ण स्थान को देखते हुए इसका प्रचार-प्रसार आवश्यक है, क्योंकि कठपुतली हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है।
                                लखनऊ के कठपुतली कला के जानकार आदियोग, अल्का प्रभाकर

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