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Showing posts from March, 2012

हाथ से सरकती कठपुतली की डोर ......

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किसी दौर में लोगों के बीच इठलाने वाली कठपुतली आज लगभग गायब है। मनोरंजन के अनेक साधन विकसित होने के साथ मंच से जहां कठपुतली गायब होती गई, वहीं इसके कलाकारों ने भी जीविका के चलते अपना रुख मोड़ लिया। बावजूद इसके टीवी चैनल्स पर आज भी इसकी प्रासंगिकता है। यह भी सही है कि अब यह गिनी-चुनी जगहों पर प्रचार-प्रसार का जरिया मात्र रह गई हैं। - अनूप मिश्र शायद ही कोई ऐसा हो, जिसे कठपुतलियां प्रभावित न करती हों। हाथ के इशारों पर नाचती-झूमती, इतराती रंगबिरंगी कठपुतलियां दुनिया के सबसे सार्थक संवाद का जरिया रही हैं। अपने आकर्षण के बल पर संवाद करते हुए दर्शक के जेहन में घर कर जाती हैं। यह जहां एक ओर जिंदगी का दर्द बयां करती हैं, वहीं लोगों के चेहरे पर मुस्कान भी बिखेरती हैं। बचपन की अठखेलियां, जवानी की रूमानियत और बुढ़ापे का दर्द बयां करने वाली कठपुतलियों का असर गांव ही नहीं, शहरों में भी महसूस किया जाता रहा है। हाथ के इशारों पर मटकने वाली कठपुतलियां लोकप्रिय होने के बावजूद प्रसार की कमी से जूझ रही हैं। एक जमाना था, जब लोग कठपुतली की प्रस्तुतियों को चाव से देखते थे, लेकिन वर्तमान समय में इसकी डोर कठपु...

उपन्यासकार चेतन भगत

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उपन्यासकार चेतन भगत आज युवाओं के पसंदीदा लेखक बन चुके हैं। इनके  लेखन की खाशियत है कि उनकी कहानी और उसकी बुनावट बहुत हद तक युवाओं के इर्दगिर्द होती है। उपन्यास का अक्सर अतीत से शुरू होना इनका निराला अंदाज साबित करता है। किशोरउम्र, युवावस्था का प्रेम, चुंबन, रतिदृश्य और छिटपुट हिंसा वह अपने उपन्यासों के फार्मूले स्वीकारते हैं। भगत हमेशा तेज से गुजरता क्लाइमेक्स बुनते हैं, जिसका अंत सुखांत भरा और युवाओं को नसीहत देता है। मेरठ के एक निजी कॉलेज में आने पर जाना उनके लेखन के जादुई रहस्य को-  मेरठ कैसा लगा? मेरठ शहर अच्छा है, लेकिन जितना डेवलपमेंट होना चाहिए नहीं हुआ है। यह दिल्ली, गुड़गांव जैसे शहरों से जुड़ा होने के बावजूद विकसित नहीं हुआ है। जैसे पूना, बैंगलोर आदि शहर तेजी से विकसित हुए हैं, वैसा नहीं हुआ। मेरा मानना है कि नोयडा, दिल्ली और गुड़गांव जैसे शहरों से मेरठ की कनेक्टविटी फास्ट होनी चाहिए। - आप इंजीनियरिंग के क्षेत्र से जुड़ रहें हैं, यह लेखन से कैसे जुड़ाव हुआ? शुरू से ही मैं पढ़ाई-लिखाई के साथ पढ़ता रहता था, साहित्य हमेशा से मुझे अपनी ओर खींचता रहा है। सरोजनी नायडू, शरतचं...

मेरठ के गीतकार आशुतोष से बातचीत

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अपने शरुआत दौर के बारे में कुछ बताएं? मेरे पिता पंडित शिवकुमार शर्मा पेशे से शिक्षक रहे। वे बाद में मेरठ के शिक्षा अधीक्षक भी बने। मेरी दादी रमावती देवी काफी धार्मिक थीं, वे धार्मिक साहित्य के काफी करीब थीं। वे खुद पढ़तीं और गुनगुनातीं, तो मेरा मन उनके करीब पहुंच जाता था। वह जिन रचनाकारों की रचनाएं सुनाती थीं, वे बाद में पढ़ने पर पता चला कि देश की महान साहित्यिक विभूतियां थीं। घर का माहौल काफी अच्छा था, शिक्षा पर काफी जोर था। मुझे भी शुरू से लिखने-पढ़ने की आदत पड़ी। नौंवीं कक्षा में ही था, तभी लिखने-पढ़ने लगा। महादेवी वर्मा, नरोत्तम दास, जयशंकर प्रसाद का साहित्य काफी प्रभावित करता था। कविताएं चाहे कोर्स में शामिल रहीं हों या बाहर कहीं पढ़ने को मिलें, उन्हें पढ़कर जज्ब कर लेने की आदत थी। एनएएस कॉलेज से बीए और 1976 में एमए हिंदी साहित्य में किया। इसी समय से पत्र-पत्रिकाओं के लिए रचनाएं लिखने लगा था। लेखन की शुरुआत कब हुई? क्या माहौल था उस समय? कौन समकालीन सहित्यकार थे? लिखना तो मैंने बहुत पहले ही शुरू कर दिया था, लेकिन मंच पर अस्सी के दशक  के बीच सक्रिय हुआ। पहली बार टाउन हाल में एक कवि ...