Saturday, March 31, 2012

हाथ से सरकती कठपुतली की डोर ......


किसी दौर में लोगों के बीच इठलाने वाली कठपुतली आज लगभग गायब है। मनोरंजन के अनेक साधन विकसित होने के साथ मंच से जहां कठपुतली गायब होती गई, वहीं इसके कलाकारों ने भी जीविका के चलते अपना रुख मोड़ लिया। बावजूद इसके टीवी चैनल्स पर आज भी इसकी प्रासंगिकता है। यह भी सही है कि अब यह गिनी-चुनी जगहों पर प्रचार-प्रसार का जरिया मात्र रह गई हैं।
- अनूप मिश्र
शायद ही कोई ऐसा हो, जिसे कठपुतलियां प्रभावित न करती हों। हाथ के इशारों पर नाचती-झूमती, इतराती रंगबिरंगी कठपुतलियां दुनिया के सबसे सार्थक संवाद का जरिया रही हैं। अपने आकर्षण के बल पर संवाद करते हुए दर्शक के जेहन में घर कर जाती हैं। यह जहां एक ओर जिंदगी का दर्द बयां करती हैं, वहीं लोगों के चेहरे पर मुस्कान भी बिखेरती हैं। बचपन की अठखेलियां, जवानी की रूमानियत और बुढ़ापे का दर्द बयां करने वाली कठपुतलियों का असर गांव ही नहीं, शहरों में भी महसूस किया जाता रहा है। हाथ के इशारों पर मटकने वाली कठपुतलियां लोकप्रिय होने के बावजूद प्रसार की कमी से जूझ रही हैं। एक जमाना था, जब लोग कठपुतली की प्रस्तुतियों को चाव से देखते थे, लेकिन वर्तमान समय में इसकी डोर कठपुतली कलाकारों के हाथों से सरकती जा रही है। दर्शकों के मनोरंजन में शामिल लोक संस्कृति से जुड़ी कलाओं की जगह आज टीवी चैनल, क ंप्यूटर और सिनेमाघरों ले लिया है। यही वजह है कि कठपुतली बनाने वाले कलाकारों की किल्लत भी दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। 
कठपुतली परंपरा का इतिहास
रूमानिया, चेको, हंगरी, पोलैंड, इंग्लैंड, पूर्व सोवियत संघ के देशों में, जो अब टूट बिखर गया है, वहां बेहतर प्रयोग किए गए। खासकर बच्चों की शिक्षा के साथ अन्य मनोरंजक काम का जरिया बनीं। भारत में नजर दौड़ाएं, तो कठपुतलियों के लिए इकलौता राजस्थान का नाम ही जुबान पर आता है। यहां काठ की पुतलियों की परंपरा का चलन रहा है। इसके अलावा कठपुतलियों केरल, राजस्थान, तमिलनाडु के साथ लगभग पूरे दक्षिणी भारत की लोक परंपराओं में कठपुतलियों का जिक्र मानव सभ्यता के विकास के साथ पाया गया है।
अपने प्रभावीपन की वजह से कठपुतलियां थिएटर की पूर्वज भी मानी जाती हैं। यही वजह है कि आंदोलन, शिक्षा, अभियानों के साथ फिल्मों में भी इसके प्रयोग हुए। यहां तक कि आजादी के आंदोलन में भी इस परंपरा के तहत बड़े पैमाने पर लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। कठपुतलियों को बनाने के कई माध्यम हैं, लेकिन प्रयोग में ज्यादातर दिखने वाली मैगनेटिक पपेट, काठ की, फोम, रुई, कपड़ा और लोहे आदि की पपेट चलन में रही हैं।
तकनीकी पक्ष और सीमाएं
भारत में सबसे ज्यादा चलन में रहने वाली काठ, कपड़ा, फोम और रुई की कठपुतलियां चर्चित रही हैं। कठपुतलियों की प्रस्तुति में पात्रों का कथानक, बुनावट सबसे अहम हिस्सा होता है। इसके बाद रंगरोगन, वेशभूषा और मेकअप भी अहम पक्ष साबित होता है। ज्यादातर विषयों पर स्क्रिप्टिंग ही बेहद जरूरी हिस्सा साबित होती है। इसमें संवादों में ढले शब्द दर्शकों के जेहन में उतरने की प्राथमिकता होते हैं। तब जाकर कहीं पपेट के कई पक्षों के साथ बेहद सरल दिखने वाली यह पपेट कला कठिन पक्षों के साथ प्रभावी होती है। जो ह्यूमन करेक्टर अभिनेता करते हैं, वह कठपुतली कर सकती है, लेकिन जो कठपुतली करती है, वह अभिनेता नहीं कर सकते। नाटक में एक करेक्टर देर तक दर्शकों को बांधे रह सकता है, लेकिन एक कठपुतली के लिए यह संभव नहीं है। कठपुतली किरदार के मूवमेंट सीमित होते हैं। अभिनेता के मूवमेंट असीमित हैं। पपेट को पर्दे के पीछे नचाते कलाकार के बस में यह नहीं है।
