Sunday, March 18, 2012

मेरठ के गीतकार आशुतोष से बातचीत

अपने शरुआत दौर के बारे में कुछ बताएं?
मेरे पिता पंडित शिवकुमार शर्मा पेशे से शिक्षक रहे। वे बाद में मेरठ के शिक्षा अधीक्षक भी बने। मेरी दादी रमावती देवी काफी धार्मिक थीं, वे धार्मिक साहित्य के काफी करीब थीं। वे खुद पढ़तीं और गुनगुनातीं, तो मेरा मन उनके करीब पहुंच जाता था। वह जिन रचनाकारों की रचनाएं सुनाती थीं, वे बाद में पढ़ने पर पता चला कि देश की महान साहित्यिक विभूतियां थीं। घर का माहौल काफी अच्छा था, शिक्षा पर काफी जोर था। मुझे भी शुरू से लिखने-पढ़ने की आदत पड़ी। नौंवीं कक्षा में ही था, तभी लिखने-पढ़ने लगा। महादेवी वर्मा, नरोत्तम दास, जयशंकर प्रसाद का साहित्य काफी प्रभावित करता था। कविताएं चाहे कोर्स में शामिल रहीं हों या बाहर कहीं पढ़ने को मिलें, उन्हें पढ़कर जज्ब कर लेने की आदत थी। एनएएस कॉलेज से बीए और 1976 में एमए हिंदी साहित्य में किया। इसी समय से पत्र-पत्रिकाओं के लिए रचनाएं लिखने लगा था।
लेखन की शुरुआत कब हुई? क्या माहौल था उस समय? कौन समकालीन सहित्यकार थे?
लिखना तो मैंने बहुत पहले ही शुरू कर दिया था, लेकिन मंच पर अस्सी के दशक  के बीच सक्रिय हुआ। पहली बार टाउन हाल में एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ किया था। यहां रघुवीर शरण मित्र, रामप्रकाश राकेश, वफा मेरठी के अलावा अन्य वरिष्ठ साहित्यकार मौजूद थे। उस समय साहित्यिक गतिविधियों में मुझे वरिष्ठ साहित्यकारों का साथ मिला, जिनमें गीतकार भारतभूषण, श्यामलाल शमी, रामप्रकाश राकेश, रघुवीर शरण मित्र, जैसे साहित्यकार थे। उस दौर के रचनाकारों की रचनाओं को सुनकर धन्य हो गया था। बहुत कुछ सीखने को मिला। उनके रचनात्मक पहलुओं के विविध आयामों का सूक्ष्म विश्लेषण करने में ही मेरी रुचि ज्यादा रही। अच्छे साहित्यकारों का साथ ही मेरी शुरुआती पाठशाला रही है। श्रेष्ठ साहित्यकारों के साथ का परिणाम ही है, जो मैं लिख लेता हूं।
आपकी पसंदीदा रचना कौन सी है और किससे प्रभावित रहे?
अगर खुद की बात करूं, तो मेरा अपना मानना है कि किसी रचना को लिखने के बाद रचनाकार का दायित्व पूरा हो जाता है। मैं रचना के सृजन के समय पूरी तरह डूब तो जाता हूं, लेकिन सूजन के बाद रचना मुझ से मुक्त हो जाती है। हां, अगर अन्य रचनाकारों की बात करें तो महादेवी वर्मा के गीत और उनकी जीवनी से प्रभावित होकर मैंने लिखना शुरू किया, लेकिन गीतक ार गोपाल दास नीरज, भारतभूषण जैसे रचनाकारों से प्रभावित रहा हूं। रही बात प्रभाव की, तो मेरे लेखन पर मुझे         किसी साहित्यकार का प्रभाव नहीं महसूस होता।          हमेशा अपने आसपास की परिस्थितियों को महसूस कर मौलिक लिखा।
आज के परिवेश में साहित्यिक माहौल को कैसा देखते हैं?
