Monday, October 22, 2012

लंबे संघर्ष और मेहनत की दास्तां बीडीएम

 
सियालकोट में 1925 के दौर में यूबराय कंपनी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान रखती थी। हमारे दादा रामलाल जी कोई काम नहीं करते थे, क्योंकि वे रइसजादे थे। धार्मिक विचारों के थे, वे इंसानियत के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें एक दुकान खुलवाई गई, जो लोगों को मुफ्त-उधार और मदद करते-करते अंत में बंद ही करनी पड़ी। रामलाल के तीन बेटे हुए जिनमें हंसराज महाजन, देवराज महाजन और बनारसीदास महाजन। यूबराय कंपनी लिमिटेड कंपनी थी, जो खेल के उत्पाद इंपोर्ट करती थी। हंसराज महाजन ने मेरे ताऊ ने इस कंपनी में पेशे के तहत 1920 में काम सीखना शुरू किया। वहां उन्होंने ट्रेनिंग ली, बनाने से बिकने तक के काम को समझा। उस दौर में हाकी, क्रिकेट इंग्लैंड से आते थे, क्योंकि अंग्रेजों ने ही खेलों से परिचित कराया।
       कुछ ही समय में उन्होंने खुद का व्यवसाय शुरू करने की ठानी और महाजन ब्रदर्स के नाम से सियालकोट में 1925 में काम शुरू किया। काम शुरू होने के  साथ ही बढ़ने लगा। 1925 से 1947 में व्यवसाय खूब बढ़ा, देश-विदेश से भी लोग आने लगे थे। क्रिकेट का चलन देश में भी शुरू हो गया था, लोग खेलों की तरफ बढ़ रहे थे। 1948 में ही विभाजन हो गया, फिर वे दिल्ली, कभी आगरा मे रहे, आखिरकार मेरठ आकर टिक गए। उस समय शरणार्थियों के लिए बनी जगहें विक्टोरिया पार्क और सूरजकुंड में बनी। उस  विभाजन की त्रासदी में मेरे पिता कुछ बकायों की बिल्टियां अपने साथ ले आए थे, लेकिन वो भी सुरक्षित नहीं रह सकीं। तमाम कैंप शरणार्थियों से भरे थे, तभी एनाउंस हुआ कि 45 बैरक विक्टोरिया पार्क में और 40 सूरजकुंड में हैं, वहां शरणार्थी जा सकते हैं। हम लोग सूरजकुंड में बस गए। इन जगहों की कीमत 5000 रुपए निर्धारित की गई, जिसमें तय था कि आप किसी रोजगार से इस रकम को किश्तों में चुका सकते हैं।
     मेरे पिता की शादी सियालकोट में हुई थी, मेरी मां उस समय धर्मशाला के नूरपुर में नानी के घर थीं, उन्होंने एक बच्ची को जन्म दिया था। वे वापस आ रहीं थीं, तमाम मुसीबतों के बाद जम्मू की तरफ से होते हुए बचते-बचाते आना पड़ा था। पिता कहते थे कि हम 10 से 12 तांगों में सवार होकर पलायन कर रहे थे कि फसादियों ने रास्ता रोका तीन तांगों को ही बख्शा था। उस समय कोई ये तय नहीं कर पा रहा था कि कौन अपना तांगा आगे बढ़ाए, हमारे पिता निडर थे उन्होंने अपना तांगा पीछे से आगे की तरफ बढ़ाया और तीन तांगें निकले थे कि बाकी सबको मार दिया गया।
    ताऊजी हंसराज महाजन के सात बेटे थे, उन्होंने टेÑन में टाफियां बेचकर जिंदगी से संघर्ष किया। प्रापर्टी का क्लेम मिलने पर हम लोगों ने एक कारखाना सूरजकुंड में लगाया। उस दौरान ग्राहकों से पैसा लेकर 400 रुपए से काम शुरू किया। लेकिन ताऊजी हंसराज महाजन परिवार समेत जालंधर चले गए, उन्होंने प्रापर्टी के क्लेम में मिले पैसों से और जमीन, प्रापर्टी और नगद राहत के मिले पैसों से काम शुुरू कर दिया। वे हंसराज महाजन एंड संस के नाम से जालंधर के मशहूर उधोगपति हैं। महाजन स्पोर्ट के नाम से 1967 तक काम रहा, लेकिन ताऊ देवराज अलग हो गए उनके साथ ही महाजन स्पोर्ट भी चला गया। हमारे पिता के सामने कर्जे और परिवार की जिम्मेदारियां थीं।
     मैं इंटर में गया ही था कि काम में हाथ बंटाने और जिम्मेदारियों के चलते पढ़ाई छोड़नी पड़ी। पिता के साथ काम में जुटा और बनारसी दास महाजन पिता के नाम पर बीडीएम के नाम से काम शुरू किया। इंटर की पढ़ाई प्राइवेट की और काम में जुटा रहा। कर्जे के मुकदमों के लिए नाबालिग होते हुए भी कचहरी के चक्कर भी लगाता रहा, क्योंकि  पिता इन सब मामलों से दूर रहते थे। लंबे समय तक काम करके ब्याज-सूत चुकाया। 1970 तक यही संघर्ष चला। मैं बीकाम में पढ़ रहा था, लेकिन पढ़ाई के साथ डेढ़ महीने तक आॅल इंडिया आर्डर के लिए घूमा। लोगों के सामने जाता तो लोग मेरे जैसे कम उम्र के लड़के के साथ बिजनेस शुरु करने को तैयार न थे। लेकिन गिनेचुने आर्डर के साथ काम बढ़ा, धीरे-धीरे कई आर्डर मिले। काम करता और माल पहुंचाता रहा। चुनौती यह थी कि महाजन स्पोर्ट जो हमारे ताऊ के हिस्से में चला गया, उसे लोग जानते थे। हम नए नाम बीडीएम के नाम के साथ काम कर रहे थे। हर पार्टी को पुराने काम और नए काम में गुणवत्ता की खाशियत बताकर एक्सप्लेन करता था। उस दौर में एचआरएम,एफसी, वैंपायर जैसी कंपनियां छार्इं थीं। बीडीएम नई चीज थी।