सिर्फ प्रचार-प्रसार का साधन बनी कठपुतलियां
एक सामाजिक संस्था के कठपुतली कार्यक्रम के प्रस्तोता विनोद विश्वकर्मा कहते हैं कि कठपुतली कला की शुरुआत एक शताब्दी से भी ज्यादा पुरानी है। तभी गांवों में मनोरंजन के माध्यम के रूप में कठपुतलियों का खेल शुरू हुआ, जो खासकर राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के राजाओं की गाथाओं को प्रसारित करने का साधन होता था। आज यह सांस्कृतिक कला सरकारी तौर पर महज दर्ज होने की वजह से प्रचार-प्रसार का जरिया बनी है। लोगों के बीच इसकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई। इसका उदाहरण फिल्मों में इसके प्रयोग और टीवी चैनलों पर सामाजिक संदेश पहुंचाने का मजबूत जरिया माना जाता है। कठपुतलियों के खेल आज भी बच्चों के बीच गहरी पैठ बनाए हुए हैं। बेजान-सी दिखने वाली सुंदर कठपुतलियां महज कठपुतलियां नहीं होतीं, बल्कि इनका सल्तनत काल-वीरगाथा काल से लेकर आज भी लोगों तक सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश प्रभावी ढंग से पहुंचाने में कारगर है। वे कहते हैं कि सल्तनत काल और वीरगाथा काल में यहां भाट जनजाति समुदाय के लोग कठपुतली का इस्तेमाल वीरों की गाथा, युद्ध का जिक्र करने के लिए करते थे, लेकिन आज इस लोक कला का रूप गिनीचुनी प्रस्तुतियों के अलावा सिर्फ टेलीविजन तक सीमित रह गया है।
लोकप्रियता कम नहीं, लेकिन अस्तित्व खतरे में ....
लखनऊ के कठपुतली कला के जानकार आदियोग कहते हैं कि कई ऐसे कलाकार हैं, जिनकी कला कौशल की सुध लेने वाला कोई नहीं है। हालांकि, वे यह भी मानते हैं कि इस लोक कला को आज भी ग्रामीण ही नहीं, बल्कि शहरों के दर्शक  भी असरदार मानते हैं। वे कहते हैं कि इस कला को बचाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। किसी भी विषय को दर्शकों के सामने उकेरने के लिए आज भी कठपुतली प्रदर्शन करते हैं। देश में लोक संस्कृति कलाओं को बढ़ावा देने की कोशिशें व्यापक नहीं हैं। यही वजह है कि कठपुतली के बनाने वाले और प्रस्तुत करने वाले कलाकार कम रह गए हैं। आज कठपुतली बनाने वाले कलाकार भी इसकी मांग कम होने की वजह से पल्ला झाड़ चुके हैं। टीवी चैनल और सिनेमा ने इन कलाकारों की पूछ समाप्त करने के साथ निवाला भी छीन लिया।
मंच से पहुंची टीवी स्क्रीन पर
कठपुतली कलाकार अल्का प्रभाकर बताती हैं कि कंबोडिया, सिंगापुर तथा मलेशिया में कठपुतली कला लोगों के बीच काफी पसंद की जाती है। उनके अनुसार कठपुतलियां बिना बोले ही अपने भावों के जरिए दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाती हैं। यही वजह है कि वे सामाजिक मुद्दों पर कठपुतली प्रस्तुति के तहत लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने के अभियान चलाती हैं। कठपुतलियां देश में ही नहीं, विदेशों में भी वैश्वीकरण के इस युग में भी टेलीविजन पर संवाद का माध्यम बनी हैं। इनका रोचक प्रस्तुतिकरण दर्शकों के बीच प्रासंगिक हैं। इसी कला से जुड़े एक कलाकार कहते हैं कि भारत में इस प्रभावी कला का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। लोक कला में कठपुतली के महत्वपूर्ण स्थान को देखते हुए इसका प्रचार-प्रसार आवश्यक है, क्योंकि कठपुतली हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है।
                                लखनऊ के कठपुतली कला के जानकार आदियोग, अल्का प्रभाकर

