शाहपीर मकबरा, मेरठ
बेगमपुल चौराहे से हापुड़ रोड पर चलने पर इंदिरा चौक के बाद दाहिनी ओर शाहपीर गेट पड़ता है। इसी गेट से अंदर जाने पर एक लाल बलुआ पत्थर का मकबरा नजर आएगा। यह मकबरा दीन-ईमान के प्रसारक शाहपीर रहमत उल्लाह का है।
दरअसल यह मकबरा शाहपीर रहमत उल्लाह की मजार है और शाहपीर के मकबरे के नाम से जाना जाता है। रहमत उल्लाह का जन्म रमजान की पहली तिथि को 978 हिजरी (1557 ई.) में मेरठ के शाहपीर गेट पर हुआ। कहा जाता है कि इनके वंशजों की नवीं पीढ़ी आज भी शाहपीर गेट पर उसी मकान में रह रही है। यह भी कहा जाता है कि इनके पूर्वज ईरान के शिराज शहर से आए थे। बेहद सरल और सहज स्वभाव के शाहपीर की लोगों के बीच खासी आस्था थी। उनके ईमान के रास्ते को देखकर आज भी लोग यहां सिर झुकाते नजर आते हैं। उन्होंने लोगों को अपने दीन और ईमान पर चलने की शिक्षा दी। इस मकबरे के सामने इनके वंशजों की मजारें भी मौजूद हैं, जिसकी सुरक्षा मौजूदा पीढ़ी द्वारा की जाती है । फिलहाल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी इसका संरक्षण कर रहा है, जो कि मेरठ शहर के पुरातात्विक अवशेषों को संरक्षित करने के प्रयास में है।
इस मकबरे का निर्माण 1620 ई. में नूरजहां द्वारा कराया गया था। किसी समय में यह मकबरा सड़क के एकदम किनारे पर था, लेकिन अब घनी आबादी हो जाने के कारण मुख्य मार्ग से आसानी से नहीं दिख पाता है। आप जैसे ही मकबरे के पास जाते हैं, तो इसकी सुंदरता आपको अनायास ही अपनी ओर खींच लेती है। मकबरे का स्थापत्य देखने लायक है, इसमें लाल बलुए पत्थर से बनाए गए नक्काशीदार अलंकरण इसे अलग ही शोभा प्रदान करते हैं। मकबरे के अंदर जाकर देखने से साफ पता चल जाता है कि इसका निर्माण अधूरा है। इस मकबरे के संबंध में आज भी कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं। जनश्रुतियों के अनुसार शाहपीर से बादशाह के किसी अधिकारी ने इसमें होने वाले खर्च का हिसाब मांग लिया था, तो शाहपीर बाबा ने कहा कि ' मैं ठहरा सूफी, मुझे हिसाब-किताब से क्या मतलब। मैं किसी तरह का हिसाब-किताब नहीं रखता '। इतना सुन शाहजहां ने इसका निर्माण रुकवा दिया था, और इसके बाद यह मकबरा अधूरा ही रह गया।
इस मकबरे के अधूरे निर्माण की वजह से गुंबद की छत पूरी नहीं है। स्थानीय लोगों में यह भी भ्रम या कहानियां प्रचलित हैं कि इसमें बरसात का पानी नहीं जाता है, लेकिन सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। बरसात जब तेज हवा के साथ होती है, तो वह खुले गुंबद से अंदर नहीं जा पाती है, लेकिन जब बरसात बगैर हवा के होती है, तो इसमें बरसात का पानी जाता है। मकबरे के अंदर जाने पर इसके दीवार से सटे नक्काशीदार स्तंभों पर हरी काई के निशान देखे जा सकते हैं, जो पानी के कारण होते हैं । स्थापत्य के नजरिए से यह मकबरा बेजोड़ है, इसमें लगे पत्थर और फतेहपुर सीकरी, आगरा में लगे पत्थर एक ही तरह के हैं। स्थापत्य के अनुपम उदाहरण इस मकबरे की बाहरी और भीतरी सुंदरता देखते ही बनती है।
दरअसल यह मकबरा शाहपीर रहमत उल्लाह की मजार है और शाहपीर के मकबरे के नाम से जाना जाता है। रहमत उल्लाह का जन्म रमजान की पहली तिथि को 978 हिजरी (1557 ई.) में मेरठ के शाहपीर गेट पर हुआ। कहा जाता है कि इनके वंशजों की नवीं पीढ़ी आज भी शाहपीर गेट पर उसी मकान में रह रही है। यह भी कहा जाता है कि इनके पूर्वज ईरान के शिराज शहर से आए थे। बेहद सरल और सहज स्वभाव के शाहपीर की लोगों के बीच खासी आस्था थी। उनके ईमान के रास्ते को देखकर आज भी लोग यहां सिर झुकाते नजर आते हैं। उन्होंने लोगों को अपने दीन और ईमान पर चलने की शिक्षा दी। इस मकबरे के सामने इनके वंशजों की मजारें भी मौजूद हैं, जिसकी सुरक्षा मौजूदा पीढ़ी द्वारा की जाती है । फिलहाल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी इसका संरक्षण कर रहा है, जो कि मेरठ शहर के पुरातात्विक अवशेषों को संरक्षित करने के प्रयास में है।
इस मकबरे का निर्माण 1620 ई. में नूरजहां द्वारा कराया गया था। किसी समय में यह मकबरा सड़क के एकदम किनारे पर था, लेकिन अब घनी आबादी हो जाने के कारण मुख्य मार्ग से आसानी से नहीं दिख पाता है। आप जैसे ही मकबरे के पास जाते हैं, तो इसकी सुंदरता आपको अनायास ही अपनी ओर खींच लेती है। मकबरे का स्थापत्य देखने लायक है, इसमें लाल बलुए पत्थर से बनाए गए नक्काशीदार अलंकरण इसे अलग ही शोभा प्रदान करते हैं। मकबरे के अंदर जाकर देखने से साफ पता चल जाता है कि इसका निर्माण अधूरा है। इस मकबरे के संबंध में आज भी कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं। जनश्रुतियों के अनुसार शाहपीर से बादशाह के किसी अधिकारी ने इसमें होने वाले खर्च का हिसाब मांग लिया था, तो शाहपीर बाबा ने कहा कि ' मैं ठहरा सूफी, मुझे हिसाब-किताब से क्या मतलब। मैं किसी तरह का हिसाब-किताब नहीं रखता '। इतना सुन शाहजहां ने इसका निर्माण रुकवा दिया था, और इसके बाद यह मकबरा अधूरा ही रह गया।
इस मकबरे के अधूरे निर्माण की वजह से गुंबद की छत पूरी नहीं है। स्थानीय लोगों में यह भी भ्रम या कहानियां प्रचलित हैं कि इसमें बरसात का पानी नहीं जाता है, लेकिन सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। बरसात जब तेज हवा के साथ होती है, तो वह खुले गुंबद से अंदर नहीं जा पाती है, लेकिन जब बरसात बगैर हवा के होती है, तो इसमें बरसात का पानी जाता है। मकबरे के अंदर जाने पर इसके दीवार से सटे नक्काशीदार स्तंभों पर हरी काई के निशान देखे जा सकते हैं, जो पानी के कारण होते हैं । स्थापत्य के नजरिए से यह मकबरा बेजोड़ है, इसमें लगे पत्थर और फतेहपुर सीकरी, आगरा में लगे पत्थर एक ही तरह के हैं। स्थापत्य के अनुपम उदाहरण इस मकबरे की बाहरी और भीतरी सुंदरता देखते ही बनती है।
Comments