Saturday, January 29, 2011

स्त्री इस्तेमाल की चीज क्यों समझी जाती है


 नेटवर्क ६ से जेन्नी शबनम जी का आलेख.....

आज के हिन्दुस्तान में स्त्री एक वस्तु मानी जाती है; समय बदला, संस्कृति बदली, पीढियां बदली, लेकिन स्त्री जहाँ थी वहीं है; जिसे हर कोई अपनी पसंद के अनुरूप जांचता परखता है फिर अपनी सुविधा के हिसाब से चुनता है, और यह हर स्त्री की नियति है| आज के सन्दर्भ में स्त्री वस्तु के साथ साथ एक विषय भी है जिसपर जब चाहे जहां चाहे विस्तृत चर्चा हो सकती है| चर्चा में उसके शरीर से लेकर उसके कर्त्तव्य, अधिकार और उत्पीड़न की बात होती है| अपनी सोच और संस्कृति के हिसाब से सभी अपने – अपने पैमाने पर उसे तौलते हैं| ये भी तय है कि मान्य और स्थापित परम्पराओं से स्त्री ज़रा भी विलग हुई कि उसकी कर्तव्यपरायणता ख़त्म और समाज को दूषित करने वाली मान ली जाती है| युग परिवर्तन और क्रान्ति का परिणाम है कि स्त्री सचेत हुई है, लेकिन अपनी पीड़ा से मुक्ति कहाँ ढूंढे? किससे कहे अपनी व्यथा? युगों युगों से भोग्या स्त्री आज भी महज़ एक वस्तु हीं है, चाहे जिस रूप में इस्तेमाल हो|
कभी रिश्तों की परिधि तो कभी प्रेम उपहार देकर उस पर एहसान किया जाता है कि देखो तुम किस दुर्गति में रहने लायक थी, तुमसे प्रेम या विवाह कर तुमको आसमान दिया है| लेकिन आज़ादी कहाँ? आसमान में उड़ा दिया और डोर हाथ में थामे रहा कोई पुरुष, जो पिता हो सकता या भाई या फिर पति या पुत्र| जब मन चाहा आसमान में उड़ाया जब चाहा ज़मीन में ला पटका कि देख तेरी औकात क्या है| स्त्री की प्रगति की बात कर समाज में पुरुष प्रतिष्ठा भी पाता है कि वो प्रगतिवादी है| क्या कभी कोई पुरुष स्त्री की मनःस्थिति को समझ पाया है कि उसे क्या चाहिए? अगर स्त्री अपना कोई स्थान बना ले या फिर अलग अस्तित्व बना ले फिर भी उसकी अधीनता नहीं जाती| यूँ स्त्री विमर्श और स्त्री के बुनियादी अस्तित्व पर गहन चर्चा तो सभी करते हैं पर मैं यहाँ इन सब पर कोई चर्चा नहीं करना चाहती| मैं बस स्त्री की पीड़ा व्यक्त करना चाहती हूँ जो एक गीत के माध्यम से है| एक भोजपुरी लोक गीत जो मेरे मन के बहुत हीं करीब है, जिसमें एक स्त्री अपने जन्म से लेकर विवाह तक की पीड़ा अभिव्यक्त करती है| वो अपने पिता से कुछ सवाल करती है कि उसके और उसके भाई के पालन पोषण और जीवन में इतना फर्क क्यों किया जबकि वो और उसका भाई एक हीं माँ के कोख से जन्म लिया है| भाई बहन के पालन पोषण की विषमता से आहत मन का करुण क्रंदन एक कचोट बन कर दिल में उतरता है और जिसे तमाम उम्र वो सहती और जीती है|
इस गीत में पुत्री जो अब ब्याहता स्त्री है अपने पिता से पूछती है कि क्यों उसके और उसके भाई के साथ दोहरी नीति अपनाई गई, जबकि एक हीं माँ ने दोनों को जन्म दिया