Saturday, March 24, 2012

उपन्यासकार चेतन भगत


उपन्यासकार चेतन भगत आज युवाओं के पसंदीदा लेखक बन चुके हैं। इनके  लेखन की खाशियत है कि उनकी कहानी और उसकी बुनावट बहुत हद तक युवाओं के इर्दगिर्द होती है। उपन्यास का अक्सर अतीत से शुरू होना इनका निराला अंदाज साबित करता है। किशोरउम्र, युवावस्था का प्रेम, चुंबन, रतिदृश्य और छिटपुट हिंसा वह अपने उपन्यासों के फार्मूले स्वीकारते हैं। भगत हमेशा तेज से गुजरता क्लाइमेक्स बुनते हैं, जिसका अंत सुखांत भरा और युवाओं को नसीहत देता है। मेरठ के एक निजी कॉलेज में आने पर जाना उनके लेखन के जादुई रहस्य को- 
मेरठ कैसा लगा?
मेरठ शहर अच्छा है, लेकिन जितना डेवलपमेंट होना चाहिए नहीं हुआ है। यह दिल्ली, गुड़गांव जैसे शहरों से जुड़ा होने के बावजूद विकसित नहीं हुआ है। जैसे पूना, बैंगलोर आदि शहर तेजी से विकसित हुए हैं, वैसा नहीं हुआ। मेरा मानना है कि नोयडा, दिल्ली और गुड़गांव जैसे शहरों से मेरठ की कनेक्टविटी फास्ट होनी चाहिए।
- आप इंजीनियरिंग के क्षेत्र से जुड़ रहें हैं, यह लेखन से कैसे जुड़ाव हुआ?
शुरू से ही मैं पढ़ाई-लिखाई के साथ पढ़ता रहता था, साहित्य हमेशा से मुझे अपनी ओर खींचता रहा है। सरोजनी नायडू, शरतचंद और प्रेमचंद को ज्यादा पढ़ा, मेरा प्रेमचंद से मेरा लेखन मेल भी खाता है।
 - लेखन के पीछे आपका क्या मकसद है?
बच्चो के लिए हिदंी फिल्म देखना और गाने सुनना कूल है,लेकिन किताबों को पढ़ना कूल नहीं मानते। सबसे पहले तो इस मानसिकता को बदलना चाहता हूं। मैंने हमेशा जो लिखा वो बोझिल होते साहित्य को हल्का करने के लिए लिखा, जो युवा पसंद कर सकें। मौजूदा लेखकों से मेरी कोई प्रतिस्पर्धा रही ही नहीं। तकनीकी विकास के इस दौर में इंटरनेट जैसी सुविधाएं हैं, जहां आजकल सबकुछ मौजूद है। आधुनिक कहानियों को आधुनिक अंदाज में लिखना मेरा खास मकसद रहता है, ताकि युवा और बच्चे चाव से पढ़ें। उपन्यास और कहानियों में कम से कम अपने आप को पाएं, मैं चाहता हूंकि नई जनरेशन के मुद्दे  भी इसमें आएं। मेरा कंप्टीशन बुक नही रहीं, मैं हमेशा माडर्न स्टोरी लिखने की कोशिश करता रहा।
- साहित्य में अपने लेखन का क्या असर देखते हैं?
अभी बहुत खास तो असर नहीं दिखता, मैंने ध्यान दिया तो महसूस भी किया, आज युवा जटिल साहित्य नहीं पढ़ना चाहते। कम से कम मेरी किताबें तो उठा रहें हैं, क्या यह लेखन का असर नहीं है। कहीं न कहीं मुझे अपने लेखन का असर हमेशा दिखता है, लेकिन कम। 
- आपकी हर किताब का टाइटिल न्यूमेरिकल होता है।
ऐसा इसलिए होता रहा क्योंकि मैं इंजीनियरिंग बैकग्राउंड का हूं, वही यादें हैं। कुछ किताबें लिखीं हैं, जो लीक से हटकर भी हैं।
- क्या आपको उम्मीद है कि मेरठ में आपके पाठक हैं।
मुझे नहीं पता था कि मेरठ में इंगलिश साहित्य पढ़ने वाले रीडर होगें। जब मुझे पता चला कि मेरी किताबों को लोग याहां पढ़ते हैं, तो अच्छा लगा।