साहित्यकार हमेशा परंपराओं  और मान्यताओं के तहत सक्रिय रहे। सृजन को कभी समय सीमा मेें नहीं बांधा जा सकता। रचनाकार को हमेशा एहसास रहना चाहिए कि लेखन से वो महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। बेहतर रचनाकार से ज्यादा सही समझ रखने वाले श्रोता श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि किसी रचना का मूल्यांकन श्रोता ही करते हैं । रचनाकार की भावना हमेशा श्रोता को प्रभावित करती है, इसलिए मंचीय रचनाकार का दायित्व बनता है कि वो बिना तालियों और वाहवाही के साहित्य प्रेमियों के स्तर को ऊंचा करने के लिए लिखे। साहित्यप्रेमियों को चाहिए कि वो रचनाकार को विदूषक न समझकर प्रगति से जोड़कर समझें। नई  खेप में साहित्यिक रुझान औसतन पहले से गिरा है। वो टूटने से बचकर सृजन के जोखिम उठाएं, तभी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। श्रेष्ठ रचनाकार व्यावसायिक दृष्टि से सफल हों यह जरुरी नहीं है। मंच पर पसरे व्यवसायीकरण से साहित्य के लिए खतरे बढ़े हैं, जो साहित्यसृजन न होकर व्यावसायिक लेखन का काम बन गया है।
आपका कोई संकलन प्रकाशित नहीं हुआ, क्या पारिवारिक जिम्मेदारियां आड़े आर्इं?
पारिवारिक जिम्मेदारियों से लेखन में कभी बाधा नहीं आई। हर किसी की तरह मेरी भी जिंदगी में उतार-चढ़ाव रहे। हमेशा सृजन के समय को जिंदगी की कशमकश से ऊपर रखा। परिवार ने भी मेरे सृजन को जिम्मेदारीभरा महसूस किया और उसकी महत्ता स्वीकार की। साहित्यिक संकलन प्रकाशित न करा पाने का कोई मलाल नहीं है। साहित्य को संकलित करने से कवि की व्यक्तिगत पहचान बनती तो है, लेकिन मुझे अपनी रचनाओं को लोगों तक पहुंचाने में कोई दिक्कत नहीं आई। कई पत्र-पत्रिकाएं और मंच इसका जरिया बने, जिसे श्रोताओं और पाठकों से प्रतिक्रिया स्वरूप महसूस करता हूं। अपने को कवि के रूप में स्थापित करने की लालसा कभी मेरे मन में नहीं उपजी, न ही कभी मुझे एहसास हुआ कि मैं रचनाकार हूं। मुझे मेरे मित्रों, श्रोताओं और पाठकों का सान्निध्य मिला, जो मुझे एक रचनाकार के रूप में देखते हैं। इतने समय बाद अगर कोशिश भी करूं, तो मेरे लिए बड़ी चुनौती है। मैंने कविताएं, गीत, कहानी और उपन्यास कई विधाओं में लिखा, जिसे एक पुस्तक का रूप नहीं दिया जा सकता। असलियत यह है कि अब हिम्मत नहीं जुटा पाता, बहुत कुछ बिखरा है।
नए रचनाकारों के लिए क्या कहना चाहेंगे?
लेखन के लिए सकारात्मकता को पल भर के लिए भी अपने से ओझल न होने दें। पढ़ें और हमेशा नई ऊर्जा के साथ सही लिखें। लेखन, पाठक और श्रोता के मन में अंतर्निहित होता है, जिसे लेखक सिर्फ रचनाओं के जरिए लोगों तक पहुंचकर झंकृत करता है। ऐसा सकारात्मक लेखन ही लेखक का मार्गदर्शक होता है।
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गीत
भंवर में नाव है...

आंधियां भंवर, भंवर में नाव है,
जिंदगी नदी जहर तनाव है

तू टूटती अनास्था कदम-कदम,
तमगे हैं विलीन हर दिशा
देखिए तो आदमी की त्रासदी
फिर भी खोजता जिजीविषा
रेशमी लिबास में छिपा यहां,
हर किसी के दिल का घाव है

जन्म और मृत्यु के कगार को,
जोड़ता है सेतु सांस का
दूर-दूर तक मिला हमें,
रेत चिन्ह प्रश्न प्यार का
अर्थहीन तर्क की तिजोरियां
तृष्टिबोध का अभाव है।

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