         हमारा नया काम था, पूंजी कम थी और माल भी लोगों से अच्छा देने की चुनौती थी। सैंपल दिए लोगों ने बेचे, खिलाड़ियों ने दोबारा मांगा। इस क्रम में हमारी मांग बढ़ती गई। शुरूआत में हम कम पूंजी की वजह से कैश मांग कर बिजनेस करते, जबकि अन्य कंपनियां उधार देकर बिजनेस कर रहीं थीं। लेकिन हमारे उत्पादों के मुरीद होने के साथ लोगों ने कैश लेना भी मंजूर किया। उस समय लाला अमरनाथ, सीडी गोपीनाथ, सीके नायडू, सीरामचंद्र पकंज, फारूख अली इंजीनियर, एमएल जेसिमा, अब्बास अली बेग, चंदू बोर्डे, नवाब पटौदी जैसे क्रि केटर हमारे बल्लों के मुरीद हो गए थे।
       बल्लों के मुरीद होने के बाद लोगोंं ने इंग्लैंड से आने वाले बल्लों को नकार दिया। इसकी वजह वह मंहगे थे, क्योंकि  वहां बनवाई मंहगी थी। यहां बनवाई कम थी। इंग्लैंड का   बल्ला 400 का था हमारा 100 रुपए का और वही माल। इसी वजह से बीडीएम मुंबई जैसी बाजार में छा चुका था। जहां विदेशी नहीं देशी बल्लों का राज हो गया। आज इंग्लैंड में हमारे बल्ले सस्ते और अच्छे होने की वजह से मांगे जाते हैं। एक समय था इंग्लैंड से हमारा देश  इंग्लिश विलो बैट इंपोर्ट करता था, आज वो हमारे बल्लों को मांगते हैं। हिंदुस्तान में पहली बार इंग्लिश विलो हमने बेचा यह बड़ी उपलब्धि साबित हुई।
           साउथ में मद्रास के आगे सब कुछ खत्म माना जाता था। उस दौर में एक बार केरला गया वहां सैंपल दिखाया, लोगों ने कहा यह किस काम आएगा। वहां खेलों का कोई क्रेज नहीं था, लोग बोले हां आर्मी और नेवी वाले लोग इसे जानते हैं, आप छोड़ जाएं। मैंने दस हजार रुपए कैश लेकर उतना ही माल दिया। लोगों ने इस्तेमाल किया और लाखों रुपए के आर्डर के टेलीग्राम आए। 
      1986 में बीडीएम को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी का रूप दिया। छोटे भाई सुनील महाजन का अकस्मिक निधन हो गया, दूसरे भाई राकेश महाजन के साथ काम आज भी चल रहा है।  2000 में पिता को हार्ट अटैक हुआ, उनको दिल्ली के स्क ॉट हस्पिटल में भर्ती कराया। उसी दौरान भारत सरकार ने अटल बिहारी वाजपेई के दौर में पाकिस्तान डेलीगेशन के लिए स्पोर्ट जगत से न्योता दिया। पशोपेश में था, कि अचानक वहां के नामी डाक्टर डा त्रेहन ने उनके स्वस्थ होने की बात कही। मुझे लगा कि पिता का सियालकोट जाने का सपना था। वो भी पूरा होगा और यह उपलब्धि कि हम दुनिया के 40 सेलेक्टेड बिजनेसमेन में सेलेक्ट किए गए हैं, उनके साथ साझा कर सकूंगा। हम पिता के साथ कराची, रॉवलपिंडी, इस्लामाबाद आदि जगहों पर घूमे। लाहौर के आयोजन के बाद हम सियालकोट के लिए रवाना हुए। वहां हमे दो कंमाडो सुरक्षा के लिए दिए गए। हम सियालकोट पहुंचे वहां मेरे पिता अतीत की यादों में खो गए थे। वे इतने प्रसन्न थे कि जहां उन्होंने अपना बचपन, जवानी और जिंदगी की शुरूआत की उसे दोबारा टटोल रहे थे। वही शहर, मोहल्ला पेरिस रोड पर खंडहर हो चुका मकान, वही यूबराय कंपनी जहा से हमारे बिजनेस की शुरूआत हुई थी। 
           क्रिके ट के बल्ले के व्यवसाय में एक मोड़ तब आया जब मल्टीनेशनल कंपनियों ने अपने विज्ञापन के लिए बल्लों पर स्टीकर लगाने या नाम छपवाने का चलन शुरू किया। इसके एवज में हमें भारी रकम तो मिलती लेकिन हमारा नाम उन बल्लों से गायब होता गया। हमारे नाम की जगह उन कंपनियों का नाम फे मस होता लेकिन हमारा नाम नहीं होता था। इसे संतुलित कर कंपनी के नाम को दोबारा उबारने के लिए संतुलन बनाया। 

         सुधीर महाजन से अनूप मिश्र की बातचीत पर आधारित