- आपकी किताबों को कोर्स में शामिल करने के बाद हटा दिया गया।
मुझे नहीं मालूम किसी पुस्तक को पाठ्यक्रम में शामिल करना और निकालना यह निजी मामला है। मैंने जब भी लिखा एक स्वतंत्र पाठक के लिए लिखा, न कि किसी पाठ्यक्रम में शामिल होने के लिए । मेरा मानना है कि अगर साहित्य किसी पाठक को पसंद आता है, तो वह पढ़ेगा जरूर । युवाओं को अगर किसी काम के लिए मना करो तो वह ज्यादा करते हैं, वह मेरी पुस्तके और पढ़ेगें।
- किताबें लिखना व्यवसाय हो गया है, आपका क्या कहना है?
मैं कई कालम लिखता हूं, थ््राी मिस्टेक आफ माई लाइफ में भी गोधरा कांड का मुद्दा उठाया था। मेरी किताबें गंभीर मुद्दों पर आधारित होती हैं। उनको इंटरटेनमेंट फेक्टर से जोड़कर पेश करता हूं, ताकि युवा पसंद करें। अगर ऐसा नही होगा तो यूथ गाने सुनना बंद करके मेरी किताबें नहीं पढ़ेगें।
- क्या आपने उपन्यास को हिंदी में अनुवाद कर सकते हैं।
मुझे नहीं लगता कि मेरी हिंदी इतनी अच्छी है, कि मैं सारा उपन्यास हिंदी में लिख पाऊंगा। हां हिन्दी इंगलिश मिक्स भाषा में आधारित हिंदी उपन्यास जल्द बााजार में होगें। मेरा मानना हे कि मैं अपने फेम को बच्चों और देश के हित के लिए इस्तेमाल करुं, मुझे जो पाना था पा लिया।
- फिल्मों और नॉवेल में किसकी सार्थकता ज्यादा देखते हैं?
मेरे उपन्यासों में जो दो फिल्में बालीवुड में आर्इं, फाइव प्वाइंट समवन उपन्यास पर आधारित 'थ्री इडिएट' और  'थ्री मिस्टेक आफ माइ लाइफ' अगले महीने आने वाली है। जिन उपन्यासों पर फिल्में बनी वह हिंदी भाषा पर आधारित हैं। बालीवुड में कामर्शियल बांउड्री में काम करना होता है, यह इसकी मजबूरी है और लेखकों के लिए परेशानी भी अभी और बेहतरी की जरुरत है। इसलिए फिलमों की उपेक्षाकृत उपन्यास ज्यादा सार्थक दिखते हैं।
- आपके उपन्यास पर आधारित फिल्मों में कोई पात्र आपसे मेल खाता है?
हां थ्री इडिएट फिल्म में मैं महादेवन के पात्र में अपने को देखता हूं। वह मेरी कहानी थी, मैं इंजीनियरिंग का छात्र रहा हूं और लेखन मेरा पेशन था।
- आप भाषा के बंधन में बंधा नहीं महसूस करते, हिंदी के लिए कुछ कोशिश ?
प्रभात प्रकाशन ने चेतन की दो किताबें फाइव प्वाइंट समवन और वन नाइट विद कॉल सेंटर का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है, जबकि डायमंड पॉकेट बुक्स ने द थ्री मिस्टेक्स आॅफ माई लाइफ का अनुवाद पेश किया है। इस कोशिश में हिदंी साहित्य ही कारगर दिखता है। हम 'टू स्टेट' का मार्डन हिंदी अनुवाद ला रहे हैं। जो कि बोलचाल की भाषा में ही होगी। हिंदी साहित्य काफी पिछड़ रहा है, मुझे लगता है कि जब कोई अंग्रेजी का लेखक मैदान में नहीं आएगा तब तक बात नहीं बन पाएगी। मैं कुछ हिंदी और अंग्रेजी में मिक्स लिखने जा रहा हूं, यह युवाओं की बोलचाल की भाषा पर आधारित होगा।
 

