Sunday, November 4, 2012

बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय

  बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय देश के गिने-चुने संस्कृत महाविद्यालयों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों में बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसे वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और समानान्तर शिक्षा का प्रयास किया गया है।  विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और मौजूदा समय में यह संपूर्णानंद संस्कृ त महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है। यह देश के प्रसिद्ध संस्कृत शिक्षण संस्थानों में गिना जाता है। ___
 
सदर इलाके में स्थित बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय गिने-चुने संस्कृत महाविद्यालयों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण महाविद्यालयों में बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसको संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया था और मौजूदा समय में यह संपूर्णानंद संस्कृ त महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है।
  किसी समय में जहां महाविद्यालय है, वहां बेलपत्रों के पेड़ का जंगल था। बेल पत्रों से घिरा होने की वजह से यहां मौजूद पौराणिक शिव मंदिर बिल्वेश्वर मंदिर के रूप में चर्चित हुआ। किसी समय में मंदिर की उपासना और शिक्षा की वजह से छात्र और गुरु इसके आसपास रहा करते थे। बाद में इस स्थान पर संस्कृत भाषा का शिक्षण कार्य शुरू हुआ। जिसमें बेलपत्रों की छाया में शिक्षक छात्रों को संस्कृत भाषा में पढ़ाया करते थे। गुरु-शिष्य के शिक्षण के आदान-प्रदान के चलते यहां गुरुकुल परंपरा पड़ी। प्राप्त अभिलेखों के अनुसार 1821 में गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज की स्थापना हुई जो काशी विश्वविद्यालय से संबद्ध हुआ। प्रारंभिक तौर पर यहां संस्कृत की कक्षाएं लगनी शुरू हुर्इं और इस विद्यालय को संस्कृत विद्यालय की पहचान मिली, जिसे बिल्वेश्वर संस्कृत विद्यालय भी कहा गया।
 संस्कृत भाषा के शिक्षण कार्य को देखकर 1927 में परास्नातक की कक्षा की मान्यता भी मिली और यह विद्यालय से महाविद्यालय हुआ। तब यहां व्याकरणाचार्य की शिक्षा भी प्रदान की जाने लगी। लगातार संस्कृत भाषा के क्षेत्र में मिलती उपलब्धियों को देखकर 1964 में इस महाविद्यालय को साहित्याचार्य की मान्यता मिली। उस दौरान यह महाविद्यालय उत्तर प्रदेश के संस्कृत महाविद्यालयों में प्रथम श्रेणी का घोषित हुआ। 1965 में ज्योतिषाचार्य की शिक्षा का आरंभ हुआ और ज्योतिषाचार्य की उपाधि भी दी जाने लगी। महाविद्यालय का शैक्षिक स्तर हर कदम पर कई चरणों में ऊपर बढ़ता गया। यही नहीं समय-समय पर मनीषियों ने इस महाविद्यालय को धन्य किया। 1927 में पंडित प्यारे लाल शास्त्री ने प्राचार्य पद पर रहकर अपने सराहनीय प्रयासों से यहां के शिक्षा के स्तर को बढ़ाया। इसके बाद 1936 में पंडित हरिदत्त शास्त्री भी इस महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर रहे। 1980 में डा गिरिजा बलूनी प्राचार्य रहे और मौजूदा समय में डॉ चिंतामणि जोशी यहां के प्राचार्य हैं।
  पंडित हरिदत्त शास्त्री और पंडित प्यारे लाल शास्त्री जैसी विभूतियों ने संस्कृत भाषा के बढ़ावे और महाविद्यालय के लिए कई प्रयास किए, जिनमें यहां दो मंजिला भवन भी शामिल है। इस दो मंजिला भवन के लिए 1951 में मदन गोपाल सिंघल और हरिदत्त के प्रयास सार्थक हुए और इसका निर्माण हुआ। जिसका उद्घाटन उप राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया। समय-समय पर आयोजित आयोजनों में देश की कई विभूतियां यहां आती रहीं, यहां महान संस्कृत मनीषियों के अलावा केएम मुशीं, श्री प्रकाश गर्ग केंद्रीय वाणिज्य सचिव, संस्कृत विद्वान एएन झा, काशी विवि के कुलपति पंडित मंडन मिश्र, राजेंद्र मिश्र, डॉ देव स्वरूप आदि समय-समय पर आए। 1956 में संपूर्णानंद जब मुख्यमंत्री थे, तब इस महाविद्यालय को संस्कृत विवि काशी से संबद्ध कर इसका नाम संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय किया गया। आज भोजन और आवास की सुविधा सहित यह महाविद्यालय अपने आप में महान विद्यापीठ साबित हो रहा है। अठ्रहवीं शताब्दी के मराठा वास्तु शिल्प का बेजोड़ नमूना विद्यालय का यह पुराना भवन, जिसमें पूरा परिसर है, देखते बनता है। यह मेरठ शहर की प्राचीनतम धरोहरों में से एक है। 14 कमरों के छात्रावास के साथ शिक्षण और आवास की सुविधाओं के जरिए शिक्षण का कार्य प्रगति पर है।  हां पहले की अपेक्षा शिक्षकों की संख्या कम है, 11 शिक्षक थे, जिसमें नई नियुक्तियांं न होने के कारण अब मात्र पांच शिक्षकों द्वारा ही शिक्षण हो रहा है।

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