चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा आयोजित हिंदी दिवस के मौके पर 'समकालीन भारतीय संदर्भ और हिंदी' विषय पर आयोजित संगोष्ठी के अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार केदार नाथ सिंह से बातचीत
आम जनता की लड़ाई में लेखक गायब हैं, क्या वजह है?
अन्ना के आंदोलन में किसी तरह की कोई विचारधारा तय नहीं थी, इसलिए लेखक भी सक्रिय नहीं हो पाए। जैसे- जेपी आंदोलन की एक विचारधारा थी, उस समय लेखकों की सक्रियता दिखी। किसी आंदोलन के साथ कोई विचारधारा का धरातल होगा तो लेखक खुलकर सामने आएंगे। लेखकों ने लिखा है, ज्यादातर आंदोलनों में समय-समय पर लेखकों ने अपनी भूमिका अदा की।
इंटरनेट में बच्चों की व्यस्तता है, किताबों की तरफ बच्चों का रुझान नही है?
 किताबों के लिए मानवीय पहलू भी है, जिसमें पाठक का जुड़ाव गहरा होता है। जैसे शिक्षकों के साथ छात्रों का है, मानवीय रिश्तों की बात है। यहां एक संबंध प्रत्यक्ष रूप से होता है, जिसमें छात्र शिक्षक से जुड़ता है। मशीन मानवीय क्षति की पूर्ति नहीं कर सकती। इंटरनेट पर काफी हद तक हिन्दी की भी किताबें हैं, लोग पढ़ते हैं। इंटरनेट किताबों की जगह नही ले सकता, प्रिंट मीडिया हमेशा अपनी खासी भूमिका अदा करता रहेगा। इसको लेकर निराशा नहीं होनी चाहिए कि इंटरनेट पर हिंदी की किताबें कम है। शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जा रहा साहित्य बेहतर तरीके से नहीं पढ़ाया जा रहा है, कम से कम छोटी कक्षाओं में तो यह स्थिति नहीं होनी चाहिए।
बाल साहित्य नहीं लिखा जा रहा है, क्यों गायब है?
बाल साहित्य नहीं लिखा जा रहा, यह चिंता का विषय है, पहले की अपेक्षा कम लिखा जा रहा है। इसकी पड़ताल होनी चाहिए, इस लेखन के लिए लोगों को आगे आना चाहिए। जैसे किसी समय में लोव तोलस्तोय, प्रेमचंद और रवींद्र नाथ टैगोर ने बाल साहित्य लिखा, जिसका असर व्यापक रहा। प्राचीन पंचतंत्र यूनिवर्सल है यह कई भाषाओं में विकसित हुआ। यहां तक अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित हुआ। ऐसा हिन्दी भाषा में नहीं हुआ, इसके लिए हमेंं लोक साहित्य की ओर एक बार फिर से रुख करना चाहिए। लोक साहित्य में बच्चों के लिए व्यापक सामग्री है, उन्हें प्रकाशित कर बच्चों के सामने लाना चाहिए।
हिंदी और इंग्लिस के सामानातंर ह्ग्लििंस का चलन बढ़ रहा है, यह कहां तक उचित है?
भाषा का विकास हमारे और आपके द्वारा ही होता है, पहले संस्कृत, पाली, मगध, अवधी, भोजपुरी, खड़ी बोली और फिर देवनागरी आदि बदलाव भाषा में आए। तो दिक्कत क्या है। हां हमारे साहित्य की सार्थकता तो पाठकों पर दिखती है, वह जैसा इस्तेमाल करते हैं वैसा पढ़ने भी लगे हैं। किसी भाषा में दो-चार शब्दों के फेर से कुछ नहीं बिगड़ता।  हां, जो शब्द अर्थ का अनर्थ करते हैं, उनसे परहेज करना चाहिए।
हिंदी और उर्दू को कवि दुष्यंत ने सगी बहने कहा है, इन दोनों भाषाओं के तालमेल की क्या स्थिति है?
पहले तो दोनों के प्रति दुर्भावना दूर करनी चाहिए, उर्दू में हिंदी पढ़ने की प्रवृत्ति नहीं है और हिंदी में ऊर्दू पढ़ने की, यह खतरनाक है। हिंंदी में बहुत से शब्द  उर्दू के हैं, और इसी तरह उर्दू में हिंदी का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है। इसमें परहेज नहीं होना चाहिए, दोनों सगी बहनें हैं। हिंदी के भविष्य के लिए तो आशावान हूं, लेकिन राजभाषा हिंदी से कोई उम्मीद नहीं है।
क्या वजह है कि अंग्रेजी साहित्य ज्यादा समृद्ध है, चर्चित होता है, और हिंदी नहीं?
अंग्रेजी साहित्य का बाजार पूंजीपतियों के लिए है, जहां वह अच्छे दामों में बिकता है। हिंदी के पाठक मध्यमवर्गीय या बेहद गरीब भी हैं, जो मंहगे साहित्य को पढ़ने की जोखिम नहीं उठा पाते। अच्छे दामों में अंग्रेजी साहित्य बिकने की वजह से प्रकाशन और यहां तक लेखन भी आला दर्जे का हो रहा है। इसके विपरीत हिंदी का बाजार में पूंजी का अभाव है, पाठक समृद्ध नहीं है।
क्या वजह है कि प्रेमचंद जैसे लेखक हिंदी में नहीं नजर आते, जबकि अंग्रेजी में अरुंधती राय, चेतन भगत और अन्य लेखकों चर्चित हैं?
हिंदी साहित्य का बाजार लचर है, एक लेखक को पैदा होने में शताब्दी लगती हैं। बाजार लचर होने की वजह से लेखकों के सामने आने में दिक्कतें हैं, इसी लिए नये लेखक भी हिंदी साहित्य से जुड़ने की जहमत नहीं उठाते। हिंदी साहित्य में
हिंदी के फैलाव में प्रकाशकों की भूमिका कैसी हे?
हिंदी साहित्य के लिए प्रकाशकों का लेखकों से बेहतर तालमेल नहीं हो पाता। हर साहित्यकार के लिए यह बड़ी चुनौती है, हर जगह कमीशनखोरी है। इसका प्रभाव भी हिंदी साहित्य पर पड़ा। किसी किताब के प्रकाशन के लिए हर लेखक को प्रकाशक से दो-चार होना पड़ता है।
दलित साहित्य को लेकर लेखकों ने कहा कि गैर दलित साहित्यकार इसे महसूस नहीं करता?
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि गैर दलित साहित्यकार दलित साहित्य को अनदेखा कर रहा है। हां दलित लेखन कम हो सकता है, दलित ही क्यों लेखन ही पहले की अपेक्षाकृत घटा है। ऐसा नहीं है, दलित साहित्यकार के अलावा भी लोग लिख रहें हैं। हां इतना जरूर है कि पहले की अपेक्षा कम लिखा जा रहा है। कुछ कृतियां अभी हाल ही में बाजार में आर्इं, जो बेहद अच्छी हैं, जैसे अभी हाल ही में आई तुलसीराम की किताब 'मुर्दहिया'लोगों ने काफी पसंद की।








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