Sunday, March 18, 2012

मेरठ के गीतकार आशुतोष से बातचीत

अपने शरुआत दौर के बारे में कुछ बताएं?
मेरे पिता पंडित शिवकुमार शर्मा पेशे से शिक्षक रहे। वे बाद में मेरठ के शिक्षा अधीक्षक भी बने। मेरी दादी रमावती देवी काफी धार्मिक थीं, वे धार्मिक साहित्य के काफी करीब थीं। वे खुद पढ़तीं और गुनगुनातीं, तो मेरा मन उनके करीब पहुंच जाता था। वह जिन रचनाकारों की रचनाएं सुनाती थीं, वे बाद में पढ़ने पर पता चला कि देश की महान साहित्यिक विभूतियां थीं। घर का माहौल काफी अच्छा था, शिक्षा पर काफी जोर था। मुझे भी शुरू से लिखने-पढ़ने की आदत पड़ी। नौंवीं कक्षा में ही था, तभी लिखने-पढ़ने लगा। महादेवी वर्मा, नरोत्तम दास, जयशंकर प्रसाद का साहित्य काफी प्रभावित करता था। कविताएं चाहे कोर्स में शामिल रहीं हों या बाहर कहीं पढ़ने को मिलें, उन्हें पढ़कर जज्ब कर लेने की आदत थी। एनएएस कॉलेज से बीए और 1976 में एमए हिंदी साहित्य में किया। इसी समय से पत्र-पत्रिकाओं के लिए रचनाएं लिखने लगा था।
लेखन की शुरुआत कब हुई? क्या माहौल था उस समय? कौन समकालीन सहित्यकार थे?
लिखना तो मैंने बहुत पहले ही शुरू कर दिया था, लेकिन मंच पर अस्सी के दशक  के बीच सक्रिय हुआ। पहली बार टाउन हाल में एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ किया था। यहां रघुवीर शरण मित्र, रामप्रकाश राकेश, वफा मेरठी के अलावा अन्य वरिष्ठ साहित्यकार मौजूद थे। उस समय साहित्यिक गतिविधियों में मुझे वरिष्ठ साहित्यकारों का साथ मिला, जिनमें गीतकार भारतभूषण, श्यामलाल शमी, रामप्रकाश राकेश, रघुवीर शरण मित्र, जैसे साहित्यकार थे। उस दौर के रचनाकारों की रचनाओं को सुनकर धन्य हो गया था। बहुत कुछ सीखने को मिला। उनके रचनात्मक पहलुओं के विविध आयामों का सूक्ष्म विश्लेषण करने में ही मेरी रुचि ज्यादा रही। अच्छे साहित्यकारों का साथ ही मेरी शुरुआती पाठशाला रही है। श्रेष्ठ साहित्यकारों के साथ का परिणाम ही है, जो मैं लिख लेता हूं।
आपकी पसंदीदा रचना कौन सी है और किससे प्रभावित रहे?
अगर खुद की बात करूं, तो मेरा अपना मानना है कि किसी रचना को लिखने के बाद रचनाकार का दायित्व पूरा हो जाता है। मैं रचना के सृजन के समय पूरी तरह डूब तो जाता हूं, लेकिन सूजन के बाद रचना मुझ से मुक्त हो जाती है। हां, अगर अन्य रचनाकारों की बात करें तो महादेवी वर्मा के गीत और उनकी जीवनी से प्रभावित होकर मैंने लिखना शुरू किया, लेकिन गीतक ार गोपाल दास नीरज, भारतभूषण जैसे रचनाकारों से प्रभावित रहा हूं। रही बात प्रभाव की, तो मेरे लेखन पर मुझे         किसी साहित्यकार का प्रभाव नहीं महसूस होता।          हमेशा अपने आसपास की परिस्थितियों को महसूस कर मौलिक लिखा।
आज के परिवेश में साहित्यिक माहौल को कैसा देखते हैं?
