Sunday, November 4, 2012

71 का जांबाज ब्रिगेडियर रनवीर

  ब्रिगेडियर रनवीर सिंह 1971 (भारत-पाक लड़ाई) के प्रमुख योद्धाओं में रहे हैं। उन्हें इस युद्ध में बहादुरी के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया। उन्होंने फौज में सेकेंड लेफ्टिनेंट, मेजर, लेफ्टिनेंट कर्नल और ब्रिगेडियर तक का सफर तय किया। वह मराठा रेजीमेंट के बहादुर सैनिकों में गिने गए और बहादुरी के लिए विशिष्ट सेवा सम्मान से भी उन्हेंसम्मानित किया गया।
दौराला के धंजू गांव में जन्मे ब्रिगेडियर रनवीर ने 1952 में एनएएस कॉलेज से हाई स्कूल और मेरठ कॉलेज से एमए की पढ़ाई की। अपनी धुंधली यादों में खोकर वह कहते हैं, मैं मेरठ कॉलेज के न्यू ब्लॉक हॉस्टल में रहता था, जहां मेरा कमरा नंबर 108 था। उस दौरान भी मैं कॉलेज का सीनियर मॉनीटर था।  अपने दमखम की वजह से खेलकूद प्रतियोगिताओं में भी जीत दर्ज करता रहा। कॉलेज की एथलेटिक्स टीम का कप्तान रहा और विश्वविद्यालय की कई प्रतियोगिताएं भी जीतीं।
उस समय मेजर श्याम लाल, मेजर माथुर और प्रो एमएल खन्ना आदि नामी शिक्षक  थे। 1956 में ही इंडियन मिलिट्री एकेडमी में मेरा चयन हो गया। मैं मराठा रेजीमेंट में सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर तैनात हुआ। मेरी सेवाओं को देखकर एक के बाद एक मेरा प्रोमोशन होता गया और मैं सेना के लिए उपलब्धियां बटोरता गया। इन्हीं विशिष्ट सेवाओं के तहत मैं लेफ्टिनेंट से मेजर फिर लेफ्टिनेंट कर्नल और ब्रिगेडियर बना। नौकरी के दौरान 1971 में (भारत-पाक लड़ाई में) और मिजोरम में पहली बार चुनाव कराने में मेरी बहादुरी के लिए सरकार की तरफ से दो बार विशेष सम्मान मिला। 1971 में वीर चक्र से देश के राष्ट्रपति वीवी गिरि ने सम्मानित कि या। दोबारा मिजोरम में मेरी सेवाओं के लिए राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अतिविशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया।
वह अपने अतीत में जाकर 1971 की भारत-पाक लड़ाई का जिक्र करते हैं, '' दिसंबर की ठंडक थी, हमारी पल्टन वेस्टर्न सेक्टर, जो राजस्थान का किनारा था, पर थी। पाकिस्तानी फौजें दिन-रात ऊपर से हैलीकॉप्टर से निगरानी कर रहीं थी। बुर्ज और फतेहपुर दो जगहें थीं, जहां पाकिस्तानियों ने कब्जा कर रखा था। हमने उन्हें रातभर थकने का मौका दिया क्योंकि वह जानते थे कि जो हमला होगा वह रात में या तड़के सुबह ही होगा। इस सोच का फायदा उठाकर हमने जब पाकिस्तानी थक गए, तो मौका देख ऊपर के अधिकारियों को सूचित किया।
उस समय कम्युनिकेशन के लिए गिने-चुने ही वायरलेस सेट होते थे, इसलिए पूरी पल्टन के पास एक ही होता था। शर्त यह होती थी कि जो भी बात हो, वह कोड भाषा में हो, लेकिन समय के अभाव को देख हमने खुलकर सीधी भाषा में पूछा कि - क्या हम हमला करें, विरोधी फौज निश्चिंत हो चुकी है, आदेश हुआ और हमने हमला बोल दिया। उनके 54 सैनिक मारे गए बाकी मैदान छोड़ भाग गए, कुछ रावी नदी में डूबकर मर गए। हमारे नौ सैनिक मारे गए, वो भी इसलिए कि उन्होंने टैंकों को उड़ाने के लिए माइन बिछार्इं थीं, जिनकी जानकारी हमें हो ही नहीं पाई। होता यह था कि जो माइन फौजों को उड़ाने के लिए बनाई जाती थीं, वह आसानी से दिख जाती थीं, लेकिन इन माइंस का पता आसानी से नहीं चला। मेरे हाथ में गोली लगी, गोली का खोखा हाथ में फंसा रह गया। खून बुरी तरह से बह रहा था, लेकिन हम लोगों ने उनके सारे बारूद, टैंक और गन कब्जे में ले लिए और जीत हासिल की। बाद में मुझे प्राथमिक उपचार के लिए लाया गया, फिर फौज के छोटे अस्पताल में ले जाया गया। यहां से कई अस्पतालों में आपरेशन के लिए भेजा गया। 6 दिसंबर से 26 जुलाई तक सिर्फ उपचार के लिए कई अस्पतालों में सफर करता रहा। अंत में आपरेशन के बाद मेरा हाथ सही हुआ। हमारी पल्टन में से 1 शहीद को महावीर चक्र से, 5 को वीर चक्र, 6 को सेना मेडल और 2 को सांत्वना पुरस्कार से सम्मानित किया गया।'              - अनूप मिश्र

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