साहित्यकार हमेशा परंपराओं  और मान्यताओं के तहत सक्रिय रहे। सृजन को कभी समय सीमा मेें नहीं बांधा जा सकता। रचनाकार को हमेशा एहसास रहना चाहिए कि लेखन से वो महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। बेहतर रचनाकार से ज्यादा सही समझ रखने वाले श्रोता श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि किसी रचना का मूल्यांकन श्रोता ही करते हैं । रचनाकार की भावना हमेशा श्रोता को प्रभावित करती है, इसलिए मंचीय रचनाकार का दायित्व बनता है कि वो बिना तालियों और वाहवाही के साहित्य प्रेमियों के स्तर को ऊंचा करने के लिए लिखे। साहित्यप्रेमियों को चाहिए कि वो रचनाकार को विदूषक न समझकर प्रगति से जोड़कर समझें। नई  खेप में साहित्यिक रुझान औसतन पहले से गिरा है। वो टूटने से बचकर सृजन के जोखिम उठाएं, तभी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। श्रेष्ठ रचनाकार व्यावसायिक दृष्टि से सफल हों यह जरुरी नहीं है। मंच पर पसरे व्यवसायीकरण से साहित्य के लिए खतरे बढ़े हैं, जो साहित्यसृजन न होकर व्यावसायिक लेखन का काम बन गया है।
आपका कोई संकलन प्रकाशित नहीं हुआ, क्या पारिवारिक जिम्मेदारियां आड़े आर्इं?
पारिवारिक जिम्मेदारियों से लेखन में कभी बाधा नहीं आई। हर किसी की तरह मेरी भी जिंदगी में उतार-चढ़ाव रहे। हमेशा सृजन के समय को जिंदगी की कशमकश से ऊपर रखा। परिवार ने भी मेरे सृजन को जिम्मेदारीभरा महसूस किया और उसकी महत्ता स्वीकार की। साहित्यिक संकलन प्रकाशित न करा पाने का कोई मलाल नहीं है। साहित्य को संकलित करने से कवि की व्यक्तिगत पहचान बनती तो है, लेकिन मुझे अपनी रचनाओं को लोगों तक पहुंचाने में कोई दिक्कत नहीं आई। कई पत्र-पत्रिकाएं और मंच इसका जरिया बने, जिसे श्रोताओं और पाठकों से प्रतिक्रिया स्वरूप महसूस करता हूं। अपने को कवि के रूप में स्थापित करने की लालसा कभी मेरे मन में नहीं उपजी, न ही कभी मुझे एहसास हुआ कि मैं रचनाकार हूं। मुझे मेरे मित्रों, श्रोताओं और पाठकों का सान्निध्य मिला, जो मुझे एक रचनाकार के रूप में देखते हैं। इतने समय बाद अगर कोशिश भी करूं, तो मेरे लिए बड़ी चुनौती है। मैंने कविताएं, गीत, कहानी और उपन्यास कई विधाओं में लिखा, जिसे एक पुस्तक का रूप नहीं दिया जा सकता। असलियत यह है कि अब हिम्मत नहीं जुटा पाता, बहुत कुछ बिखरा है।
नए रचनाकारों के लिए क्या कहना चाहेंगे?
लेखन के लिए सकारात्मकता को पल भर के लिए भी अपने से ओझल न होने दें। पढ़ें और हमेशा नई ऊर्जा के साथ सही लिखें। लेखन, पाठक और श्रोता के मन में अंतर्निहित होता है, जिसे लेखक सिर्फ रचनाओं के जरिए लोगों तक पहुंचकर झंकृत करता है। ऐसा सकारात्मक लेखन ही लेखक का मार्गदर्शक होता है।
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गीत
भंवर में नाव है...

आंधियां भंवर, भंवर में नाव है,
जिंदगी नदी जहर तनाव है

तू टूटती अनास्था कदम-कदम,
तमगे हैं विलीन हर दिशा
देखिए तो आदमी की त्रासदी
फिर भी खोजता जिजीविषा
रेशमी लिबास में छिपा यहां,
हर किसी के दिल का घाव है

जन्म और मृत्यु के कगार को,
जोड़ता है सेतु सांस का
दूर-दूर तक मिला हमें,
रेत चिन्ह प्रश्न प्यार का
अर्थहीन तर्क की तिजोरियां
तृष्टिबोध का अभाव है।